राजस्थान: लोकगीतों के संसार से दिखता प्रकृति का अद्भुत नजारा
राजस्थान वैसे तो मरुस्थल और भीषण गर्मी के लिए मशहूर है पर यह जानना काफी दिलचस्प है कि वहां के लोग इन अनुभवों को कैसे जीते हैं. विशेषज्ञों की मानें तो इन लोक गीतों को सहेजने की जरूरत है. गांव-समाज में भी अब इन लोकगीतों को गाने वाले कम हो रहे हैं.
जेठ का महीना था और रात के इस चौथे पहर में भी झुलस जाने का डर तारी था. दिन भर की चिलचिलाती धूप में तपने के बाद आम लोगों की तरह रेगिस्तान भी जैसे थका हुआ था. सब नींद की आगोश में थे. तभी दूर से एक महिला के गाने की आवाज आनी शुरू हुई. इस आवाज के साथ घरटी (हाथ से चलने वाली चक्की) की घरर-घरर आवाज भी आ रही थी, जैसे धुन मिला रही हो. दूर से गाने के बोल स्पष्ट नहीं हो रहे थे.
यह जैसलमेर के सांवता गांव का अनुभव है. पौ फटने के साथ ही यहां लोग सक्रिय होने लगे. शायद धूप के आने के पहले ही दिनचर्या की जरूरी चीजें निपटाने का दबाव था. पारंपरिक लिबास में महिलाओं का एक समूह पास के टांके पर पानी भरने गया. यहां के पारंपरिक लिबास में घाघरा, चोली और ओढनी शामिल है. कुछ ही देर में एक महिला के गाने की आवाज आई. पानी भरते हुए वह महिला गा रही थी. इनका नाम उमादे कंवर है और इनके गाने के बोल कुछ ऐसे थे-
“बरसो बरसो ओ इन्दर राजा बाबोसा रे देस
थोड़ा तो बरसो ओ म्हारे सासरे.
हळियो हंके ओ बीरा म्हारा मगरा में जाय
भा’इजो भा’इजो ओ बीरा म्हारा लीलोड़ी जंवार
धोरा में भा’इजो ओ मीठो बाजरो”
हे इन्द्र देव! आप बरसो, मेरे पिता के देश (पीहर) में और थोड़े बरसो मेरे ससुराल में भी. बरसा होगी तो चारों ओर खुशहाली आएगी. खेतों में हल चलेंगे और मेरे भैया मगरे में खेत जोतने जाएंगे. मेरे भैया तुम हरी-हरी ज्वार बोना और रेतीले धोरों पर मीठे बाजरे के बीज डालना.
इन महिलाओं को लग रहा था कि इन गीतों को सुनकर बादल आएंगे और धरती की प्यास बुझेगी. हालांकि भारत मौसम विज्ञान विभाग के मॉनसून (IMD) के आंकड़ों पर ध्यान लगाए लोगों के लिए इन गीतों का शायद ही कोई मतलब हो पर इन महिलाओं के लिए तो सदियों से ये गीत ही हैं जिन्हें सुनकर बादल आते हैं और फिर सबकुछ हरा-भरा हो जाता है.
अलसुबह के चक्की और गाने की आवाज के बारे में पूछने पर कई महिलाओं ने एक साथ, हरे रंग के पारंपरिक लिबास में खड़ी एक महिला की तरफ इशारा किया. वह महिला मंद-मंद मुस्करा रही थी. बड़ी मुश्किल के बाद अपना नाम बताया- गुड़िया कंवर. कई बार पूछने पर कि क्या गा रही थीं आप, उन्होंने चार पंक्तियां सुनाई-
“बाजरड़ी घमड़ कै पीसै
जोवां को हरड़ाट
मकिया बैरण इसड़ी पीसूं
बादळ रो घरराट ”
इस बोल को समझने के लिए दूसरों की मदद लेनी पड़ी. यह कुछ ऐसे है, “बाजरा और जौ पीसने में तो आसान है. लेकिन मक्का पीसते समय चक्की मुश्किल से चलती है. चलते हुए ये बादल गरजने जैसी आवाज़ करती है.”
यहां के गीत-संगीत में बादल को खासी जगह दी गयी है. इस क्षेत्र में बादल के मायने अलग हैं जिसका इतना इंतजार शायद ही कहीं और होता हो. बादल के आने की सूचना देने के लिए अलग गीत है तो विदाई देने के अलग.
थार में मॉनसून आने की सूचना मांगणियार समुदाय के लोकगायक इशाक खान “आज रे उत्तरीए में हांजी धूंधको रे, बरसे मोंजे जैसोणे रो मेह” लोकगीत गाकर देते हैं.
“आज उत्तर दिशा में धुंध भरे बादल और घटाएं उमड़ रही हैं. जैसाणे यानी जैसलमेर (मतलब पूरा पश्चिमी राजस्थान) में मेह बरसेगा.”
राजस्थानी साहित्यकारों और लोकगायकों की मानी जाए तो राज्य में बादलों के सौ से ज्यादा पर्यायवाची शब्द हैं. इशाक बताते हैं, “ठंडी हवा साथ लाने वाले बादलों को ‘कळायण’, रूई जैसे बादलों को ‘सिखर’, छितराए हुए बादलों को ‘छितरी’, अकेला छोटा बादल ‘चूंखो’ और ऐसा काला बादल जिसके आगे सफेद पताका दिखे उसे ‘कागोलड़’ कहते हैं.” यह इत्तफाक ही कहा जाएगा कि वर्ल्ड मेटेरेलोजिकल ऑर्गनाईजेशन (WMO) भी कहता है कि आसमान में करीब सौ तरीके के बादल होते हैं.
बारिश की शुरुआत के साथ ही राजस्थान के पूर्वी जिले करौली, सवाई माधोपुर और हाड़ौती के किसान खेत जोतने की तैयारी करते हैं. इस दौरान किसान जुताई करने और एक-दूसरे की मदद वाले लोकगीत गाते हैं. सवाईमाधोपुर जिले की बामनवास गांव के किसान ल्होरे लाल मीणा मोंगाबे-हिंदी को इसका एक उदाहरण देते हैं, “हां रे… काड़ी-पीळी घटा उठे/अम्बर में बीजड़ी कड़के रे…..चालां खेतन में, हड़जोता उठ जा तड़के रे...”
ल्होरे मतलब समझाते हैं, “बारिश के आसार होने पर गांव के चबूतरे पर रात में किसान एक-दूसरे से कह रहे हैं कि आसमान में काली-पीली घटाएं उठ रही हैं. बिजली कड़क रही है. सुबह जल्दी उठकर खेतों में हल जोतने चलना है. हालांकि अब खेत हल से नहीं बल्कि ट्रैक्टरों से जोते जाते हैं. लेकिन हमारे बुजुर्गों ने हल से खेत जोतते हुए उसकी महत्ता और आपसी सहयोग की भावना को गीतों के जरिए संजोया है. इसी भावना को हम आज भी इन लोकगीतों के माध्यम से जाहिर करते हैं.”
खेत जोतने और बोने के बाद मारवाड़ में खेतों में काम करते हुए महिलाएं सामूहिक रूप से हरियाळौ लोकगीत गाती हैं. इन लोकगीतों में एक महिला एक पंक्ति गाती है और उसके बाद खेतों में काम कर रही बाकी महिलाएं टेर लगाकर बाकी पंक्तियां गाती हैं.
वहीं, खेत पर काम करते समय पुरुषों की ओर से गाए जाने वाले लोकगीतों को ‘भणत’ कहा जाता है.
बाड़मेर जिले के डेडरियार गांव में रहने वाले लोकगायक भीखा खान मांगणियार भणत और हरियाळौ जैसे लोकगीतों को आपसी सौहर्द, खेती-किसानी और प्रकृति से जुड़े रहने का जरिया मानते हैं. वो बताते हैं, “रेगिस्तान में बारिश कम होती है. जब कभी अच्छी बारिश होती है, तो उस जमीन पर किसी एक व्यक्ति के लिए खेती करना कठिन हो जाता है. तब लाह, भणत या भैया लोकगीत गाते हुए सभी गांव वाले एक-दूसरे की खेती में मदद करते हैं. इस तरह से काम आसानी से और जल्दी होता है. साथ ही इस तरीके से खेती-किसानी के तौर-तरीकों को अगली पीढ़ी तक पहुंचाया जाता है.”
भीखा बताते हैं कि बरसात के दिनों में बरसाळौ, रिमझिम बरसे मेघ, लाह, भणत, पणिहारी के साथ-साथ श्रृंगार और विरह के कई लोकगीत प्रचलित हैं. बीकानेर और शेखावाटी क्षेत्र में वर्षा ऋतु में महिलाएं पीपली गीत गाती हैं.
बरसात के मौसम में जालौर क्षेत्र में जीरो लोकगीत काफी गाया जाता है.
मत बाओ म्हारा परनिया जीरो
यो जीरो जीव रो बैरी रे
मत बाओ म्हारा परनिया जीरो
मेरे पति! जीरा मत बोओ. इसमें काफी मेहनत लगती है और इसका अधिकतर बोझ महिलाएं ही उठाती हैं. इसलिए ये मेरी जान की बैरी है.
जैसलमेर में रह रहे पर्यावरणविद् पार्थ जगाणी मोंगाबे-हिंदी से कहते हैं, “चौमासे में राजस्थान ही नहीं बल्कि पूरे भारत का ग्रामीण समुदाय व्यस्त हो जाता है. भारत में चौमासा एक उत्सव है. उत्सव की अपनी व्यस्तता है. इसका भार सबसे अधिक महिलाओं पर पड़ता है. पश्चिमी राजस्थान के लोकगीतों में महिलाओं के इस दुख को भी जगह दी गई है.
राजस्थान के लोकगीत और प्रकृति के संबंधों पर बात हो तो लोग सामान्यतः बरसात की ही चर्चा करते हैं. वाजिब भी है क्योंकि इस प्यासी धरती के लिए बरसात से जरूरी क्या होगा! पर ऐसा है नहीं. यहां के लोकगीतों में सभी ऋतु को ऐसा ही सम्मान मिला है.
आम जीवन में रोजमर्रा के संघर्ष में लगे लोगों को सबसे अधिक कोई भय सताता है तो वह अपनों के बिछड़ जाने का. यह बिछड़ना रोजी-रोटी की तलाश में परदेश जाने का हो सकता है या मौसम की मार झेलने की वजह से. राजस्थान में बिछड़ने के इस दुख को कई तरह के विरह गीतों के जरिए दिखाया गया है. कुरजां, पींपळी, झोरावा, मूमल, कागा, लावणी, सुवटिया जैसे विरह गीत आज भी लोगों की जुबां पर है. ‘कुरजां ऐ राण्यो भंवर..’ नाम के इस प्रसिद्ध लोकगीत में प्रवासी पक्षी क्रेन (कुरजां) के जरिए परदेस में अपने प्रेमी या पति को संदेश देने की बात कही जा रही है. यो ठंड की शुरुआत के साथ ही महिलाएं अपने पति को कुछ इस तरह दूसरी जगह काम के लिए जाने से रोकती हैं.
ढोला मत जाओ जी
स्याला म
कांप रह्य छ धरती अम्बर
चालंगा उन्दाला मं
ढोला…
मेरा प छा रहयो छ लूण्यो
गार गलडकती होरी
ताप ताप क गरम हो रहया
गांवा म छोरा- छोरी
ढोला………
‘तेज सर्दी के कारण पृथ्वी और आकाश दोनो कंपकंपा रहे हैं. तेज ओस के कारण खेत की मेड़ों पर नमक सा जम गया है. जमीन बिलकुल ठंडी हो गई है. गांव के बच्चे अलाव जला कर गर्म हो रहे हैं. मैंने भी सर्दी दूर करने के लिए घर के दरवाजे की टाटी, छप्पर, छत के फूस और घास को भी अलाव में डाल दिया है. साथ ही घर के सदस्यों के पहने जाने वाले कपड़े भी उपयोग कर लिए हैं. इस सब के बाद भी मेरी सभी कोशिशें नाकाम हो चुकी हैं.’
ऐसे ही कुछ प्राकृतिक आपदाओं का भी भय सताता रहता है. राजस्थान में कहावत है, “माघ मास जो पड़ै ना सीत, मेहा नहीं जांणियो मीत” मतलब माघ के महीने में अगर सर्दी ना पड़े को आने वाले साल में अकाल का अंदेशा होता है. अकाल मरुभूमि के लिए नया नहीं है. कई कवियों और लेखकों ने संवत 1956 यानी साल 1899 में पड़े अकाल के दुख को लिखा है. लोकव्यवहार में आज भी इस अकाल को छप्पनियां अकाल कहा जाता है.
ओ म्हारो छप्पन्हियो काल
फेरो मत अज भोळी दुनियां में
बाजरे री रोटी गंवार की फल्डी
मिल जाये तो वह ही भली
“अरे मेरे छप्पनियां अकाल! अब कभी इस भोले-भाले लोगों के देश में लौटकर मत आना. क्योंकि अकाल में ग्वार की फली के साथ बाजरे की रोटी भी नसीब हो जाए वही काफी है.”
इसी तरह पश्चिमी राजस्थान में भी अकाल को लेकर कहावत है.
पग पुंगल धड़ कोटड़ा, बाहां बाड़मेर.
आवत -जावत जोधपुर, ठावो जैसलमेर.
अर्थात अकाल के पैर पुंगल (बीकानेर) और धड़ कोटड़ा और भुजाएं बाड़मेर में स्थाई रूप से पसरी रहती हैं. जोधपुर में भी आवाजाही रहती है परन्तु जैसलमेर तो अकाल का रहवास है.
इसीलिए अकालों से बचने के लिए राजस्थान में मानसून का बेसब्री से इंतजार रहता है. लोग गर्मियों में चलने वाली हवाओं के रुख से बरसात के मौसम के अच्छे-बुरे होने का अनुमान लगाते हैं. इसके लिए शगुन शास्त्र विकसित किए गए हैं.
जैसलमेर के सांवता गांव के देगराय मंदिर के अहाते में बैठकर कई बुजुर्ग गर्मी के मौसम में चलने वाली हवाओं से आने वाली बारिश का अंदाजा लगाते हैं. इन्हीं बुजुर्गों में एक कमल सिंह दवाड़ा इन हवाओं और मौसम के आधार पर बनी भविष्यवाणी बताते हैं.
“रोहिनी बरसै मृग तपै, कुछ कुछ अद्रा जाय.
कहै घाघ सुने घाघिनी, स्वान भात नहीं खाय..”
यदि रोहिणी में पानी बरसे, मृगशिरा तपे और आर्द्रा नक्षत्र में साधारण वर्षा हो जाए तो धान की पैदावार इतनी अच्छी होगी कि कुत्ते भी भात खाने से ऊब जाएंगे.
आटो भाटो नै घी घड़ो, छुटी लटियां नार: शुभ का संकेत
राजस्थानी लोक-जीवन में प्रकृति की बहुत गहरी जड़े हैं. आम जन-जीवन में कही जाने वाले किस्से-कहावतों में प्रकृति से जुड़ी बातें हैं, जैसे आटो भाटो नै घी घड़ो, छुटी लटियां नार, इतरै सुगनै सांचरौ, तो न दिखे घर बार. मतलब खेत की तरफ जाते समय किसान की दाहिनी तरफ सुगनचिड़ी बोले और बांयी तरफ तीती बोले तो ये अच्छा शकुन माना जाता है. यदि वह किसान वर्ष भर के लिए किसी और मालिक का खेत जोतने जा रहा है, तो खेत में घुसते ही बांयी तरफ चिड़िया (सुगनचिड़ी) का तथा दाहिनी तरफ तीतर का बोलना शुभ माना जाता है.
हाड़ौती यानी कोटा, बूंदी, बारां क्षेत्र की लोककलाओं के जानकार जितेन्द्र शर्मा का मानना है, “लोकगीत इंसानों को प्रकृति, पर्यावरण के साथ रहना सिखाते हैं. सिर्फ हाड़ौती ही नहीं पूरे राजस्थान के लोकगीतों में पारिस्थितिकी, स्थानीय जलवायु और उसके प्रभावों को अलग-अलग भावों के जरिए उतारा गया है. हालांकि बदलते वक्त के साथ लोकगीतों का चलन काफी कम हुआ है, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी यह प्रचलित हैं.”
इसके कई उदाहरण हैं. जैसे राजस्थान के बीकानेर संभाग और बांगड़ क्षेत्र में सर्दियों में होने वाली बरसात यानी मावठ के महत्व को एक लोक कहावत के जरिए बताया गया है.
टीबा-टेचरी, टोमट माटी, मधरा-मधरा धोरा
लीला घोड़ा, लाल काठी, ऊपर गबरू गोरा
मावठ री जे सूत बैठज्या, भर-भर ल्यावै बोरा
रेतीली मिट्टी के धोरे/टीबे, हर फसल के लिए मुफीद बालू और चिकनी मिट्टी का मिश्रण, हल्की ऊंचाई के टीलों में हल्के नीले ग्रे रंग के रौबदार घोड़े पर लगी लाल काठी पर बैठा हुआ नौजवान. इसपर अगर रबी की फसलों (गेहूं, चना, सरसों इत्यादि) में अगर मावठ का मेह/बारिश सही बरस जाए तो बोरी भर-भर के धन घर में आए.
फागुन के खत्म होते-होते फसलें काटी जा चुकी हैं. इस फसल के कटने के बाद ही लोगों को आने वाले दिनों का डर सताने लगता है. गर्मी के बारे में बताते हुए बाड़मेर के कवि दीपसिंह भाटी लिखते हैं.
“चैतर वैशाखां, वाजै जांखां, तरवर शाखां, तरसावै
तन ताप तपावै, लू लपकावै, जैठ जळावै, जरकावै”
“चैत-बैशाख के महीनों में धूल भरी तेज आंधियां चलती हैं. तब पेड़ों की डालियां भी सूख जाती हैं. जेठ महीने में तो इतनी गर्मी और लू होती है कि लोगों के तन यानी शरीर भी सूखने लगते हैं.”
उधर ब्रज क्षेत्र में ऐसे कई उदाहरण मिलेंगे. जैसे गोबर के उपले थापते हुए ब्रज क्षेत्र की महिलाएं एक बारहमासी लोकगीत गाती हैं. इन गीतों में हिंदु कैलेंडर के हर महीने की ऋतु और उनमें किए जाने वाले कामों का जिक्र है. चूंकि ब्रज कृष्ण की भूमि है इसीलिए यहां के अधिकतर लोकगीत भजन आधारित होते हैं.
बरसात इत्यादि के मद्देनजर गोबर धन का अपना अलग महत्व है. कई जगह महिलाएं सर्दी और गर्मी में थापे उपलों को एक जगह इकठ्ठा करती हैं ताकि आने वाले बरसात के मौसम में ईंधन का इंतजाम हो सके. स्थानीय भाषा में इकठ्ठा कर लीपे हुए उपलों की जगह को बिटौरा कहते हैं. बिटौरा बनाते हुए महिलाएं ब्रज में प्रचलित बारहमासी लोकगीत गाती हैं.
इन्हीं बिटौरा में हाड़ौती क्षेत्र यानी कोटा, बारां, बूंदी जिलों में महिलाएं बिटौरा के साथ-साथ घरों में मांडने मांडती हैं. खड़ी, गेरू और चूने से आंगन और दीवारों पर मोर, बिल्ली, शेर, कोयल ,पेड़-पौधों को बनाकर घरों को सजाया जाता है. मांडने मांडते हुए मीरा देवी शर्मा, एक प्रसिद्ध हाड़ौती मांडना लोकगायक, एक लोकगीत गा रही हैं.
“सुसरा जी भरावैं ताल-तलैया
सास लगावे हरिया बाग
बजा रे रसिया अलगोजा
जेठ लगावै मगरे मोगरो
अरे जिठानी सींचे रे फुलवार
बजा रे रसिया अलगोजा
ननदोई उड़ावे काला-कागला
देवर नचावै मोर-पपैया
तो दौराणी की कोयल पुकार
बजा रे रसिया अलगोजा…”
ये मांडना बनाते हुए एक महिला गीत गा रही है जिसमें घर के सभी लोग प्रकृति से जुड़े काम करते हुए दिखाई दे रहे हैं. रसिया अलगोजा (एक वाद्य यंत्र )बजा क्योंकि मेरे ससुर जी ताल-तलैया भरवा रहे हैं सास ने घर में हरा बाग-बगिया लगाया है जेठ ने मगरे पर मोंगरा लगाया है और जेठना ने फुलवारी सजाई है इसीलिए रसिया (रसिया का मतलब किसी को संबोधन से है) अलगोजा बजा ननदोई इन बाग-बगीचों में से काले कौओं को उड़ा रहे हैं और मेरे देवर मोर-पपैया के साथ नाच रहे हैं तो देवरानी कोयल की तरह पुकार रही है इसीलिए दोस्त/ रसिया अलगोजा बजा.
हाड़ौती लोक-संस्कृति के जानकार मदन मीणा मोंगाबे से लोकगीतों में पर्यावरणीय चेतना पर कहते हैं, “स्थानीय समुदायों के लोकगीतों और अन्य लोककलाओं में जलवायु, पर्यावरण को बेहतरीन तरीके से शामिल किया है. जो आज भी लोगों की रोजमर्रा की ज़िदगी में देखने को मिलता है. हाड़ौती क्षेत्र में मांडना कला पर्यावरण के काफी करीब है. मांडने बनाते वक्त कई तरह के लोकगीत भी गाए जाते हैं. इन गीतों में शादी, शगुन, ऋतु, पशु-पक्षियों का जिक्र होता है. बदलते वक्त और तकनीक के साथ लोकगीतों का चलन कम हुआ है. ग्रामीण क्षेत्रों में भी इनका उपयोग लगातार कम हो रहा है. इसीलिए इन लोक कलाओं, गीतों को संरक्षित करने की जरूरत है.”
वहीं, आदिवासी संस्कृति में पर्यावरण, प्रकृति के आधार पर ही लोगों की जीवनशैली तय है. आदिवासी लोकसमाज और संस्कृति के जानकार लेखक हरिराम मीणा मोंगाबे-हिंदी से कहते हैं, “आदिवासियों में सिंधु घाटी सभ्यता से लेकर आजतक पारिस्थितिकी चेतना दिखाई देती है. आदिवासियों के भील समुदाय का गणचिन्ह महुआ का पेड़ है. मीणाओं का गणचिन्ह यानी टोटम नर मछली होता है. इनके लोकगीतों में भी पेड़-पौधे, वन्यजीव, मौसम की भविष्यवाणी का जिक्र मिलता है.”
(यह लेख मुलत: Mongabay पर प्रकाशित हुआ है.)
बैनर तस्वीर: राजस्थान के हाड़ौती क्षेत्र में दीवार पर ‘माण्डणा’ कला बनाती एक राजस्थानी महिला. इस कला में खड़ी, गेरू और चूने से आंगन और दीवारों पर मोर, बिल्ली, शेर, कोयल ,पेड़-पौधों को बनाकर घरों को सजाया जाता है. तस्वीर - मदन मीणा