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न्याय व्यवस्था में क्या है 'कॉलेजियम सिस्टम'? सरकार इसके खिलाफ क्यों है?

केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रीजीजू ने 4 नवंबर को कहा कि जजों की नियुक्ति के लिए सुप्रीम कोर्ट की मौजूदा कॉलेजियम प्रणाली अपारदर्शी है. उन्होंने कहा कि सबसे योग्य व्यक्ति को न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया जाना चाहिए, न कि किसी ऐसे व्यक्ति को जिसे कॉलेजियम जानता हो.

न्याय व्यवस्था में क्या है 'कॉलेजियम सिस्टम'? सरकार इसके खिलाफ क्यों है?

Tuesday November 22, 2022 , 8 min Read

केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रीजीजू ने 4 नवंबर को कहा कि जजों की नियुक्ति के लिए सुप्रीम कोर्ट की मौजूदा कॉलेजियम प्रणाली अपारदर्शी है. उन्होंने कहा कि सबसे योग्य व्यक्ति को न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया जाना चाहिए, न कि किसी ऐसे व्यक्ति को जिसे कॉलेजियम जानता हो.

कानून मंत्री ने कहा कि दुनिया भर में सरकारें न्यायाधीशों की नियुक्ति करती हैं. सुप्रीम कोर्ट द्वारा राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम को खारिज करने पर रीजीजू ने कहा सरकार न्यायपालिका का सम्मान करती है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम हमेशा चुप रहेंगे.

इसके जवाब में हाल ही में रिटायर हुए देश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) यूयू ललित ने कहा कि ये (अपारदर्शी, गैरजवाबदेह) उनके (कानून मंत्री) के निजी विचार हैं... यह काम करने का एक बिल्कुल सही, और संतुलित तरीका है.


अब सुप्रीम कोर्ट वकील मैथ्यूज जे. नेदुमपारा की याचिका पर एक बार फिर से सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्टों में जजों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली के खिलाफ एक याचिका को सूचीबद्ध करने पर विचार करने पर सहमत हो गया है.


वहीं, हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं दाखिल कर मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों के चयन के लिए भी कॉलेजियम जैसी प्रणाली की मांग की गई है. हालांकि, केंद्र सरकार ने इन याचिकाओं का विरोध किया है. ऐसे में यह समझना जरूरी हो जाता है कि कॉलेजियम सिस्टम क्या है और इसको लेकर विवाद क्यों खड़ा होता रहता है.

क्या है कॉलेजियम सिस्टम?

कॉलेजियम एक ऐसा सिस्टम है जिसके माध्यम से सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति और ट्रांसफर किया जाता है. सुप्रीम कोर्ट का कॉलेजियम पांच सदस्यों वाली एक संस्था है. इसकी अध्यक्षा तत्कालीन चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (सीजेआई) करते हैं. बाकी के चार सदस्य उस समय सुप्रीम कोर्ट के चार सबसे सीनियर जज होते हैं.

इसी तरह, हाईकोर्ट के कॉलेजियम की अध्यक्षता हाईकोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस और कोर्ट के दो अन्य सबसे सीनियर जज करते हैं. अपनी आवश्यकताओं के अनुसार, कॉलेजियम के रूप में बदलाव होता रहता है.

सरकार की भूमिका नामों को मंजूरी देने और आपत्ति जताने तक सीमित

उच्च न्यायपालिका के जजों की नियुक्ति कॉलेजियम प्रणाली के माध्यम से ही की जाती है, और कॉलेजियम द्वारा नाम तय किए जाने के बाद ही सरकार की भूमिका होती है. हाईकोर्ट के कॉलेजियम द्वारा नियुक्ति के लिए रिकमेंड किए गए नाम सीजेआई और सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम द्वारा मंजूरी के बाद ही सरकार तक पहुंचते हैं.

अगर किसी वकील को हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में जज के रूप में पदोन्नत किया जाना होता है तो इस पूरी प्रक्रिया में सरकार की भूमिका इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) द्वारा एक जांच कराने तक सीमित. भेजे गए नामों पर सरकार भी आपत्ति उठा सकती है और कॉलेजियम के विकल्पों के बारे में स्पष्टीकरण मांग सकती है, लेकिन अगर कॉलेजियम उन्हीं नामों को दोहराता है, तो सरकार उन्हें नियुक्त करने के लिए बाध्य हो जाती है.

सिफारिश पसंद न आने पर सरकार मंजूरी में करती है देरी

कभी-कभी सरकार कॉलेजियम द्वारा भेजे गए नामों की नियुक्ति करने में देरी करती है. सरकार खासकर उन मामलों में ऐसा करती है, जहां वह कॉलेजियम द्वारा नियुक्ति के लिए सिफारिश किए गए एक या एक से अधिक जजों से नाखुश मानी जाती है. सुप्रीम कोर्ट के जज अक्सर सरकार के इस रवैया पर आपत्ति जताते रहते हैं.

बीते 11 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट ने कॉलेजियम द्वारा दोबारा भेजे गये नामों सहित उच्चतर न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए अनुशंसित नामों को केंद्र द्वारा लंबित रखने पर नाराजगी जाहिर करते हुए कहा कि यह ‘अस्वीकार्य’ है. शीर्ष अदालत ने कहा कि नामों पर कोई निर्णय न लेना ऐसा तरीका बनता जा रहा है कि उन लोगों को अपनी सहमति वापस लेने को मजबूर किया जाए, जिनके नामों की सिफारिश उच्चतर न्यायपालिका में बतौर न्यायाधीश नियुक्ति के लिए की गई है.

ऐसे विकसित हुआ कॉलेजियम सिस्टम

कॉलेजियम सिस्टम न तो संविधान और न ही संसद द्वारा बनाए गए किसी कानून के तहत आया है. यह सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के माध्यम से विकसित हुआ है. इन फैसलों की सीरिज को ‘जजेज केसेस’ कहा जाता है. कॉलेजियम संविधान के उन प्रासंगिक प्रावधानों की व्याख्या के माध्यम से अस्तित्व में आया, जो सुप्रीम कोर्ट ने इन ‘जजेज केसेस’ में दिए थे.

'जजेज केसेस'

सबसे पहले 1981 में फर्स्ट जजेज केस यानी एसपी गुप्ता बनाम भारत सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट के बहुमत फैसले ने जजों की नियुक्ति में चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया की प्रधानता को मानने से इनकार कर दिया. इस तरह, फर्स्ट जजेज केस में फैसले ने उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्तियों में शक्ति संतुलन को कार्यपालिका के पक्ष में झुका दिया.

हालांकि, 12 सालों के बाद सेकेंड जजेज केस यानी 'द सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया', 1993 में, नौ जजों की संविधान पीठ ने 'एसपी गुप्ता' के फैसले को पलट दिया, और उच्च न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति और ट्रांसफर के लिए 'कॉलेजियम सिस्टम' नामक एक विशिष्ट प्रक्रिया तैयार की.

वहीं, 1998 में थर्ड जजेज केस में फैसले ने मौजूदा कॉलेजियम सिस्टम की नींव रखी. इसके तहत सीजेआई और दो जजों के बजाय चार सबसे सीनियर जज की सिफारिश, सुप्रीम कोर्ट जाने वाले हाईकोर्ट के जजों की भी सिफारिश और दो कॉलेजियम सदस्यों की आपत्ति पर सीजेआई द्वारा सिफारिश पर रोक के नियम तय किए गए.

जजों की नियुक्ति पर संविधान क्या कहता है?

संविधान का अनुच्छेद 124(2) और 217 सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति से संबंधित हैं. नियुक्तियां राष्ट्रपति द्वारा की जाती हैं. राष्ट्रपति को सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के ऐसे जजों के साथ सलाह-मशवरा करने की आवश्यकता होती है, जिन्हें वह उचित समझते हैं. हालांकि, इसके बावजूद संविधान इन नियुक्तियों को करने के लिए कोई प्रक्रिया निर्धारित नहीं करता है.

कॉलेजियम सिस्टम की आलोचना क्यों होती है?

कॉलेजियम सिस्टम के आलोचक कहते हैं कि यह सिस्टम अपारदर्शी है क्योंकि यह किसी आधिकारिक प्रणाली या सचिवालय को शामिल नहीं करती है. इसे बिना किसी एलिजिबिलिटी क्राइटेरिया, या यहां तक कि चयन प्रक्रिया के बारे में बिना कोई निर्धारित मानदंड के साथ एक गुप्त रूप से होने वाली कार्यवाही माना जाता है.

कॉलेजियम की बैठक कैसे और कब होती है, और यह कैसे निर्णय लेता है, इसकी कोई सार्वजनिक जानकारी नहीं है. कॉलेजियम की कार्यवाही का कोई ऑफिशियल मिनट्स नहीं जारी होता है. वकील भी आमतौर पर इस बात को लेकर अंधेरे में रहते हैं कि जज के रूप में पदोन्नति के लिए उनके नामों पर विचार किया गया है या नहीं.

उच्च न्यायपालिका के न्यायाधीशों की नियुक्ति और ट्रांसफर के कॉलेजियम सिस्टम पर लंबे समय से बहस चल रही है. कॉलेजियम को कभी-कभी न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच झगड़े और न्यायिक नियुक्तियों की धीमी गति के लिए दोषी ठहराया गया है.

ऐसे आया NJAC का विचार

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी (1998-2003) की भाजपा की अगुआई वाली सरकार ने कॉलेजियम प्रणाली को बदलने की आवश्यकता की जांच करने के लिए जस्टिस एमएन वेंकटचलैया आयोग नियुक्त किया था.

आयोग ने सिफारिश की कि एक राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) की स्थापना की जानी चाहिए, जिसमें CJI और सुप्रीम कोर्ट के दो सबसे सीनियर जजों, भारत के कानून मंत्री और जनता के बीच से एक प्रतिष्ठित व्यक्ति को CJI के मशवरे से राष्ट्रपति द्वारा चुना जाना चाहिए.

NJAC की स्थापना नरेंद्र मोदी सरकार की प्राथमिकताओं में से एक थी. इसके लिए संवैधानिक संशोधन और NJAC अधिनियम को लोकसभा द्वारा तेजी से मंजूरी दी गई थी. इस तरह राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) अधिनियम और संविधान (99वां संशोधन) अधिनियम, 2014 लाया गया था.

2015 में सुप्रीम कोर्ट ने NJAC को रद्द कर दिया

हालांकि, इसके बाद, सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएँ दायर की गईं, जिसमें तर्क दिया गया कि संसद द्वारा लागू कानून न्यायपालिका की स्वतंत्रता को कमजोर करता है, और संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन करता है.

साल 2015 में, सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ ने NJAC बनाने की मांग करने वाले संवैधानिक संशोधन को असंवैधानिक करार दिया. 4-1 के बहुमत के फैसले से पीठ ने कॉलेजियम सिस्टम से जजों की नियुक्ति को जारी रखने की मंजूरी दी जिसमें सीजेआई का फैसला अंतिम रहेगा.

अदालत ने अपने बहुमत की राय में कहा, "वैकल्पिक प्रक्रिया को स्वीकार करने का कोई सवाल ही नहीं है, जो उच्च न्यायपालिका में जजों के चयन और नियुक्ति के मामले में न्यायपालिका की प्रधानता को सुनिश्चित नहीं करता है."

हालांकि, जस्टिस जे. चेलामेश्वर ने असहमति वाला फैसला लिखा, जिसमें उन्होंने कॉलेजियम प्रणाली की आलोचना करते हुए कहा कि कभी-कभी छोड़कर कॉलेजियम की कार्यवाही पूरी तरह से अस्पष्ट, जनता और इतिहास के लिए पहुंच से दूर है.

17 अक्टूबर, 2019 को, सुप्रीम कोर्ट ने 'सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड एसोसिएशन और अन्य बनाम यूनियन ऑफ इंडिया' (सेकेंड जजेज केस) में फैसले की समीक्षा करने के लिए एक याचिका को 9,071 दिनों की अत्यधिक देरी दाखिल होने और इस देरी के लिए कोई संतोषजनक सफाई नहीं देने के आधार पर खारिज कर दिया.

तत्कालीन CJI रंजन गोगोई और जस्टिस एसए बोबडे, एनवी रमना, अरुण मिश्रा, रोहिंटन एफ. नरीमन, आर. भानुमति, यूयू ललित, एएम खानविलकर और अशोक भूषण की 9 जजों की पीठ ने आदेश पारित किया, जिसे 6 नवंबर को जारी किया गया. इस फैसले के बाद जस्टिस बोबड़े, जस्टिस रमना, और ललित ने सीजेआई के रूप में कार्यभार ग्रहण किया.

कॉलेजियम पर फिर बहस की तैयारी

अब 17 नवंबर को मौजूदा सीजेआई जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्टों में जजों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली के खिलाफ एक याचिका को सूचीबद्ध करने पर विचार करने पर सहमत हो गया.

याचिका में कहा गया है कि जजों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली के परिणामस्वरूप हजारों पात्र, मेधावी और योग्य वकीलों को समान अवसर से वंचित कर दिया गया है.