अश्वेत, अल्पमत समुदाय से आने वाले ऋषि सुनक का ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बनना क्या कहता है इंग्लैंड के बारे में
भारतीय मूल के ऋषि सुनक के ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बनने को लेकर भारत में उत्साह है. वे पहले अश्वेत, पहले अल्पसंख्यक प्रधानमंत्री है उस ब्रिटेन के जिस्ने भारत समेत दुनिया के बड़े हिस्से पर कभी औपनिवेशिक शासन किया था. क्या ब्रिटेन बदल रहा है?
ब्रिटेन के कंजरवेटिव पार्टी के नेता ऋषि सुनक यूनाइटेड किंगडम के पहले हिंदू और अश्वेत प्रधानमंत्री होंगे. हाउस ऑफ कामंस की नेता पेनी मोरडौंट और ब्रिटिश पूर्व प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन के नाम वापस लेने के बाद प्रधानमंत्री पद के लिए सुनक के नाम पर अंतिम मुहर लगी. सुनक 28 अक्टूबर को पीएम पद की शपथ लेंगे.
ऋषि सुनक के ब्रिटेन के पहले गैर-श्वेत प्रधानमंत्री बनने के एलान के बाद भारत और पाकिस्तान दोनों के लिए यह ऐतिहासिक क्षण है. सुनक के दादा-दादी ब्रिटिश शासन वाले भारत में पैदा हुए थे, लेकिन उनका जन्मस्थान गुजरांवाला आधुनिक पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में स्थित है. इस प्रकार एक अजीब तरीके से ब्रिटेन का नया प्रधानमंत्री भारतीय भी है और पाकिस्तानी भी. भारत और पाकिस्तान- दो राष्ट्रराज्य जो अंग्रेजों की गुलामी ख़त्म होते ही वजूद में आए.
भारत में अंग्रेजों का औपनिवेशिक इतिहास रहा है. सुनक का प्रधानमंत्री उसी इतिहास का हिस्सा है. और यह केवल भारत का इतिहास नहीं है. ब्रिटेन और अन्य यूरोपीय देशों की व्यापारियों के हस्तक्षेप की वजह से दुनिया के जिन-जिन देशों में भारतीय मूल के असंख्य लोग ले जाए गए या बसाए गए, वहां-वहां इनकी आगे की पीढ़ियों ने वहां खूब तरक्की की उधर कई उच्च पदों पर आसीन हुए. मारीशस, ट्रिनिडाड टोबैगो, पुर्तगाल, मलेशिया, सुरीनाम, गुयाना आदि अनेक देशों में भारतीय मूल के लोग अनेकों बार वहां की सरकार के शीर्ष पदों पर आसीन रहे हैं.
सुनक का ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बनना इसी ऐतिहासिक प्रक्रिया का क्रमिक विकास है. इंग्लैंड में ब्रिटिश हिंदुस्तान से गये अनेक पाकिस्तानी/भारतीय लंबे समय से अनेक राजनीतिक और प्रशासनिक पदों पर तैनात हुए हैं. पूर्व गृह मंत्री प्रीति पटेल, नदीम जहावी, लंदन के मेयर सादिक खान जैसे नाम इसकी तस्दीक करते हैं.
सुनक के लिए ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बनना कई परिस्थितियों का परिणाम है, जिसमें आर्थिक और सामरिक चुनौती भयानक है, और एक सभ्य और लोकतांत्रिक देश की नैतिक मज़बूरी भी है. हम कह सकते हैं कि आधुनिक शिक्षा और लोकतांत्रिक व्यवहार ने यूरोप के प्रमुख देशों में समाज के बड़े हिस्से में सहनशीलता और सौजन्यता को तार्किक आधार दिया है. इसी तार्किकता की नींव पर वहां की मीडिया स्वतंत्र है. आज का ब्रिटेन- जिसका ‘आधिकारिक धर्म ईसाईयत’ है, इस बात के लिए तैयार दिखता है वहां कोई गैर-ईसाई यहां तक कि ऐसा व्यक्ति जिसकी जड़े ब्रिटिश साम्राज्य के गुलाम मुल्कों में रही हों, देश के सर्वोच्च पद पर पहुंच सकता है.
ऐसे मौके अपने देश के बारे में भी सोचने का मौका देते हैं. बरबस ही कांग्रेस पार्टी की सोनिया गांधी के मामले में 2004-05 में भारतीय दक्षिणपंथी राजनीतिज्ञो और समाज की प्रतिक्रिया की याद ताज़ा हो जाती है जिसमें उनके विदेशी मूल होने की वजह से उनकी राजनीतिक काबिलियत पर सवाल उठाये गए थे. हमें विदेशी मूल के लोग रास नहीं आते, लेकिन यही आस्था अगर कोई और मुल्क दिखाए तो हम उनसे बहुत प्रभावित होते हुए दिखते हैं.
किसी भी देश के शीर्ष पद की दावेदारी उस देश की लोकतान्त्रिक आस्था या प्रक्रिया का पैमाना भी होता है. ब्रिटेन में भारत-पाकिस्तान मूल के लोगों की संख्या बेहद अल्पमत में है. सुनक अल्पमत समुदाय से आते हुए भी आज वहां के प्रधानमंत्री हैं. वहीँ, हम घोषित तौर पर एक लोकतांत्रिक देश जरूर हैं लेकिन हमारे आचरण में अल्पमत समुदाय को लेकर लोकतांत्रिक व्यवहार की अनुपस्थित सी दिखती है. हमारे नेताओं में इन दुर्बलताओं को खत्म करने की लेशमात्र भी सदिच्छा नहीं है बल्कि वे इससे राजनैतिक लाभ उठाने के सफल प्रतियोगी हैं.
ब्रिटेन की सत्ताधारी पार्टी के बाहरी आवरण में आ रहे बदलाव बरबस भारत की सियासत के हालिया सफर पर सोचने के लिए प्रेरित करते हैं. सुनक कंजर्वेटिव पार्टी के हैं जो एक रूढ़ीवादी पार्टी है, इस पार्टी ने भी सुनक को अपना नेता मान उसे देश के शीर्ष पद के लिए चुन लिया है, तो इसमें बड़प्पन तो ब्रिटेन का है. यह एक मौका है हम सब के सोचने के लिए कि हमारा भारत इतना लोकतांत्रिक कब बनेगा कि राष्ट्रीयता पर जाति, धर्म, लिंग जैसी पहचानें हावी न रहे.
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