बुनियादी ढांचे के नीचे दम तोड़ती कश्मीर के करेवा की उपजाऊ जमीन
करेवा कश्मीर घाटी की प्राचीन पठारी भूमि है. इसकी नरम मिट्टी केसर, सेब और बादाम की खेती के लिए सबसे उपयुक्त है. जीवाश्मों से भरपूर करेवा में अतीत का अध्ययन करने के लिए कई अहम सुराग भी छिपे हैं.
Shaz Syed
Sunday March 05, 2023 , 8 min Read
केसर की धरती कहे जाने वाले पंपोर इलाके के बीच से एक राष्ट्रीय राजमार्ग (NH44) होकर गुजर रहा है. केसर की खेती करने वाले इश्फाक अहमद यहां खड़े होकर इस जमीन के भविष्य को लेकर अजीब सी उधेड़बुन में व्यस्त हैं. केसर की क्यारियों से निकली हरी-हरी टहनियों पर उनकी निगाहें टिकी हैं. वह उत्सव के रंगों में सरोबार उन खूबसूरत दिनों को याद करते हैं जो कभी इन विशाल करेवा पहाड़ी मैदानों (टेबललैंड्स) में एक आम दृश्य हुआ करते थे.
करेवा की नरम मिट्टी कश्मीर घाटी की कृषि के लिए खास है. कश्मीर के प्रतिष्ठित केसर, सेब और बादाम इसी की देन हैं. यह प्राचीन पठार और पौधों के जीवाश्मों का घर भी है और पृथ्वी के अतीत के कई सुराग भी यहां छिपे हुए हैं. लेकिन ये प्राचीन भूवैज्ञानिक संरचनाएं अब तेजी से हो रहे शहरीकरण, अनियोजित विकास और खनन की गिरफ्त में हैं.
भारतीय जीवाश्म विज्ञानी/पुरावनस्पतिशास्त्री बीरबल साहनी ने 1936 के एक लेख में इस जगह का वर्णन करते हुए लिखा था कि लगभग 40 लाख साल पहले बने ये करेवा (या वुदुर) कमोबेश समतल चबूतरे या पहाड़ी मैदान हैं जो कश्मीर घाटी के एक बड़े हिस्से को कवर करते हैं, खासकर झेलम के बाएं किनारे को.”
करेवा अलग-अलग तरह की मिट्टी और तलछट जैसे रेत, मिट्टी, गाद, शेल, मिट्टी, लिग्नाइट और लोएस के जलोढ़ निक्षेप (डिपॉजिट) हैं. भूविज्ञानी गॉडविन-ऑस्टेन ने पहली बार 1859 में करेवा शब्द का इस्तेमाल किया था. कश्मीर के करेवा घाटी के लगभग 2500 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैले हुए हैं.
करेवा और घाटी की खास पर्वत श्रृंखलाओं के बीच अंतर को लेकर वैज्ञानिक रईस अहमद शाह कहते हैं, “करेवा नरम तलछट हैं, जो आम तौर पर मिट्टी और रेत से बने होते हैं. हालांकि, कुछ परतों में शिलाखंड, ज्वालामुखीय राख के निशान और कुछ स्थानों पर कोयला भी हो सकता है. कश्मीर की बाकी लिथोलॉजी (चट्टानों की रचना) में कठोर चट्टानें हैं और इन्हें नंगी आंखों से पहचाना जा सकता है.” शाह उन प्रक्रियाओं और मकैनिज्म पर काम करते हैं जो पर्वतीय इलाकों में परिदृश्य और भूगर्भीय खतरे को आकार देते हैं.
आजीविका के लिए करेवा
श्रीनगर के एक्टिविस्ट राजा मुजफ्फर भट्ट कहते हैं, “घाटी की अर्थव्यवस्था में करेवा का खास योगदान है.” बडगाम में जन्मे और पले-बढ़े भट्ट करेवा को अपना “दूसरा घर” कहते हैं.
बादाम के बाग को निहारते हुए मुजफ्फर ने कहा, “बादाम और अखरोट के पेड़ों से अटी यह जमीन बडगाम जिले के 80 फीसदी हिस्से को बनाती है.” उन्होंने चिंता जाहिर करते हुए कहा, “जमीन के इन टुकड़ों के कम होने से घाटी में केसर जैसी नकदी फसलों की खेती पर खासा असर पड़ा है.”
शाह के अनुसार करेवा की ऊपरी परत या दिलपुर फॉर्मेशन बेहद उपजाऊ है. इसमें लोएस तलछट होते हैं, जो बड़े पैमाने पर सिल्ट आकार के महीन कणों से बने होते हैं और काफी झरझरा होते हैं. इस मिट्टी का नरम होना इसे खेती के लिए उपयुक्त बना देता है. शाह कहते हैं, “केसर का घनकंद कई महीनों तक निष्क्रिय रहता है. उस दैरान इसे सीमित मात्रा में नमी की जरूरत होती है. और यही वजह है कि जमीन की नमी बनाए रखने की इस मिट्टी की खासियत इसे केसर की खेती के लिए आदर्श बना देती है.”
शाह करेवा को एक अलग ही नजरिए से देखते हैं. वह कहते हैं, “मेरे लिए करेवा एक खुली किताब की तरह है. वे लाखों साल पहले बने थे. वे वैज्ञानिक समुदाय के लिए एक संपत्ति हैं क्योंकि उनके अंदर लाखों सालों का इतिहास छिपा है. करेवा उस समय की जलवायु स्थिति का अध्ययन करने में मदद कर सकते हैं जब वे बने थे. इसके अलावा घाटी में होने वाली टेक्टोनिक गतिविधियों के बारे में जानने के लिए करेवा के फॉल्ट एंड फोल्ट महत्वपूर्ण हैं. करेवा हमारे भूवैज्ञानिक खजाने हैं. इनकी ठीक से स्टडी किए जाने की जरूरत है.”
शाह करेवा के बारे में आम लोगों के बीच जानकारी न होने पर अफसोस जताते हैं. उन्होंने कहा, “घाटी की आबादी का शायद एक प्रतिशत ही इसकी खासियतों के बारे में जानता होगा. करेवा को लेकर बहुत कम अध्ययन किया गया हैं.”
कश्मीर के पंपोर इलाके के स्थानीय लोगों के लिए करेवा कमाई का एक जरिया है. सर्दियों के मौसम की सर्द सुबह में इस इलाके के किसान करेवा के खेतों में जुताई करने के लिए निकल पड़ते हैं. और उसे केसर की खेती के लिए तैयार करते हैं. किसान इश्फाक अहमद के मुताबिक, केसर की खेती में भारी गिरावट देखी गई है. जमीन का बेतहाशा इस्तेमाल इसका एक कारण है.
वह कहते हैं, “करेवा को रिहायशी इलाकों में बदलने से हमारी केसर उगाने की क्षमता पर बहुत असर पड़ा है.” वहीं भट्ट ने बताया, “अगर हम करेवा को ऐसे ही खोते रहे, तो इसका हमारी अर्थव्यवस्था पर बड़ा असर पड़ेगा.”
करेवा पर संकट
शाह ने 2015 से 2016 तक, गांदरबल जिले के नागबल क्षेत्र में करेवा की जमीन पर शोध किया था. शुरुआती शोध से पता चला कि इन जगहों पर ऐसा डेटा मौजूद है, जिसका घाटी के पिछले 65,000 सालों की जलवायु को समझने के लिए अध्ययन किया जा सकता है.
शाह ने कहा, लेकिन ‘अवैध’ खनन के बाद यहां कुछ नहीं बचेगा. कोई भी उस साइट पर फिर से नहीं जा सकेगा या इसे कभी देख भी नहीं पाएगा.”
भट्ट यहां होने वाले अवैध और अनियमित खनन की पुष्टि करते हुए कहते है कि यह करेवाओं के लिए प्रमुख खतरों में से एक है. भट्ट ने अफसोस जताते हुए कहा, “पहले स्थानीय कुम्हार मिट्टी के अलग-अलग बर्तन बनाने के लिए इस नरम मिट्टी का इस्तेमाल किया करते थे. तब स्थिति इतनी खराब नहीं थी. लेकिन जब से अवैध खनिकों ने मशीनरी का इस्तेमाल करना शुरू किया है, उसके बाद से कभी बेहद शानदार दिखने वाले करेवा ऐसे लगने लगे हैं मानों वहां बमबारी हुई हो.”
उन्होंने बताया, “इस मिट्टी की खासियतों को ध्यान में रखे बिना निर्माण से लेकर निचले इलाकों को भरने या राजमार्गों बनाने तक, इसका तेजी से खनन किया जा रहा है.”
करेवा के खनन के संबंध में जानकारी लेने के लिए जिला कलेक्टर कार्यालय, बडगाम से संपर्क साधा गया था. लेकिन रिपोर्ट प्रकाशित होने के समय तक उनका कोई जवाब नहीं मिल पाया.
इश्फाक अहमद ने चिंता जाहिर करते हुए कहा, “केसर के शहर पंपोर में लोगों ने अपनी बढ़ती जरूरतों के चलते केसर के खेतों को व्यावसायिक क्षेत्रों में बदलना शुरू कर दिया है. और यह इस (केसर) व्यवसाय पर काफी असर डालेगा.”
कश्मीर पीर पंजाल रेंज और हिमालयन रेंज के बीच बसा हुआ है. कश्मीर की बनावट ऐसी है कि आसपास कठोर चट्टानें ज्यादा हैं. सो वहां खनन करना मुश्किल हो जाता है. ऐसे में करेवा खनन के लिए एक आसान लक्ष्य बन जाता है.
मुजफ्फर भट्ट ने बताया, “इधर बडगाम जिले में ईंट भट्टों की संख्या काफी तेजी से बढ़ी है. यह सीधे करेवाओं को प्रभावित करता है क्योंकि ईंट बनाने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली मिट्टी वहीं से आती है,” उनका कहना है कि 1990 के दशक में कश्मीर में काजीगुंड बारामूला रेलवे परियोजना शुरू होने के बाद से करेवा टूटने लगे थे. काजीगुंड से बारामूला तक एलिवेटेड रेलवे ट्रैक बनाने के लिए जिस सामग्री का इस्तेमाल किया गया है, उसमें करेवा से निकाली गई मिट्टी का 90 फीसदी हिस्सा है.
बडगाम के स्थानीय लोगों का मानना है कि रात के समय ट्रकों की बढ़ती आवाजाही ने हवा की गुणवत्ता को बुरी तरह प्रभावित किया है. एक स्थानीय समुदाय के सदस्य ने कहा, “हमारे बच्चे रात के समय भी नहीं पढ़ सकते हैं. मिट्टी से लदे ये ट्रक न सिर्फ यहां की आबो-हवा खराब कर रहे हैं बल्कि असहनीय शोर भी पैदा करते हैं.” वह आगे कहते हैं, “खनन का ज्यादातर काम रात के अंधेरे में किया जाता है. वे ज्यादा से ज्यादा मिट्टी खोदना चाहते हैं. हर ड्राइवर जल्दी में रहता है. उन्होंने हमारे क्षेत्र में तबाही मचाई हुई है. पौधों की पत्तियों पर भी धूल ही दिखाई देती है.”
शाह के अनुसार करेवा का नुकसान वैज्ञानिक समुदाय का सीधा नुकसान है. “पश्चिमी हवाएं हमारे मौसम पर हावी हैं. करेवाओं का अध्ययन करके हम यूरोप की भविष्य की जलवायु परिस्थितियों का भी अनुमान लगा सकते हैं. लेकिन दुर्भाग्य से करेवा को बर्बाद करने से हमारा डेटा भी नष्ट हो रहा है.”
भट्ट सुझाव देते हैं, ” खनन की बढ़ती गतिविधियां करेवा के लिए बड़ा खतरा है. करेवाओं से निकाली गई ज्यादातर मिट्टी राजमार्गों के निर्माण में इस्तेमाल में लाई जाती है. इसमें निर्माणाधीन सेमी रिंग रोड भी शामिल है. सरकार को विकल्पों की तलाश करनी चाहिए.” उन्होंने कहा, “करेवा मिट्टी के बजाय सरकार बाढ़ लाने वाली नदियों की गाद का इस्तेमाल कर सकती है. इससे नदियों का प्रवाह भी बढ़ जाएगा.”
(यह लेख मूलत: Mongabay पर प्रकाशित हुआ है.)
बैनर तस्वीर: पोषक तत्वों से भरपूर करेवा केसर व बादाम की खेती के लिए के लिए अहम है. तस्वीर - शाज़ सैयद/मोंगाबे