अमर्त्‍य सेन का नोबेल भाषण: उन्‍मुक्‍त, भयमुक्‍त सोच की जरूरत अर्थशास्‍त्र को भी है

आज के दिन भारतीय मूल के विश्‍वविख्‍यात अर्थशास्‍त्री अमर्त्‍य सेन को इकोनॉमिक्‍स का नोबेल पुरस्‍कार मिला था. पढि़ए, उनका नोबेल भाषण.

अमर्त्‍य सेन का नोबेल भाषण: उन्‍मुक्‍त, भयमुक्‍त सोच की जरूरत अर्थशास्‍त्र को भी है

Saturday December 10, 2022,

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दो सहस्राब्दी से भी पहले कभी कवि होरेस ने कहा था, "सही समय पर मूर्ख होना अच्छा है." खैर, मैं इसे सही क्षण मानते हुए आपसे मूर्ख होने की याचना करता हूं.

यह रहा मेरा पहला मूर्खतापूर्ण विचार. किसी विषय और विचार की सैद्धांतिक सीमाएं चक्करदार संदेह पैदा कर सकती हैं. किसी भौतिक विज्ञानी को भी उत्तर-आधुनिक आलोचना को सामना करना पड़ सकता है. जीव विज्ञानियों को सृजनवादियों से पल्‍ला झाड़ने में काफी वक्‍त लगा. बेशक, अर्थशास्त्री और सामाज विज्ञानी तो खासतौर पर संदिग्ध हैं. डब्‍ल्‍यू. एच. ऑडेन (बीसवीं शताब्‍दी के प्रसिद्ध अमेरिकी कवि) ने इस संशयवाद को बहुत भावपूर्ण तरीके से अभिव्‍यक्‍त किया है:

“तुम नहीं बैठोगे

सांख्यिकीविदों के साथ

न ही प्रतिबद्ध होगे

एक सामाजिक विज्ञान के लिए.”

ठीक है, हम अपने एकांत कोनों में बैठे हुए, समाज विज्ञान के प्रति ‘प्रतिबद्ध’ होने को तैयार हैं. लेकिन यह देखना अच्छा है कि विज्ञान और संस्कृति के इस तरह के उल्लेखनीय उत्सव के मौके पर दूसरे लोग आखिर क्या कर रहे हैं.

सच तो ये है कि जब मैं छोटा बच्‍चा था तो मुझे  बांग्‍ला के महान कवि  रवींद्रनाथ टैगोर को जानने का सौभाग्य मिला है, जिन्हें 1913 में साहित्य के नोबेल पुरस्कार से सम्‍मानित किया गया था. और जिनकी महान उपलब्धियों में कई अन्य बातों के अलावा एक बात ये भी है कि उन्‍होंने दो देशों का राष्ट्रगान लिखा था- भारत और बांग्‍लादेश.

 

टैगोर ने शांतिनिकेतन में एक अनोखा स्कूल खोला था, जहां मेरे दादाजी पढ़ाते थे. मेरा जन्म उस स्कूल के मैदान में हुआ था. उस स्कूल का उद्देश्य ऐसी शिक्षा प्रदान करना था, जो एक साथ स्थानीय भी हो और वैश्विक भी. जैसाकि टैगोर ने कहा: "हम मनुष्‍य के द्वारा सर्जित चीजों में जिस भी चीज को समझते हैं और उसका आनंद लेते हैं, वह हमारे होने का अंश हो जाती है. चाहे वह धरती के किसी भी कोने पर पैदा क्‍यों न हुई हो.  

उनके सार्वभौमवाद, सहिष्णु और तर्कवादी आदर्शों का मेरी सोच पर गहरा प्रभाव था और इस विभाजनकारी समय में मैं अक्सर ही उन्हें याद करता हूं.

मेरा मानना ​​है कि खगोलशास्त्री चंद्रशेखर, जिनका जन्म भी भारत में ही हुआ था, जब उन्हें भौतिकी के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्‍मानित किया गया तो उन्होंने टैगोर की एक कविता पढ़कर सुनाई थी-

“जहां रूढ़ आदतों की मरूस्थली रेत में

तर्क ढूंढती निर्मल धाराएं

ना भटक गई हों अपनी राह."

चंद्रेशखर टैगोर की कही ‘मन और आत्‍मा की स्‍वतंत्रता’ की प्रशंसा कर रहे थे.

आप मुझे टैगोर के मन की स्वतंत्रता की प्रशंसा करने वाले चंद्रशेखर की प्रशंसा करने दें.

अब एक सचमुच गंभीर मूर्खतापूर्ण विचार. स्‍वतंत्र और आजाद विचारों का यह तर्क ऐसा है कि इससे अर्थशास्त्री भी बहुत कुछ सीख सकते हैं. विषय कोई भी हो, हठधर्मिता और रूढि़वाद की राह पर चलकर वह बहुत कुछ खो देता है (उदाहरण के लिए हमसे बार-बार यह पूछा जाता है: "क्या आप बाजार के खिलाफ हैं या उसके पक्ष में हैं? राज्य की कार्रवाई के खिलाफ हैं या उसके पक्ष में हैं? बस सवाल का जवाब दें- कोई योग्यता नहीं, नो 'इफ्स' एंड 'बट्स' प्लीज!").

यह विश्‍लेषण, विवेचना और तर्क को विशुद्ध नारों में बदल देने वाली बात है.  जिद, हठधर्मिता और रूढि़वाद की राह. चाहे वह रूढि़वाद इस प्रकार का हो या उस प्रकार का. वो कुछ भी हो सकता है, परंतु तर्क के परे.  

हमें "तर्क की स्पष्ट धारा" की जरूरत है. कवि टैगोर, भौतिक विज्ञानी चंद्रशेखर ने जिस स्‍वतंत्र, निर्भीक तर्क की बात की थी, अर्थशास्त्र को भी उसकी जरूरत है. उन्‍हीं कारणों से, जो उन्‍होंने बताए.  

यह आखिरी मूर्खतापूर्ण विचार है, जो आज रात मैं आप सबको दे रहा हूं.  


Edited by Manisha Pandey