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जात-पांत से दो-दो हाथ कर रहीं तमिलनाहु की स्नेहा और यूपी की पूजा

बेटियों की बात: एक

जात-पांत से दो-दो हाथ कर रहीं तमिलनाहु की स्नेहा और यूपी की पूजा

Monday December 02, 2019 , 5 min Read

हमारे देश में एक तो जन्म से जेंडर की बीमारी, ऊपर से जात-पांत का लौह कवच, आधी आबादी के साथ हर दिन हैवानियत, चौबीसो घड़ी आत्मरक्षा का सवाल, ऐसे में कोई बच्ची, लड़की अथवा महिला जीवन भर कितनी तरह की दुश्वारियों से गुजरती, दो-चार होती रहती है, भुक्तभोगी और उनके परिजन ही जान सकते हैं। 

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सांकेतिक फोटो (Shutterstock)

दिल्ली के निर्भया कांड के बाद आज, जबकि एक बार फिर, पूरा देश हैदराबाद (तेलंगाना) की 27 वर्षीय चिकित्सक के साथ हुई बर्बरता पर जबर्दस्त गुस्से में है, एक साथ कई बड़े सवाल उठ खड़े हुए हैं। हमारे देश में एक तो जन्म से जेंडर की बीमारी, ऊपर से जात-पांत का लौह कवच और आधी आबादी के साथ हर दिन हैवानियत, चौबीसो घड़ी आत्मरक्षा का सवाल, ऐसे में कोई बच्ची, लड़की अथवा महिला जीवन भर कितनी तरह की दुश्वारियों से गुजरती, दो-चार होती रहती है, भुक्तभोगी और उनके परिजन ही जान सकते हैं।


पुरुष वर्चस्व से जूझती हमारी समाज व्यवस्था में मर्दवादियों के, तो भी अनेक शरणगाह हैं, बेटियां दोहरी, तिहरी, न जाने कितनी परतों वाले दबावों में कुचलने के लिए जन्म से अभिशप्त हैं। वक़्त का तकाज़ा है कि लड़कियों की हिफाजत के लिए अब हर हिंसक वारदात का सख्ती से प्रतिरोध हो और कोई बेटियों की जात न पूछे। जात पूछते ही वह आधी-की-आधी हो जाती है बेमौत-सी। तो आइए, हम इस कड़ी की पहली दो किरदार तमिलनाडु की स्नेहा और उत्तर प्रदेश की पूजा से अपनी बात शुरू करते हैं।  


हाल ही में तमिलनाडु सरकार ने तिरुपत्तूर (वेल्लोर) निवासी पेशे से वकील 35 वर्षीय स्नेहा को आधिकारिक तौर पर 'नो कास्ट, नो रिलिजन' प्रमाण पत्र सौंपा है, जिसमें उन्हें धर्म-जाति रहित स्री करार दिया गया है। संभवतः वह देश की पहली ऐसी महिला नागरिक हैं, जिन्हें आधिकारिक रूप से ऐसा सर्टिफिकेट मिला है। इस प्रमाण पत्र को पाने के लिए उन्हे नौ साल लंबी कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ी है।


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तमिलनाडु की स्नेहा

स्नेहा बताती हैं कि अब उनके माता-पिता, बहनों, पति और बच्चियों की कोई जाति नहीं है, कोई धार्मिक पहचान, वे सिर्फ इंसान हैं, उनका जात-धर्म केवल इंसानियत है।


उनके पति के. पार्थिबाराजा ने अपनी तीन बच्चियों के नाम भी आधीराई नसरीन, आधिला ईरानी और आरिफा जेस्सी रखे हैं।


स्नेहा ने कभी जन्म, स्कूल और अन्य प्रमाण पत्रों में जाति-धर्म का कॉलम नहीं भरा है। उनके माता-पिता भी बचपन से ही सभी सर्टिफिकेट में जाति और धर्म का कॉलम खाली छोड़ते रहे हैं। स्नेहा के सारे प्रमाणपत्रों में कास्ट और रिलिजन के सभी कॉलम में सिर्फ भारतीय लिखा गया है।


स्नेहा बताती हैं कि जब उनके सामने अपने आत्म-शपथ पत्र के लिए एप्लिकेशन में सामुदायिक प्रामाणिकता अनिवार्यता आ खड़ी हुई, उन्होंने वर्ष 2010 में 'नो कास्ट, नो रिलिजन' प्रमाण पत्र के लिए आवेदन किया।


तभी से लड़ते-लड़ते, उन्हे गत 05 फरवरी 2019 को वांछित सर्टिफिकेट मिला। अब उन्होंने अपनी तीनो बेटियों के फॉर्म में भी जाति-धर्म का कॉलम खाली छोड़ दिया है।

 




लखनऊ (उ.प्र.) की पूजा इस समय अपने शहर के एक होटल में असिस्टेंट मैनेजर हैं। वह कहती हैं, हमारे समाज में एक पढ़ी-लिखी और अच्छी नौकरी करने वाली दलित लड़की के लिए भी ज़िंदगी आसान नहीं होती है। उनको भी तमाम मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। जब वह सातवीं क्लास में पढ़ रही थीं, फ़ॉर्म में अपनी जाति लिखनी थी। बाकी बच्चों की तरह जैसे ही उन्होंने फॉर्म में कम्पलीट किया, अचानक सब कुछ बदल गया।


उन्हे बताया गया कि वह 'नीची जाति' की हैं। सखी-सहेलियां तक उनकी उपेक्षा करने लगीं। उस दिन घर लौटकर उन्होंने अपने पापा से पूछा कि उनके साथ ऐसा क्यों हो रहा है तो उन्होंने बताया कि हम दलित हैं और हमारे साथ हमेशा से ऐसा होता आया है। पूजा पूछती हैं कि कास्ट पता चलते ही कोई इंसान एक पल में बुरा, कामचोर कैसे हो जाता है, क्यों उसकी सारी 'मेरिट' ख़त्म हो जाती है, क्यों उसको आरक्षण का घुसपैठिया करार दिया जाता है। एमबीए करने के बाद उन्हे तो आरक्षण का भी लाभ नहीं मिला, लेकिन समाज के एक बड़े तबके को वाक़ई इसकी ज़रूरत है। 


पूजा कहती हैं कि आजकल आर्थिक आरक्षण की वकालत हो रही है लेकिन क्या कोई ये गारंटी दे सकता है कि उसके बाद दलित-भेदभाव और जातीय उत्पीड़न नहीं होगा?  अपनी जाति की वजह से उन्हे भी दिल्ली की नौकरी छोड़नी पड़ी है। गांव के ऊंची जाति के अलग कुएं हैं, स्कूलों में दलित बच्चे अलग लाइन में बैठाए जाते हैं, दूसरे बच्चे उनके साथ बैठकर खाना नहीं खा सकते हैं। जाति का भूत आज भी उनका पीछा नहीं छोड़ रहा है।


अब तक वह भी डिप्रेशन में अपनी जाति बताने से परहेज करती रही हैं क्योंकि लगता था कि सर्वाइव करना मुश्किल हो जाता लेकिन अब वह खुलकर दुनिया के सामने आ चुकी हैं। उन्हे लगता है कि जाति छिपाना शुतुरमुर्गी बात होगी, जो ख़तरा भांपते ही रेत में अपना सिर छिपा लेता है। उनके भाई ने सवर्ण लड़की से शादी रचाई है। वह भी वैसा ही करेंगी, छिप-छिपाकर नहीं, बल्कि खुल्लमखुल्ला, क्योंकि ये संकल्प उनके संघर्ष का हिस्सा है।