संगीत जिसका एक ही मकसद था– सुनने वालों को खुशी और हैरत से भर देना
22 जून 1922 को बंबई के एक पारसी परिवार में जन्मे हिंदी और बंगाली फिल्मों के महान संगीतकार विस्तास आर्देशर बलसारा का यह शताब्दी वर्ष है.
अस्सी पार उस दुबले बूढ़े का एक वीडियो है, जिसमें वह अकॉर्डियन पर टैगोर का ‘पुरानो शे दिनेर कोथा’ बजा रहा है. एक और वीडियो में उसकी पतली झुर्रीदार उंगलियां पियानो की कुंजियों पर नृत्य कर रही हैं. उसके बहुत सारे साक्षात्कार देखने को मिलते हैं, जिनमें वह ठेठ बंगाली ज़ुबान में अपने संगीत के बारे में बता रहा है.
विस्तास आर्देशर बलसारा उर्फ़ वी. बलसारा ने छः साल की उम्र में बम्बई के सी.जे. हॉल में पेडल हारमोनियम पर अपना पियानो कंसर्ट दिया था. उसके बाद अगले क़रीब पिचहत्तर सालों तक उन्होंने अपना पूरा जीवन ऐसे संगीत के निर्माण में लगाया जिसका एक ही मकसद था – सुनने वालों को खुशी और हैरत से भर पाना.
पियानो, हारमोनियम और अकॉर्डियन के अलावा करीब तीस इंस्ट्रूमेंट्स पर महारत हासिल करने के बाद उन्नीस की आयु में बलसारा बम्बई की फिल्म इंडस्ट्री में गुलाम हैदर जैसे संगीत निर्देशक को असिस्ट कर रहे थे. इक्कीस साल की उम्र में उन्होंने ‘सर्कस गर्ल’ का संगीत तैयार किया– बतौर म्यूज़िक डायरेक्टर.
अगले कुछ सालों में करीब दर्ज़न भर हिन्दी फिल्मों में संगीत बनाने के दौरान हेमंत कुमार से उनकी अन्तरंग दोस्ती हो चुकी थी, जिनकी संगत में उन्होंने बंगाल की समृद्ध संगीत परम्परा से परिचित होने का मौका मिला. फिर यूँ हुआ कि एक बार बंगाली फिल्मों में संगीत देने वाले पंडित ज्ञानप्रकाश घोष काम के सिलसिले में बंबई आए. उनकी मुलाक़ात बलसारा से हुई और वे उन्हें अपने साथ एक फिल्म के संगीत पर काम करने के लिए कलकत्ता ले गए. दोनों ने मिलकर कुछ गाने रचे, जिन्हें बेग़म अख्तर और घोष की पत्नी ललिता की आवाजों में रिकॉर्ड किया गया.
बम्बई का फ़िल्मी माहौल बलसारा को घुटन भरा लगने लगा था, जिसकी व्यावसायिकता के चलते उनके अपने संगीत के लिए बहुत ज़्यादा स्पेस नहीं बचता था. कलकत्ता और वहां के लोगों का संगीत प्रेम उन्हें भाया और वे सब कुछ छोड़छाड़ कर वहीं बस गए.
जीवन के आख़िरी पचास साल कलकत्ता में बिताते हुए वी. बलसारा ने तीस-बत्तीस बंगाली फिल्मों का संगीत रचा, स्थानीय भाषा को साधा और पियानो-अकॉर्डियन पर असंख्य कंसर्ट्स दीं.
हेमंत कुमार के साथ उनका सम्बन्ध बहुत लम्बा चला और उन्होंने मिलकर खूब काम किया. उनकी जुगलबंदी का एक लंबा वीडियो भी यूट्यूब पर देखा जा सकता है.
उनकी समय की पाबन्दी और काम के प्रति वफ़ादारी कलकत्ता के संगीत-सर्कल्स में किसी किंवदंती की तरह स्थापित हैं. जीवन की संध्या में उन्हें पत्नी के अलावा अपने दो बेटों की मृत्युओं से दो-चार होना पड़ा. इससे उपजे अकेलेपन को भी उन्होंने अपने संगीत पर हावी नहीं होने दिया. वे लगातार लोगों के बीच परफॉर्म करते रहे.
उनका पूरा व्यक्तित्व निखालिस संगीत से निर्मित था, जिसे हर समय अपने आसपास लोग चाहिए होते थे. इसीलिये उनके खाते में फ़िल्में कम हैं प्रशंसक ज़्यादा. बीसवीं शताब्दी में भारतीय सिनेमा संगीत की अकल्पनीय लोकप्रियता का रहस्य जानना हो तो उनके और उनके जैसे ढेरों गुमनाम संगीतकारों के काम को देर तक ध्यान से देखिये-सुनिए.
22 जून 1922 को बंबई के एक पारसी परिवार में जन्मे विस्ताप आर्देशर बलसारा का यह शताब्दी वर्ष है.
Edited by Manisha Pandey