औरतों को दौड़ने की मनाही थी तो वो लड़की लड़का बनकर मैराथन में दौड़ी
वो कहते थे, औरतें नाजुक होती हैं. लंबी दौड़ में खड़े रहने का उनमें बल नहीं. 24 साल की बॉबी गिब न सिर्फ 65 किलोमीटर दौड़ी, बल्कि दो तिहाई मर्दों को पीछे छोड़ दिया.
जब औरतों को मैराथन में दौड़ने की मनाही थी, वो मर्द के कपड़े पहनकर, मर्द बनकर मैराथन में दौड़ने चली गई. ये 1966 का साल था और वह 24 साल की थी.
ये कहानी है दौड़ने वाली लड़की बॉबी गिब की.
कई साल पहले एक अमेरिकन चैनल को दिए इंटरव्यू में बॉबी गिब ने कहा था, “जब से मुझे याद आता है, मैं दौड़ ही रही हूं. मैं दौड़ना कभी बंद नहीं किया. मेरे साथ की और जितनी सहेलियां थीं, सबने 13, 14, 15 साल की होते-होते दौड़ना छोड़ दिया, लेकिन मैंने नहीं. मैं आसपास के जंगल में, रास्तों में सड़क के कुत्तों के साथ दौड़ती. मैं 20 साल की हो गई और मैंने पाया कि मैं अब भी दौड़ ही रही थी. दौड़ने में एक अजीब सा जादू था. दौड़ना मुझे जीवित होने का एहसास कराता. मानो मैं सांस ले रही हूं, खुश हूं और जीवन से भरी हुई.”
2 नवंबर, 1942 को अमेरिका के कैंब्रिज, मैसाचुसेट्स में एक मध्यवर्गीय परिवार में बॉबी का जन्म हुआ. पिता टफ्ट्स यूनिवर्सिटी में केमिस्ट्री के प्रोफेसर थे. बचपन से दौड़ने की शौकीन बॉबी ने बॉस्टन म्यूजियम ऑफ फाइन आर्ट्स और टफ्ट्स यूनिवर्सिटी से पढ़ाई की, लेकिन उसका दौड़ना कभी नहीं रुका.
घर से स्कूल की दूरी तकरीबन 13 किलोमीटर थी. बॉबी दौड़ते हुए स्कूल जाती और दौड़ते हुए लौटती. उन्हीं काले चमड़े के स्कूल वाले जूतों में. कोई रनिंग शूज नहीं हुआ करता था उन दिनों. वह रोज यह भी देखती कि आज दौड़ने में कितना वक्त लगा. कभी एक सांस में बिना रुके दौड़ती तो कभी रुककर सुस्ता भी लेती. लेकिन कभी ऐसा नहीं हुआ कि बाकी बच्चों की तरह पैदल चलकर, रास्ते का नजारा करते, फूल-पत्तियां बीनते हुए स्कूल जाना हुआ हो.
बचपन में और भी लड़कियां साथ दौड़ती थीं. ये बच्चों के लिए खेल था. लेकिन वो लड़कियां बड़ी होती गईं, उन्होंने दुनिया के बताए नियमों को आत्मसात करना शुरू कर दिया कि लड़कियां कमनीय और कोमल होती हैं. उनकी मांसपेशियों में पुरुषों की तरह बल नहीं होता. उन्हें नाजुक काम करने चाहिए. बॉक्सर पहनकर जंगलों में मर्दों की तरह दौड़ना उनका काम नहीं.
बॉबी अपने मन और आत्मा से इतनी आजाद स्त्री थी कि कोमल, नाजुक और प्रेम से भरी होने की मर्दवाद की ये सारी लुभावनी बातें उसे कभी नहीं बरगला सकीं. 20 साल की होते-होते वह दौड़कर लंबी-लंबी दूरियां तय करने लगी थी.
एक बार एक इंटरव्यू में बॉबी ने कहा था, “हमारा समाज कहता है कि औरतों को शांत और गंभीर होना चाहिए. हमसे उम्मीद की जाती है कि हम अपने सपनों की कुर्बानी दें. मर्द घर का मुखिया है और औरत का काम उसे सपोर्ट करना है. यह बात कभी मेरे गले से नहीं उतरी.”
जब पहली बार बॉस्टन मैराथन अपनी आंखों से देखा
यह 1964 की बात है. 22 साल की उम्र में बॉबी पहली बार अपने पिता के साथ बॉस्टन मैराथन देखने गईं. तकरीबन 4 दशक बाद एक इंटरव्यू में बॉबी उस सुबह को याद करते हुए कहती हैं, “पहली बार मैंने दूसरे लोगों को दौड़ते हुए देखा. वह एक सम्मोहित करने वाला पल था. मुझे फर्क नहीं पड़ रहा था कि वे औरत थे या मर्द. मुझे बस इतना दिखा कि इतने सारे मजबूत जंघाओं, भुजाओं वाले हिम्मती लोग, अपने दो मजबूत पैरों पर खड़े हुए, पूरे बल से दौड़ते हुए. वह पल जीवित होने का, मनुष्य होने का, सशक्त और साहसी होने का अनोखा एहसास था. कितना आत्मबल, साहस, सहनशक्ति चाहिए ये महसूस करने के लिए कि आप जिंदा है, आपकी आत्मा सांस ले रही है, आपका मन महसूस कर रहा है. आप अपने दोनों पैरों की ताकत और आत्मा के समूचे बल से दौड़ रहे हैं. जीवन इतना गतिशील और कब महसूस होता है भला.”
वहां से लौटने के बाद बॉबी ने सोच लिया कि उसे इस दौड़ में हिस्सा लेना है. बॉस्टन मैराथन 40 माइल्स यानि करीब 65 किलोमीटर की होती थी. दो साल तक बॉबी ने जी तोड़ मेहनत और तैयारी की. लेकिन जब मैराथन में शामिल होने के लिए ऑफिशियल एप्लीकेशन भेजी तो रेस डायरेक्टर विल क्लॉनी का जो जवाब आया, उसमें लिखा था, “ये दौड़ महिलाओं के लिए नहीं है. औरतों में इतनी लंबी दौड़ में टिके रहने की शारीरिक क्षमता नहीं होती.”
उस समय महिलाओं वाली दौड़ डेढ़ माइल यानि ढाई किलोमीटर की होती थी. अधिकारियों का तर्क था कि स्त्रियां नाजुक होती हैं. उनके शरीर में इतना दौड़ने का बल और सामर्थ्य नहीं होता.
बॉबी का क्रोध चरम पर था. इस दौड़ में हिस्सा लेने के लिए उसने दो साल तक रोज 40 मील दौड़ने की प्रैक्टिस की थी और अब मूढ़ आयोजक कह रहे थे कि इतना लंबा दौड़ना औरत के बस की बात नहीं.
गुस्सा तो था, आयोजकों को सबक सिखाना भी जरूरी था कि लेकिन बॉस्टन मैराथन में दौड़ने की बॉबी की जिद का कारण सिर्फ यही नहीं था. उस इंटरव्यू में एक जगह वो कहती हैं, “मुझे हमेशा लगता था कि इस शहरी जिंदगी में कुछ कम है, कुछ खाली है. भीतर कहीं कुछ धीरे-धीरे मर रहा है. दौड़ना मुझे जिंदा होने का एहसास कराता था. मुझे जीवन के उस उत्सव का हिस्सा होना ही था, जहां इतने सारे मनुष्य अपनी सारी शक्ति को जमाकर अपनी शारीरिक क्षमता के चरम तक पहुंचने के लिए जान लगा देते हैं.”
सैन डिएगो, कैलिफोर्निया से बस में बैठकर बॉबी बॉस्टन मैराथन में हिस्सा लेने के लिए निकली. बस में चार दिन और तीन रात का सफर तय करके 19 अप्रैल, 1966 को बॉबी विन्चेस्टर, मैसाचुसेट्स पहुंची. मां ने उस जगह छोड़ा, जहां से दौड़ शुरू होने वाली थी. बॉबी ने अपने भाई का बरमूड़ा, काला टैंक टॉप और उसके ऊपर नीले रंग की स्वेट शर्ट पहन रखी थी.
बॉबी रेस की स्टार्टिंग लाइन के पास झाडि़यों के पीछे छिपकर खड़ी हो गई. दूर से गोली चलने की आवाज सुनाई दी. रेस शुरू हो गई थी. लेकिन बॉबी ने तब तक इंतजार किया, जब तक सड़क दौड़ने वाले लोगों से भर न जाए. उसके बाद वह झाडि़यों के बीच से कूदकर आई और बाकी पुरुषों के बीच दौड़ने लगी.
कुछ देर दौड़ने के बाद आसपास के पुरुषों को समझ में आ गया कि उनके बीच एक औरत दौड़ रही है. वे लोग तालियां बजाकर उसका उत्साह बढ़ाने लगे. उनके दोस्ताना व्यवहार ने बॉबी को सहज कर दिया था. उसने अपनी स्वेट शर्ट उतार दी. आश्चर्य और खुशी की बात ये थी कि सैकड़ों की संख्या में मर्दों के बीच एक औरत को देखकर भीड़ खुशी से तालियां बजाने लगी. खबर जंगल की आग की तरह फैल गई. पत्रकार रिपोर्ट करने लगे कि इस बार मैराथन में एक महिला पुरुषों के बराबर दौड़ रही है.
डायना चैपमैन वॉल्श नाम की एक महिला ने कई साल बाद उस दिन को कुछ यूं याद किया है,
“Wellesley कॉलेज में वह मेरा सीनियर ईयर था. मैं जब से कैंपस में आई थी, हर साल मैराथन में दौड़ रहे लोगों को देखने और उनका उत्साह बढ़ाने जाती थी. लेकिन उस दिन उस मैराथन की बात कुछ अलग थी. बिजली के करंट की तरह यह खबर मैराथन देख रहे लोगों के बीच फैल गई कि इस बार एक महिला दौड़ रही है. चारों ओर बिलकुल सन्नाटा छा गया. सब एकदम शांत सांस रोके दौड़ते हुए लोगों का चेहरा ध्यान से देखने लगे. और तभी हमें वह दिखाई दी. हमने ऐसे खुशी जाहिर की, ऐसे तालियां बजाईं, जैसे पहले कभी नहीं बजाई थी. हमारे मुंह से चीखें निकल रही थीं. उस स्त्री ने सिर्फ एक जेंडर स्टीरियोटाइप को ही नहीं तोड़ा था. यह उससे कहीं बड़ी बात थी.”
जब बॉबी रेस की फिनिश लाइन पर पहुंची तो मेसाचुसेट्स के गवर्नर जॉन वॉल्पे वहां उसका स्वागत करने के लिए खड़े थे. बॉबी ने तीन घंटे, 21 मिनट और 40 सेकेंड में रेस पूरी की थी. मैराथन में दौड़ रहे दो तिहाई मर्दों को वह पीछे छोड़ आई थी.
अगले दिन अखबारों के मुखपृष्ठ पर छपी तस्वीर थी- दौड़ती हुई बॉबी के पैरों की. लिखा था- “मैराथन में दौड़ने वाली पहली लड़की.”
अगले साल 1967 में 20 साल की कैथरीन श्वाइत्जर आधिकारिक रूप से बॉस्टन मैराथन में हिस्सा लेने में कामयाब हो गई. औरतों को दौड़ में शामिल न करने का नियम अब वापस ले लिया गया था. हालांकि महिलाओं के लिए अलग से इतनी लंबी मैराथन की शुरुआत 1972 से हुई.
उस दिन बॉबी गिब ने नियमों की परवाह न कर, मर्दों के बीच मर्द बनकर दौड़कर इतिहास रच दिया था. वो कहावत है न, लीक पर चलने वाली लड़कियां स्वर्ग जाती हैं. लीक को तोड़ने वाली इतिहास बनाती हैं.