भारत रिपब्लिक 1950 में बना लेकिन आर्यों के समय ही भारत में थे कई गणराज्य
भारत में रिपब्लिक या गणराज्य का इतिहास बहुत पुराना और गहरा है. पूरब और मध्य को छोड़कर आर्य भारत के और सभी हिस्सों में गण-राज्य थे.
राजनीति पर लिखा हुआ सबसे चर्चित और जाना-माना ग्रंथ कौटिल्य का “अर्थ-शास्त्र” है जो ईसा से 300 साल पहले लिखा हुआ माना जाता है. राजनीति शास्त्र और व्यावहारिक प्रशासन को पुराने समय से “दंड-नीति” भी कहा जाता रहा है. कौटिल्य के पहले से ही राजनीति के बारे में तमाम तरह के विश्लेषण देखने को मिलते हैं जिनमें वैदिक, क्लासिकल, प्राकृत आदि प्रमुख हैं. इस तथ्य की पुष्टि “जातक” कथाओं (600 ई.पू.) से भी मिलती है जिनमें अर्थशास्त्र का जिक्र है. बाद में ‘अर्थ’ और ‘दंड’ शब्दों के बदले ‘नीति’ शब्द का प्रयोग होने लगा. “शुक्र-नीति-सार” इसका एक उदाहरण है.
“अर्थ-शास्त्र” में “अर्थ” का मतलब जनसंख्या है. और इस जनसँख्या द्वारा विभिन्न “उपायों” से अपने परिक्षेत्र का विस्तार करने के उद्देश्य से जमा की गयी संपत्ति को समझने के शास्त्र को कौटिल्य अर्थ-शास्त्र कहते हैं.
राजतंत्र से गणराज्य की ओर
किसी भी प्रदेश की जनता द्वारा अपने राज्य के काम-काज में भागीदारी लेना उत्तर-वैदिक काल में शुरू हुआ. वैदिक काल और महाभारत तक तो राज तंत्र ही थे. ‘गण’ शब्द का जिक्र यजुर्वेद, ऋग्वेद और उसकी शाखा “ऐतरेय ब्राह्मण” में मिलता है. “ऐतरेय ब्राह्मण” (1000 ई.पू.) के अनुसार उत्तर, पश्चिम, दक्षिण भारत में गण-राज्य था. सिर्फ मध्य भारत (दिल्ली से इलाहाबाद, गंगा-जमुना के परिधि के राज्यों में) राजतंत्र था. पूरब भारत (मगध) में साम्राज्य होता था, एक संघीय ढाँचा जिसका मुखिया एक हो. लगभग यही सामाजिक संरचना बुद्ध के समय में भी रही.
उस समय के शासन को इंगित करने के लिए प्रायः दो शब्द इस्तेमाल में लाये जाते रहे हैं : “दो-राज्जानी” और “गण-रायाणी”. “दो-राज्जानी” वो प्रदेश थे जो दो राजाओं द्वारा शासित थे. “गण-रायाणी” वो प्रदेश थे जो अपने गण (जनसंख्या) द्वारा शासित थे जो आज के हमारे गण-राज्य (majority rule) की परिभाषा से काफी मिलते जुलते हैं. गण की तरह ही एक दूसरा शब्द भी पुराने लेकिन खासकर बौद्ध साहित्य में मिलता है - “संघ” जिसके मानि गण से मिलते जुलते हैं. पाली कैनन में तो एक ऑफिसर “गण-पुरका” का जिक्र भी मिलता है जिसका काम ही सभा के सदस्यों की संख्या को देखना और पूरा करना था. महाभारत के ‘शांतिपर्व’ में विदेश-नीति, ट्रेज़री, युद्ध, उचित कानून, अनुशासन आदि की प्रशंसा करते हुए गण द्वारा चलाये जा रहे मॉडल का जिक्र मिलता है.
गण-राज्य और राज तंत्र के अंतर के सम्बन्ध में एक मजेदार किस्सा मिलता है “अवदान-शतक” में. बात है बुद्ध के समय की. उत्तर भारत के कुछ व्यापारी जब दक्कन पहुँचते हैं तो वहां के राजा के यह पूछने पर कि उत्तर भारत का राजा कौन है? व्यापारी जवाब में कहते हैं की उत्तर भारत में कुछ राज्यों के राजा हैं पर कुछ राज्य के राजा स्वयं गण ही हैं.
जैन दर्शन की किताबों में भी गण-राज्य के ऊपर चर्चा मिलती है. इन्होने संवैधानिक गण को परिभाषित करते हुए लिखा है कि यही सही मायनों में गण हैं क्योंकि इस गण के पास अपना “दिमाग” होता है, जैसे गण ऑफ मल्ला या असेंबली ऑफ पौरा. ये दो गण एक संगठन हैं जिनका एक लक्ष्य है न कि कुछ लोग जो संयोगवश इकट्ठे काम कर रहे हों.
हम देख सकते हैं भारत में रिपब्लिक या गणराज्य का इतिहास बहुत पुराना और गहरा है और पूरब और मध्य को छोड़कर आर्य भारत के और सभी हिस्सों में गण-राज्य था. “देश गणाधिनः” और “देश रजाधिनः” का वर्णन “अवधान शतक” में मिलता है. संस्कृत लिखने की परंपरा में गण-राज्य का वर्णन राज तंत्र से पहले किया जाता है जिससे हम यह अनुमान कर सकते हैं कि गणराज्यों की संख्या राजतंत्र वाले राज्यों से अधिक थी.
यूनान से एलेक्जेंड्र [Alexander] के आने तक गणराज्य वाली व्यवस्था का आधिपत्य था. जिसका मतलब है लगभग 1000 सालों तक भारत में गणराज्य रहे. यह आर्य भारत का स्वर्णिम काल था. “उत्तर कुरु” समृद्धि का पर्याय बने, शिक्षा का पर्याय बने “मद्रास” और “कथा” गण राज्य. बहादुरी का पर्याय “मालवा”, शक्ति का पर्याय “वृजि”, और “शाक्य” गण राज्य को जाना गया निचले तबके के सामाजिक उत्थान के लिए. यदि आर्य भारत के विभिन्न गणराज्यो की इन विशेषताओं को एक साथ रख कर देखें तो आधुनिक राष्ट्र राज्य की रूपरेखा उनमें मिलती है.
अफ़सरनामा में हम राज्य व्यवस्था और लोक प्रशासन के विभिन्न पहलुओं पर बात करते हैं. इससे पहले हम मैक्स वेबर, वुड्रो विल्सन के विचारों और UPSC के इतिहास पर बात कर चुके हैं.