मिसाल बने देश के दो खुशहाल गांव शिजामी और जखनी
देश के दो खुशहाल गांवों की यह ताज़ा दास्तान बताती है कि एकजुट ग्रामीण उठ खड़े हों तो देहातों में रहकर ही वह सब कुछ हासिल कर सकते हैं, जिन्हे पाने के लिए उनको अपनी जड़ों से उजड़ना पड़ता है। नागालैंड के गांव शिजामी की महिलाएं पुरुषों जितनी कमाई कर रहीं तो बांदा के गांव जखनी के किसान खेती से मालदार हो रहे हैं।
गांव हैं, तो भारत है। देश के सत्तर फीसद लोग गांवों में रहते हैं। कुल 640 जिलों में 250 अति पिछड़े हैं। कुल 06 लाख, 49 हज़ार, 481 गांवों में से सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश में हैं लेकिन यहां हमारा उद्देश्य देश के समस्त गांवों की गणना नहीं, बल्कि दो ऐसे गांवों से सुपरिचित कराना है, जो अपनी सामूहिक सोच और साझा प्रयास से यह साबित कर रहे हैं कि एका और कोशिश हो तो शांति और भाईचारे के प्रतीक गांवों को भी वह सब कुछ हासिल हो सकता है, जिसके लिए हर वक़्त विपन्नता, बदहाली, बेरोजगारी, गरीबी का रोना रोया जाता है।
देश के जो दो गांव अपनी सामुदायिक कोशिशों से मिसाल बन गए हैं, उनमें एक है, नागालैंड का गांव शिजामी, जहां की महिलाएं पुरुषों के बराबर कमाई कर रही हैं। दूसरा है बांदा (उ.प्र.) का हरा-भरा, सूखे में भी पानी से लबालब गांव जखनी। एक ने रोजगार का नया मानक रचा है तो दूसरे ने खेती में खुशहाली का। गौरतलब है कि लैंगिक बराबरी को ध्यान में रखते हुए एक समान वेतन के लिए जहां देश-दुनिया के तमाम संगठन दशकों से संघर्षरत हैं, वहीं शिजामी की महिलाएं विगत तीन दशकों से वह सब कुछ हासिल कर ले रही हैं, जो उन्हे चाहिए। लगातार आठ साल संघर्ष करने के बाद पिछले चार वर्षों से उन्हे पुरुष कर्मियों के बराबर वेतन भी मिलने लगा है। हैरानी तो इस बात की है कि इतनी बड़ी कामयाबी हासिल कर लेने के संघर्ष में उनको पुरुषों का भी खुलकर साथ मिला है।
बादाम, ओक के वृक्षों से आच्छादित छह सौ घरों और पांच हजार की आबादी वाले इस पहाड़ी गांव शिजामी में संघर्षरत महिला संगठन की अध्यक्ष हैं केंजुन्यपी यू सुहा, जिनका मानना है कि एक जुट होकर महिलाएं कुछ भी हासिल कर सकती हैं। इस गांव की महिलाएं भी पूरे दिन पुरुषों के साथ यहां के सीढ़ीदार पहाड़ी खेतों में काम करती है। गांवों के पिछड़ा कहे जाने का मिथक तोड़ने के लिए इस गांव की महिलाएं 2007 में स्त्री-पुरुष समानता का नारा बुलंद करती हुई ग्राम परिषद और कल्याण मंच के साथ समान मजदूरी के सवाल पर लामबंद हुई थीं। संघर्ष चलता रहा, व्यवस्थाएं खामोशी साधे रहीं तो कुछ पुरुष भी उनकी लड़ाई में साथ हो लिए। आखिरकार, उनकी जीत हुई।
अब उन्हें जून-जुलाई में धान रोपाई के लिए साढ़े चार सौ रुपए, बाकी पूरे साल चार सौ रुपए पुरुषों के बराबर मजदूरी मिलती है। अपने संघर्ष से यहां की महिलाओं ने वैतनिक समानता का हक ही हासिल नहीं किया है, बल्कि उन्हे अपने परिवारों और समाज के भीतर भी अब हर मुकाम पर एक समान स्वतंत्रता का अवसर मिला है। मसलन, बेटा-बेटी का लैंगिक भेद मिटा है, शिक्षा और स्वास्थ्य में उनके साथ एक तरह का बर्ताव होने लगा है।
मिसाल बना बंदा का गांव जखनी भी कोई मुफ्त में खुशहाल नहीं हुआ है। उसके लिए यहां के ग्रामीणों को अटूट साझेदारी के साथ कड़ी मशक्कत का सामना करना पड़ा है। इस समय पूरा बुंदेलखंड भले ही सूखे की चपेट में हो, जखनी के कुंए और तालाब पानी से लबालब हैं। भू-जलस्तर छह-सात फुट पर टिका हुआ है। खेतों में धान-गेहूं और सब्ज़ियों की जमकर खेती हो रही है। यहां के हैंड पैंपों में हर समय पानी आ रहा है। गांव में चारो तरफ पेड़-पौधों की हरियाली फैली है।
आज से लगभग डेढ़ दशक पहले इस गांव की हालत ऐसी नहीं थी। जिले के अन्य गांवों की तरह यहां के लोग भी रोजी-रोजगार के चक्कर में परदेस पलायन करते रहते थे। कोई सूरत तो कोई कोलकाता-मुंबई-दिल्ली जाकर नौकरी, रोजगार करने लगा। उन्ही लोगों में से कुछ लोग परदेस की मुश्किलें भी कुछ कम न होने पर संकल्प लिया कि इससे कम मेहनत पर तो वे अपने गांव की खेती-बाड़ी में ही खुशहाल रह सकते हैं। वे एक-एक कर गांव लौटने लगे। एकजुट होकर उन्नत खेती-किसानी में एक-दूसरे का हाथ बंटाने लगे।
दिल्ली में प्रसिद्ध पर्यावरणविद अनुपम मिश्र (अब स्वर्गवासी) से जल संरक्षण की प्रेरणा लेकर जखनी गांव के किसान उमाशंकर पांडेय, मामून अली, अशोक अवस्थी, राजाराम वर्मा, रामविशाल कुशवाहा आदि की कोशिशें धीरे-धीरे परवान चढ़ने लगीं। फिर तो जैसे चमत्कार ही हो गया। हाईस्कूल पास अशोक अवस्थी को शहर से लौटकर खेती में सफल होते देख गांव के परदेसी युवा एक एक कर लौटने लगे। आलू, परवल, धान, गेहूं, दलहन की खेती कर रहे रामविशाल कुशवाहा ने इस साल छह लाख रुपए का बासमती चावल बेचा है। यहां तक कि छोटे से काश्तकार राजाराम वर्मा ने इस साल अपने खेतों से पांच लाख की कमाई की है।
किसानों ने और कुछ नहीं, पंद्रह सदस्यों वाली जलग्राम समिति के बैनर तले बस एकजुट होकर बरसाती जल संरक्षण के साथ गांव में पहले से स्थित पानी के पारंपरिक स्रोत कुओं और छह बड़े तालाबों का पुनरुद्धार कर दिया। इस साल गांव के क़रीब ढाई हज़ार बीघे खेतों में अन्य फसलों के अलावा अकेले बासमती चावल ही अठारह-उन्नीस हजार कुंतल पैदा हुआ है। अब तो गांव के सबसे बड़े तालाब में मछली पालन भी शुरू हो गया है। ग्रामीणों के एकजुट प्रयास के चलते प्रधानमंत्री सड़क योजना में दो सड़कें भी बन चुकी हैं, तीसरी निर्माणाधीन है। प्राइमरी स्कूल, इंटर कॉलेज और डिग्री कॉलेज भी खुल गए हैं।