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फिर से बिहार लौटे 'चुनावी चाणक्य' प्रशांत किशोर उर्फ 'पीके'

भारत में चुनावी राजनीति के 'चाणक्य' प्रशांत किशोर उर्फ 'पीके' लंबे समय तक गुमनामी में रहने के बाद एक बार कुछ दिन पहले ही फिर बिहार लौटे हैं। इसीलिए लोग कहते हैं कि 'पीके' का तो यही तिलस्मी अंदाज है।

फिर से बिहार लौटे 'चुनावी चाणक्य' प्रशांत किशोर उर्फ 'पीके'

Wednesday May 15, 2019 , 5 min Read

प्रशांत किशोर

भारतीय सियासत में प्रशांत किशोर उर्फ 'पीके' एक ऐसा नाम, जो मौजूदा चुनावी किस्म की राजनीति के आधुनिक चाणक्य माने जाते रहे हैं। लंबे समय से नेपथ्य में रहते हुए 2019 के लोकसभा चुनावी मंच से नदारद हैं। वह जेडीयू के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी हैं लेकिन अब अचानक अंर्तध्यान हो जाते हैं, अचानक प्रकट। अब कहा जाता है कि ‘पीके’ का तो यही तिलस्मी अंदाज है। बिहार में सत्ताधारी जेडीयू में नंबर दो की हैसियत रखने वाले प्रशांत किशोर चुनाव के दौरान नजर नहीं आ रहे थे। सियासत और खबरों ही नहीं, कैमरों की नजर से भी लापता थे। लोग पूछने लगे थे कि आखिर ‘पीके’ गए कहां? अब पता चला है कि वह आंध्र प्रदेश में वाईएसआर कांग्रेस के लिए रणनीति बना रहे हैं।


लंबे वक्त से वे वाईएसआर कांग्रेस के नेता जगनमोहन रेड्डी की रणनीतिकार की भूमिका में हैं। कहा जा रहा है कि प्रशांत किशोर में अपना काम कर दिया है और सर्वे में यह बात सामने आ रही है कि आंध्र प्रदेश में जगनमोहन रेड्डी एक बड़ी ताकत के रूप में उभर रहे हैं, सीटों के रूप में उन्हें 2019 में बेहिसाब फायदा मिलने जा रहा है। जगनमोहन रेड्डी का काम आसान कर प्रशांत किशोर कुछ दिन पहले ही बिहार लौटे हैं।


प्रशांत किशोर का जन्म सन् 1977 में बिहार के बक्सर जिले में हुआ था। उनके पिता डॉ. श्रीकांत पांडे पेशे से चिकित्सक हैं और बक्सर में मेडिकल सुपरिटेंडेंट भी रह चुके हैं, वहीं मां इंदिरा पांडे हाउस वाइफ हैं। प्रशांत किशोर के बड़े भाई अजय किशोर पटना में रहते हैं और उनका खुद का कारोबार है। प्रशांत किशोर की दो बहनें भी हैं। पिता डॉ. श्रीकांत पांडे सरकारी सेवा से रिटायर होने के बाद बक्सर में ही अपनी क्लिनिक चलाते हैं।


प्रशांत किशोर की शुरुआती पढ़ाई-लिखाई बिहार में ही हुई और बाद में वे इंजीनियरिंग करने हैदराबाद चले गए। वहां तकनीकी शिक्षा हासिल करने के बाद उन्होंने यूनिसेफ में ब्रांडिंग नौकरी कर ली थी। वह वर्ष 2011 में भारत लौटे और गुजरात के चर्चित आयोजन 'वाइब्रैंट गुजरात' से जुड़ गए। उसी दौरान उनकी राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से जान-पहचान हुई और उन्होंने मोदी के लिए काम करना शुरू कर दिया। उसके बाद उनकी असली पहचान 2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा की प्रचंड जीत से बनी।


उस चुनाव में 'चाय पर चर्चा' और 'थ्री-डी नरेंद्र मोदी' के पीछे प्रशांत किशोर का ही दिमाग था। उसके बाद भाजपा से पीके की दूरी बढ़ती चली गई और वे बिहार की तरफ मुड़ गए। साल 2015 में बिहार विधानसभा के चुनाव में भी वह महागठबंधन के लिए करिश्मा दिखाने में सफल रहे। बाद में नीतीश कुमार से भी दूरी बढ़ने लगी लेकिन चुनाव समाप्त होने के आखिरी सप्ताह में फिर से पटना में प्रकट होकर पीके ने एक बार फिर सबको चौंका दिया है।


उल्लेखनीय है कि जब 2014 में नरेंद्र मोदी की जीत सुनिश्चित करने के बाद प्रशांत किशोर बिहार के सीएम नीतीश कुमार के संपर्क में आए तो उनके मुरीद हो गए थे। पीके, मुख्यमंत्री नीतीश के डेवलपमेंट एजेंडा और गुड गवर्नेंस की नीति से खासे प्रभावित रहे हैं। वर्ष 2015 में लालू से हाथ मिलाने के बावजूद प्रशांत किशोर ने नीतीश की शख्सियत को धुरी बनाते हुए चुनावी रणनीति बनाई। मोदी लहर के बावजूद भारी जीत हासिल होने के बाद नीतीश कुमार ने उन्हें अपना सलाहकार बनाया लेकिन जल्दी ही पीके ने बिहार को अलविदा कह दिया। दोनो दूर तो हुए लेकिन निजी रिश्तों में गर्माहट बनी रही।


आज अंतिम चरण के लोकसभा चुनाव मतदान से पहले एक और सवाल बड़ा मौजू लगता है कि क्या भाजपा को प्रशांत किशोर की कमी खल रही है? पिछले चुनाव में थ्री-डी तकनीकी से रैली और चाय पे चर्चा जैसे आकर्षक कार्यक्रम तैयार कर प्रशांत किशोर ने भाजपा के चुनाव प्रचार को एक नये स्तर पर पहुंचा दिया था। तमाम प्रचार तंत्र के इस्तेमाल के बाद भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैलियों में भी पिछले चुनाव जैसा आकर्षण नहीं दिख रहा है। और इन सबके बीच वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव के हीरो प्रशांत किशोर उर्फ पीके पूरी तरह खबरों से गायब हैं। यह किस ओर इशारा कर रहा है और इसके क्या मायने निकल सकते हैं?


भाजपा के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं कि प्रशांत किशोर जैसे चुनावी रणनीतिकार अपनी प्रचार शैली से जनता में कुछ आकर्षण अवश्य पैदा करते हैं, लेकिन सिर्फ उनकी वजह से कोई चुनाव जीता जा सकता है, ऐसा बिलकुल भी नहीं है। पीके मॉडल पश्चिमी देशों में तो सफल हो सकता है, जहां समाज बहुत कम वर्गों में विभक्त है लेकिन भारत जैसे देश में जहाँ हजारों जातियों, क्षेत्रों और धर्मों का खयाल रखना पड़ता है, वहां ऐसे मॉडल सफल नहीं हो सकते। उन्होंने कहा कि अगर ऐसा होता तो उत्तर प्रदेश विधानसभा में इस समय कांग्रेस-सपा की सरकार होती जिसका प्रचार पीके ने किया था।


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