बाप-बेटी ने शुरू किया गोबर से लकड़ी बनाने वाला स्टार्टअप, अब बिना दूध वाली गाय से भी होती है तगड़ी कमाई
कोरोना काल में लकड़ी की कमी के चलते श्मशाम घाटों पर शवों की कतारें लग गईं. वो देखकर डॉक्टर सीताराम गुप्ता और उनकी बेटी अदिति गुप्ता को एक आइडिया आया, जिसने अब एक स्टार्टअप का रूप ले लिया है.
जब कोरोना की पहली लहर आई तो करीब डेढ़ महीने तक सभी लोग घरों में कैद हो गए. सड़क पर ना कोई इंसान था ना कोई गाड़ी. तमाम फैक्ट्रियां बंद हो गईं. नतीजा ये हुआ कि बहुत सारे लोगों के सामने वित्तीय संकट पैदा हो गया, लेकिन अच्छी बात ये रही कि प्रदूषण खत्म हो गया. दिन भर के भारी प्रदूषण की वजह से रात में जो तारे कभी नहीं दिखते थे, अब प्रदूषण छंट जाने के चलते वो भी दिखने लगे. नदियों को साफ करने के लिए सरकार तमाम कोशिशें कर रही हैं, लेकिन लॉकडाउन में नदियां भी खुद ही प्रदूषण मुक्त होने लगीं. ये सब देख डॉक्टर सीताराम गुप्ता ने इस दिशा में सोचना शुरू किया.
उन्हीं दिनों महाभारत और रामायण फिर से शुरू हुए. महाभारत में एक वक्त आता है जब घटोत्कच की मौत हो जाती है और उसे जलाने के लिए गोबर के कंडों पर लिटाया हुआ था. डॉक्टर सीताराम गुप्ता की बेटी अदिति गुप्ता ने सवाल किया कि पापा अंतिम संस्कार कहीं कंडों पर भी होता है क्या? डॉक्टर सीताराम गुप्ता का माथा ठनका, याद आया कि उनके गांव में भी ऐसा ही होता था. पिता से पूछा तो पता चला कि उनके गांव में आज भी कंडों पर अंतिम संस्कार की परंपरा बदस्तूर जारी है. उस वक्त डॉक्टर सीताराम गुप्ता ने सोचा कि जब गोबर के कंडों से अंतिम संस्कार हो सकता है, तो पेड़ों को काटकर उनकी लकड़ी क्यों जलाना?
कंडों और लकड़ी के बारे में सोचते-सोचते डॉक्टर सीताराम गुप्ता ने एक किताब लिख डाली. इस किताब की खासियत ये थी कि वह देशी गौमाता के गोबर से बने कागज से बनी थी. उस किताब को अमेजन के बेस्ट सेलर अवॉर्ड से भी नवाजा जा चुका है. अभी डॉक्टर सीताराम गुप्ता अपनी किताब से मिलने वाली ख्याति बटोर ही रहे थे कि उसी बीच कोरोना की दूसरी लहर ने दस्तक दे दी. मौतों का आंकड़ा इतना बढ़ गया कि श्मशान घाटों पर अंतिम संस्कार के लिए लकड़ियों की कमी होने लगी. करीब 2000 से भी ज्यादा शवों को तो लकड़ियों की कमी के चलते गंगा में बहा दिया गया. उस वक्त डॉक्टर सीताराम गुप्ता के मन में ख्याल आया कि क्या लकड़ी नहीं होगी तो अंतिम संस्कार नहीं होगा? बस यहीं से शुरुआत हुई गोमय परिवार (Gaumaya Pariwar) की.
बाप-बेटी ने शुरू किया गोमय परिवार
गोमय परिवार स्टार्टअप की शुरुआत डॉक्टर सीताराम गुप्ता ने अपनी बेटी अदिति गुप्ता के साथ मिलकर की है. गोमय परिवार के को-फाउंडर डॉक्टर सीताराम गुप्ता बताते हैं कि गोमय एक तो गाय के गोबर को कहते हैं और गोमय का दूसरा अर्थ है गाय में लीन हो जाना. वह कहते हैं कि गाय में लीन होकर प्रकृति के समीप पहुंचा जा सकता है. इसके बाद उन्होंने गोमय परिवार का भारत सरकार के स्टार्टअप इंडिया के तहत रजिस्टर कराया और गोबर से लड़की बनाने की शुरुआत कर दी. अभी तो उनका ये स्टार्टअप सिर्फ जयपुर तक सीमित है, लेकिन आने वाले वक्त में वह इसे देशभर में फैलाएंगे. जयपुर में सरकार की तरफ से गोमय परिवार को 11 मोक्षधाम दिए जा चुके हैं. गोमय परिवार की तरफ से अब तक करीब 300 अंतिम संस्कार सफलता पूर्वक कराए जा चुके हैं.
गोमय परिवार के मोक्षधामों पर अंतिम संस्कार कराने के लिए जाने वालों को यह स्टार्टअप एक मुफ्त सुविधा भी देता है. गोमय परिवार ने मोक्षधाम पर लिख दिया है कि अगर आपके पास लकड़ी की कीमत चुकाने के पैसे हैं तो दीजिए, वरना गोमय परिवार अपनी जेब से लकड़ी पर पैसे खर्च करेगा. यानी गरीबों के लिए यह स्टार्टअप मदद का हाथ बढ़ाने वाला साबित हुआ है.
एक बार इस लकड़ी का गणित भी समझिए
डॉक्टर सीताराम गुप्ता बताते हैं कि गोमय परिवार की गोबर से बनी लकड़ी यानी गौकाष्ठ को बनाने में करीब 5-6 रुपये प्रति किलो की लागत आती है. वहीं गौशालाओं की तरफ से इसे 10 रुपये प्रति किलो के हिसाब से बेचा जाता है. सामान्य लकड़ी भी 10 रुपये प्रति किलो के हिसाब से ही बिकती है. सवाल ये है कि लोग इसे क्यों खरीदेंगे? डॉक्टर सीताराम गुप्ता के अनुसार एक अंतिम संस्कार में करीब 500-600 किलो लकड़ी लगती है. वहीं अगर अंतिम संस्कार गौकाष्ठ से किया जाए तो उसमें करीब 250-300 किलो ही लकड़ी लगती है. वहीं लकड़ी से अंतिम संस्कार में 5 घंटे लगते हैं, जबकि गौकाष्ठ से यह काम महज 3 घंटे में ही संपन्न हो जाता है. यानी गौकाष्ठ से अंतिम संस्कार में पैसा और समय की तो बचत हो ही रही है, प्रदूषण भी कम हो रहा है और पेड़ कटने से बच रहे हैं.
क्या है बिजनस मॉडल और कैसे होती है फंडिंग?
गोमय परिवार के फाउंडर डॉक्टर सीताराम गुप्ता के अनुसार दो समानांतर ऑर्गेनाइजेशन चल रहे हैं. एक है गोमय परिवार, जो गाय के गोबर से गौकाष्ठ समेत कई प्रोडक्ट बनाता है. वहीं दूसरा है अंशदानी फाउंडेशन. गोमय परिवार का बिजनस दो तरीकों से चलता है. एक तो लोग सीधा गोमय परिवार से गौकाष्ठ या दूसरे प्रोडक्ट लेते हैं और दूसरा अंशदानी फाउंडेशन भी गोमय परिवार से गौकाष्ठ खरीदता है. कहा जाता है कि चिता की लकड़ी देना बहुत ही पुण्य का काम है. जो लोग सहयोग देना चाहते हैं वह अंशदानी फाउंडेशन को दान देते हैं और उन दान के पैसों से फाउंडेशन गोमय परिवार से उनके प्रोडक्ट खरीदता है.
गोमय परिवार को जो मुनाफा होता है, उससे वह प्रमोशनल एक्टिविटी करते हैं, जैसे दान जितनी रकम के गौमूत्र या गोबर से बने प्रोडक्ट दानकर्ता को भेंट स्वरूप दिए जाते हैं. गोमय परिवार को प्रोडक्ट्स की एमआरपी अधिक है, लेकिन उसकी असल कीमत कम, ऐसे में यह स्टार्टअप आसानी से दान के पैसों जितनी एमआरपी के प्रोडक्ट भी दे देता है और परोपकार का काम भी आसानी से हो जाता है. इससे दानकर्ता भी खुश होता है कि उसके दान के बदले भी उसे कुछ न कुछ मिल रहा है.
लोगों के दान के अलावा सरकार से भी गोमय परिवार को खूब मदद मिल रही है. भारत सरकार एमएसएमई में भी गोमय परिवार के आइडिया को चुना गया है और भारत सरकार की तरफ से गोमय परिवार को 15 लाख रुपयों की मदद दी गई है. इसके अलावा सरकार की एक अन्य संस्था की तरफ से आने वाले दिनों में 25 लाख रुपये की मदद का वादा किया गया है. सीएसआर का फंड भी खूब आता है. यानी इस स्टार्टअप को फंडिंग की कोई कमी नहीं है.
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सिर्फ एक गाय से निकल सकता है पूरी गौशाला का खर्चा
अगर बात की जाए गौशालाओं की तो सिर्फ दान के दम पर गौशालाओं को नहीं चलाया जा सकता. हालांकि, डॉक्टर सीताराम गुप्ता एक फॉर्मूला बताते हैं, जिससे सिर्फ एक गाय से ही पूरी गौशाला का खर्च आसानी से कैसे निकाला जा सकता है. उनके अनुसार एक गाय एक दिन में 40 लीटर पानी पीती है और 14 लीटर गौमूत्र देती है. अगर इसका अर्क बनाएं तो करीब 10 लीटर अर्क आसानी से बनेगा. प्रति लीटर अर्क आसानी से 150 रुपये में बिकेगा यानी रोज के 1500 रुपये. इस तरह महीने भर में एक गाय के सिर्फ गोमूत्र से 45 हजार की कमाई होगी. यानी अगर गाय दूध नहीं भी देती है तो उसके गौमूत्र और गोबर से भी काफी पैसा कमाया जा सकता है.
चुनौतियां भी कम नहीं रहीं
गौकाष्ठ बनाने में काफी दिक्कतें भी आईं. जब सिर्फ गोबर से लकड़ी बनाई गई तो उसे सूखने में काफी दिन लगते थे. वहीं बरसात में जब गाय सावन की घास खाती हैं तो काफी पतला गोबर करती हैं, जिससे लकड़ी बनाना भी दिक्कत का काम है. जैसे-तैसे अगर गीले गोबर से लकड़ी बना भी दी जाती थी, तो अक्सर गोबर के कीड़े 'गुबरैले' उन्हें खाकर बेकार कर देते थे. ऐसे में गोबर में पराली मिलानी शुरू की गई. इससे किसानों को भी पराली की कीमत मिलने लगी और पराली जलने से होने वाला प्रदूषण भी रुक गया. इनके साथ-साथ कुछ हवन सामग्री भी मिलाई जाती है. इस तरह से बनी लकड़ी सूखी ही निकलती है, जिसे ना सुखाने का झंझट ना कोई और दिक्कत. वहीं सिर्फ गोबर की लड़की की तुलना में इस लकड़ी में जलाने की क्षमता भी अधिक होती है.
शुरुआती दिनों में एक और बड़ी दिक्कत ये आई कि मोक्षधामों पर जो लोग पहले से हैं, उन्होंने गौकाष्ठ का इस्तेमाल करने से मना कर दिया. दरअसल, मोक्षधामों पर लकड़ी का एक बड़ा बाजार है, जिससे उन्हें फायदा होता है. ऐसे में गोमय परिवार ने उन्हें भी लकड़ी बेचकर होने वाला मुनाफा खुद से देने का वादा किया, तब जाकर उन्हें मोक्षधाम में एंट्री मिली. आज के वक्त में सरकार ने भी गोमय परिवार को मंजूरी दे दी है, तो अब तमाम मोक्षधामों में आराम से काम हो पा रहा है.
गोमय परिवार के सामने एक बड़ी चुनौती ये भी है कि लोगों के इसके बारे में कैसे जागरूक किया जाए. इसके लिए वह सरकार के तमाम इवेंट्स में अपने प्रोडक्ट की बात करते हैं और साथ ही 27 मार्च 2022 से एक 51 पंचकुंडीय यज्ञ की भी शुरुआत की है, जो हर रविवार को होता है. इसके लिए उन्होंने गायत्री परिवार के साथ टाई-अप किया है. इन यज्ञों में 150-200 लोग आते हैं, जिन्हें गौकाष्ठ के बारे में बताया जाता है. साथ ही उनसे दो संकल्प लिए जाते हैं. एक ये कि वह गाय के गोबर या गौमूत्र से बनी कम से कम एक चीज का घर में इस्तेमाल जरूर करें और दूसरा अगर कहीं लकड़ी से अंतिम संस्कार हो तो उन्हें रोकें और गौकाष्ठ के बारे में बताएं. इससे लोगों में इसे लेकर जागरूकता तेजी से फैल रही है.
भविष्य की क्या है योजना?
अभी तो यह स्टार्टअप सिर्फ जयपुर में ही काम कर रहा है, लेकिन आने वाले दिनों में यह पूरे राजस्थान में फैलेगा. सरकार से पूरे राज्य के लिए ऑर्डर भी पहले ही रिलीज करा लिए गए हैं. अगले साल तक राजस्थान में फैलने के बाद फिर अगला टारगेट होंगे बाकी राज्य. सीताराम गुप्ता बताते हैं कि तमाम राज्यों में मोक्षधाम तो पहले से ही है, अब सिर्फ वहां मशीनें लगाने की जरूरत है. इस खास लड़की के लिए पेटेंट का भी आवेदन किया जा चुका है. भविष्य में गोमय परिवार लाइसेंसिंग सिस्टम के जरिए पूरे देश में फैलना चाहता है. यानी कह सकते हैं कि फ्रेंचाइजी मॉडल पर ये स्टार्टअप स्केल करने की योजना में है.
कितने फायदे का सौदा है गोमय परिवार?
गोमय परिवार की तरफ से गौकाष्ठ के अलावा गाय के गोबर और हवन सामग्री से एक धूपबत्ती भी बनाई जाती है. डॉक्टर सीताराम गुप्ता बताते हैं कि अभी भारत में सिर्फ अगरबत्ती का ही करीब 12-14 हजार करोड़ रुपये का मार्केट है. अगरबत्ती में डाले गए बांस के जलने से निकला धुआं कैंसर तक की वजह बन सकता है और बेहद जहरीला होता है. वह अगरबत्ती के बाजार को अपनी धूपबत्ती से रिप्लेस करना चाहते हैं.
डॉक्टर सीताराम गुप्ता कहते हैं जिस दिन 2 करोड़ पेड़ कटने से बचा लिए 90 लाख टन कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन रोका जा सकेगा. लकड़ी की तुलना में आधे गौकाष्ठ से ही अंतिम संस्कार हो जाता है यानी आधा प्रदूषण तो यहीं बच जाता है. वहीं लकड़ी से होने वाले प्रदूषण की तुलना में गौकाष्ठ से होने वाला प्रदूषण करीब 35 फीसदी कम होता है. गौकाष्ठ से लकड़ी को रिप्लेस करने की वजह से करीब 2 पेड़ कटने से बच गए, जिनसे एक अंतिम संस्कार होता. ये दो पेड़ साल भर में 25-25 किलो यानी 50 किलो कार्बन डाई ऑक्साइड की खपत करेंगे. यानी जो थोड़ा प्रदूषण गौकाष्ठ से होगा, वह ये पेड़ निपटा देंगे. वैसे तो भारत ने 2070 तक कार्बन न्यूट्रैलिटी का संकल्प लिया है, लेकिन गौकाष्ठ की मदद से कम से कम अंतिम संस्कार के मामले में भारत 2050 तक ही कार्बन न्यूट्रैलिटी हासिल कर सकता है.
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