कैसे असम का मिसिंग समुदाय वास्तुशिल्प डिजाइन के जरिए बाढ़ से मुकाबला कर रहा है
आपदा से बचने और उसके जोखिम को कम करने के लिए असम की स्वदेशी मिसिंग जनजाति बांस के मजबूत खंबों पर बनाए पारंपरिक बाढ़-प्रतिरोधी घरों में रहती है. इन घरों को ‘चांग घोर’ या ‘चांग घर’ कहा जाता है. अरुणाचल प्रदेश की सीमा से लगा असम का धेमाजी जिला भारत के सबसे अधिक बाढ़ प्रभावित इलाकों में से एक है.
ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे बसे मेधिपामुआ गांव में दिसंबर की गुनगुनी धूप हर तरफ फैली है. गांव के कुछ पुरुष, महिलाएं और बच्चे झुंड बनाकर जमीन से कुछ फीट ऊपर बने एक टिन की छत, खुले और कंक्रीट के ढांचे के नीचे बाढ़ से निपटने की तैयारी के तरीकों पर चर्चा करने के लिए इक्टठा हुए हैं. असम के धेमाजी जिले में पड़ने वाले इस गांव के लिए बाढ़ हर साल मुसीबत लेकर आती है.
स्वदेशी मिसिंग समुदाय की सुनीता डोले 2021 की उस एक रात को याद करते हुए सिहर उठीं, जब कुछ ही घंटों में अचानक पानी का जोर बढ़ गया था. उन्होंने कहा, “शुक्र है, मेरी रसोई ऊंचाई पर थी. लगभग चार परिवारों ने बांस के खंभों पर बने इस सामुदायिक जगह में आश्रय लिया था और अगले दिन हमें पास के स्वास्थ्य केंद्र के क्वार्टर में ले जाया गया.”
सदियों से नदी के करीब रहने वाले मिसिंग समुदाय की आबादी 7 लाख है. मुख्य रूप से पूर्वोत्तर भारत में असम और अरुणाचल प्रदेश में रहने वाले ये लोग बाढ़ के साथ जीते चले आए हैं. वास्तुकला संबंधी नवाचार न सिर्फ समुदाय को हर साल आने वाली बाढ़ के खतरे के अनुकूल बनाने में मदद कर रहे हैं, बल्कि कुछ सबसे ज़्यादा प्रभावित क्षेत्रों में आपदा जोखिम को भी कम करने का काम कर रहे हैं.
अरुणाचल प्रदेश की सीमा से सटा असम का धेमाजी जिला भारत के सबसे ज़्यादा बाढ़-ग्रस्त इलाकों में से एक है. साल 2022 में तीन बार आई बाढ़ से यहां एक लाख से ज्यादा लोग प्रभावित हुए थे.
रूरल वालंटियर सेंटर (आरवीसी) के निदेशक लुइट गोस्वामी ने कहा, “तिब्बत में 3,000 मीटर की ऊंचाई से अरुणाचल प्रदेश के पासीघाट में 150 मीटर से भी कम से गिरने वाली ब्रह्मपुत्र नदी के ढलान में अचानक गिरावट धेमाजी के बाढ़ के मैदानी इलाकों में जबरदस्त दबाव डालती है.” आरवीसी एक संगठन है जो स्थानीय समुदायों पर बाढ़ के प्रभाव का अध्ययन कर रहा है और बाढ़ से होने वाले नुकसान से उन्हें बचाने में उनकी मदद कर रहा है.
गोस्वामी ने कहा कि धेमाजी जिले से गुजरने वाली ब्रह्मपुत्र की 26 सहायक नदियों की यह अस्थिर और अप्रत्याशित प्रकृति बड़े पैमाने पर बाढ़, रेत जमाव, मलबे और नदी के किनारे के कटाव का कारण बनती है.
हर साल लगातार आने वाली बाढ़ लोगों के जीवन पर खासा असर डालती है, खासकर इन स्वदेशी जनजातियों पर जो आसपास के गांवों में नदी के करीब रहते हैं. लेकिन ये लोग विपरीत परिस्थितियों का अपने तरीके से सामना करते आए हैं. मिसिंग जनजाति इस आपदा से बचने और उसके जोखिम को कम करने के लिए वास्तु संरचनाओं का सहारा लेती है. वह जिन पारंपरिक बाढ़-प्रतिरोधी घरों में रहती हैं, उन्हें ‘चांग घोर’ या ‘चांग घर’ कहा जाता है. ये जमीन के ऊपर बांस के मजबूत खंबों पर बनाए जाते हैं. डोले ने बताया, “अगर पिछले साल पांच फीट तक पानी भरा था, तो हम अगले साल इनकी ऊंचाई को छह फीट तक बढ़ा देते हैं.”
बाढ़ से मुकाबला करने की रणनीति में ‘चांग घर’
धेमाजी जिले का मेधिपामुआ भी एक ऐसा ही गांव है जहां ज्यादातर मिसिंग जनजाति के ही लोग रहते हैं. यह ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे बसा है. गांव के एक निवासी जनमोनी डोले ने कहा, “हमारे घर आठ फ़ीट की ऊंचाई पर बने हैं. वहीं अंदरूनी हिस्सों में बने घर 12 से 13 फीट ऊंचे हैं. हम मानसून आने से पहले अपने आस-पास बांस के लट्ठों को ढेर लगा लेते हैं.” उन्होंने बताया कि कई परिवार अभी भी देशी नावों से अपने घरों से कुछ किलोमीटर दूर अधिक सुरक्षित ऊंचे चबूतरे पर जाना पसंद करते हैं, मसलन ग्रामीण सामुदायिक स्थान जहां पानी की मात्रा आमतौर पर कम होती है.
इस समुदाय के लोग अपना घर स्थानीय रूप से उपलब्ध सामग्री जैसे बांस, लकड़ी और बेंत से बनाते हैं. असम स्थित गैर-सरकारी संगठन ‘आरण्यक’ के वाटर क्लाइमेट एंड हैज़र्ड (WATCH) कार्यक्रम के प्रमुख पार्थ ज्योति दास ने बताया, “ यह समुदाय नदी के व्यवहार को पढ़ सकता है. उन्होंने पिछली बाढ़ को जाना और देखा है. उन्हें याद है कि पिछले साल बाढ़ का पानी किस स्तर तक बढ़ गया था. और यह उनके अनुमान लगाने का एक तरीका है कि यह किस हद तक और बढ़ सकता है.”
अपने इसी अनुमान के आधार पर वे तय करते हैं कि वे किस ऊंचाई पर अपने घर बनाएंगे. दास ने समझाते हुए कहा, “लोग छह फीट या उससे अधिक की ऊंचाई पर घर बना रहे हैं. उनके घरों की ऊंचाई स्थानीय बाढ़ के इतिहास के साथ बदलती रहती है.”
घरों के इंटीरियर्स में और भी खासियतें हैं. अंदर एक छोटी चिमनी और एक स्टोव होता है, जिसके ऊपर आमतौर पर अलग-अलग ऊंचाई की तीन अलमारियां बनी होती हैं. चिमनी से अलमारियों की ऊंचाई के आधार पर कई तरह की चीजों को रखा जाता है. यहां बनी पहली अलमारी पर वे अपना पारंपरिक मादक पेय अपोंग रखते हैं. दूसरी अलमारी में खाने का सामान और सब्जियां हो सकती हैं. और सबसे ऊपर, अगले साल के लिए अनाज और अन्य सामान को संरक्षित करके रखा जा सकता है. उनके घर के बाहर बालकनी जैसी खाली जगह भी होती है.
दास ने बताया कि आजकल कई परिवार, स्थानीय पंचायत घर और सामुदायिक स्थान ‘चांग घर’ बनाने के लिए बांस या लकड़ी के बजाय कंक्रीट के पिलर का इस्तेमाल कर रहे है. उन्होंने कहा, “ऐसा इसलिए है क्योंकि पिछले कुछ सालों में आई बाढ़ भयावह रही है. हालांकि घर पानी में डूबते नहीं हैं क्योंकि वह ऊंचाई पर बने हैं. लेकिन पानी की ताकत बांस के खंभों को नुकसान पहुंचा सकती है. इसलिए लोग अब अपने पिलर को बांस की बजाय सीमेंट, लोहे की सरिया और कंक्रीट से बनाने लगे हैं.” वह आगे कहते हैं कि इस तरह के पिलर बनाना आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए संभव नहीं हैं. “यह परिवार के आर्थिक हालातों पर निर्भर करता है. एक गरीब व्यक्ति इसका खर्चा नहीं उठा सकता है.”
हालांकि कंक्रीट से बने पिलर काफी लोकप्रिय हो गए हैं. लेकिन सस्टेनेबल एनवायरनमेंट एंड इकोलॉजिकल डेवलपमेंट सोसाइटी (सीड्स) के साथ काम करने वाले एक वास्तुकार आकाश विश्वकर्मा का मानना है कि समुदाय बांस का इस्तेमाल करने में ज्यादा माहिर हैं. “बांस हल्का होने के कारण आसानी से झुक जाता है, इसलिए अगर थोड़ी बाढ़ की लहरे ज्यादा होती हैं, तो यह झुक जाता है और उस स्थिति के अनुकूल हो जाता है. ऐसे में घरों को ज्यादा नुकसान नहीं हो पाता. इसलिए, मुझे लगता है कि सरकारों और स्थानीय एजेंसियों को अच्छी गुणवत्ता वाले बांस की उपलब्धता को बढ़ावा देना चाहिए, ताकि ये घर लंबे समय तक टिके रहें.”
दीर्घकालिक समाधान
‘चांग घर’ डिजाइन भारत की प्रधानमंत्री आवास योजना (पीएमएवाई) योजना के तहत भी एक घटक है. पीएमएवाई केंद्र सरकार की एक पहल है जिसका उद्देश्य आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को किफायती आवास प्रदान करना है. एक वालंटियर बेस्ड एनजीओ ‘नॉर्थ-ईस्ट अफेक्टेड एरिया डेवलपमेंट सोसाइटी’ (एनईएडीएस) के संयुक्त निदेशक तीर्थ प्रसाद सैकिया ने कहा, “असम सरकार सभी मिसिंग बहुल इलाकों में इसे अपनाने की कोशिश कर रही है. यह आपदा-प्रतिरोधी है और गंभीर बाढ़ की स्थिति में जलमग्न नहीं होते. मिट्टी या नदी के कटाव के दौरान इन्हें वहां से हटाया जा सकता है. घर बनाने की इस तरीके को नदी के किनारे और बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित इलाकों में रह रहे अन्य समुदाय और परिवार भी अपना रहे हैं.”
भारत सरकार की एक रिपोर्ट बताती है कि असम भारतीय हिमालयी क्षेत्र के उन 12 राज्यों में से एक है, जो जलवायु परिवर्तन के लिए सबसे अधिक संवेदनशील है. असम के लिए जलवायु परिवर्तन के अनुमान सदी के मध्य तक चरम वर्षा की घटनाओं में 5-38% और बाढ़ में 25% से अधिक की वृद्धि का संकेत देते हैं. आरण्यक दास ने कहा, “इस सबको देखते हुए नीतिगत स्तर पर चांग घारों को अपनाना एक सही फैसला होगा. हम राज्य सरकार से एक ऐसी नीति चाहते हैं जो हमेशा बाढ़ से प्रभावित रहने वाले मैदानों इलाकों में लोगों को जमीनी घर न बनाने के लिए प्रोत्साहित करे.”
मोंगाबे-इंडिया से बात करने वाले अधिकांश विशेषज्ञों ने बताया कि ‘चांग घरों’ को थोड़े समय में ही वहां से हटाकर कहीं दूसरी जगह ले जाया जा सकता है. उसी मैटिरियल से फिर से घर तैयार किया जा सकता है. इन घरों की ये खासियत मिसिंग समुदाय के लिए खास तौर पर महत्वपूर्ण है क्योंकि वे नदी के बदलते रास्ते और बाढ़ की वजह से एक गांव से दूसरे गांव में जाते रहते हैं. दास ने कहा, “यह उनके बाढ़ से होने वाले नुकसान से निपटने की आदत का हिस्सा है. जो लोग नदी के करीब रहते हैं उन्हें इस तरह यहां से वहां जाना पसंद है और यह उनकी जरूरत भी है. वे घर को खोने का जोखिम नहीं उठा सकते क्योंकि इसमें काफी पैसा लगता है.”
उन्होंने आगे कहा, “अगर हम इस तरह के घरों को बनाते हुए नई तकनीक को इस्तेमाल में ला रहे हैं तो हमें इस बात को ध्यान में रखना होगा. हमें कंक्रीट के अलावा अन्य सामग्रियों के बारे में सोचने की ज़रूरत है जिन्हें आसानी से फिर से इस्तेमाल में लाया सकता है.”
एक अर्बन प्रक्टिशनर गरिमा जैन के मुताबिक, ‘दीर्घकालिक सुधार का पहलू गायब है.’ जैन ने तर्क दिया कि बहुधा समुदायों को उनके दम पर छोड़ दिया जाता है. उन्होंने कहा, “मैं सरकार, स्थानीय एजेंसियों और मानवीय सहायता के लिए काम कर रहे अन्य दिग्गजों के बीच एक लंबी साझेदारी की जरूरत पर जोर दूंगी, ताकि समुदायों के सामने आने वाले मुद्दों को समझा जा सके और संसाधनों की कमी को पूरा किया जा सके.”
(यह लेख मुलत: Mongabay पर प्रकाशित हुआ है.)
बैनर तस्वीर: उत्तरी लखीमपुर, असम में मिसिंग जनजाति का एक घर. बाढ़ग्रस्त इलाकों में रह रहे लोग बाढ़ से बचने के लिए चांग घोर अवधारणा को अपना रहे हैं. तस्वीर: pranabnlp /विकिमीडिया कॉमन्स