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1889 में टंट्या भील की फांसी पर न्यूयॉर्क टाइम्स ने लिखा- “भारत का रॉबिनहुड”

एक ऐसा नायक, जो अंग्रेजों की किताब में डाकू, आततायी के रूप में दर्ज है, लेकिन भारत के इतिहास में महान क्रांतिकारी नायक के रूप में.

1889 में टंट्या भील की फांसी पर न्यूयॉर्क टाइम्स ने लिखा- “भारत का रॉबिनहुड”

Thursday November 24, 2022 , 4 min Read

मध्य प्रदेश में राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा का आज दूसरा दिन है. आज पहली बार प्रियंका गांधी भी इस यात्रा में उनके साथ शामिल हुई हैं. उनका लाव-लश्कर बुरहानपुर से खंडवा पहुंच चुका है. यात्रा का यह बहुत खास है क्‍योंकि आज राहुल गांधी खंडवा में आदिवासी नायक मामा टंट्या भील की जन्मस्थली बड़ौदा अहीर पहुंचकर उन्हें श्रद्धांजलि देने वाले हैं.  

यह एक मौका है टंट्या भील को याद करने का. एक ऐसा नायक, जो अंग्रेजों की इतिहास की किताबों में एक डाकू, आततायी के रूप में दर्ज है, लेकिन भारत के इतिहास में उसे एक महान नायक का दर्जा हासिल है.  

आदिवासी नायक टंट्या भील, जिन्‍होंने 12 साल अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी. जिनकी अदम्‍य साहस, शौर्य और वीरता को देखकर तांत्‍या टोपे ने उन्‍हें गुरिल्‍ला युद्ध का प्रशिक्षण दिया था. जिनके नाम भर से अंग्रेज अफसर और हुक्‍मरान कांपते थे, जिनका नाम भारत के इतिहास में अमीरों को लूटकर गरीबों की मदद करने और अंग्रेजों का मुकाबला करने वाले एक महान क्रांतिकारी के रूप में दर्ज है.

कौन थे टंट्या भील

1842 में मध्य प्रदेश की पंधाना तहसील के बर्दा गांव में टंट्या भील का जन्‍म हुआ. वे भील आदिवासी समुदाय से ताल्‍लुक रखते थे. अंग्रेज अफसर, पुलिस के अधिकारी और फिरंगी हुक्‍मरान टंट्या भील के नाम से डरते थे, लेकिन गांव के लोगों और आदिवासी समुदायों के बीच उनका बड़ा आदर थे. वे अमीरों से लूटकर गरीबों की मदद करते थे.

टंट्या भील ब्रिटिश सरकार के सरकारी खजाने को लूट लेते और उनके चमचों की संपत्ति को गरीबों और जरूरतमंदों में बांट देते. वास्तव में वे गरीबों के मसीहा थे. उन्हें सभी आयु वर्ग के लोग लोकप्रिय रूप से मामा कहते थे. टंट्या का यह संबोधन इतना लोकप्रिय हुआ कि भील आज भी ‘मामा’ कहलाने में गर्व महसूस करते हैं.   

1857 का गदर और अंग्रेजों के खिलाफ टंट्या की तलवार

1857 में जब पहला स्‍वतंत्रता संग्राम शुरू हुआ तो टंट्या भील ने भी अंग्रेजों के खिलाफ तलवार उठा ली. उन्‍होंने आदिवासी समूहों को एकजुट कर अंग्रेजों पर हमला करना और उन्‍हें निशाना बनाना शुरू किया. वे जंगलों में छिपकर रहते थे, समूह में हमला करते और अंग्रेजों को लूटकर पलक झपकते गायब हो जाते. इतने घने जंगलों के बीच उन्‍हें पकड़ना भी आसान नहीं था.

अंग्रेजों ने टंट्या भील को पकड़ने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया था. सैकड़ों पुलिस दरोगा, सिपाहियों और अधिकारियों की टीम को भी टंट्या भील को पकड़ने में पांच साल लग गए, तब कहीं जाकर वो उन्‍हें गिरफ्तार कर पाए.   

अंग्रेजों ने उन्‍हें दो बार गिरफ्तार किया था. एक बार 1874 में, लूटपाट करके अपनी आजीविका चलाने के लिए और दूसरी बार 1878 में. नसरुल्ला खान यूसुफजई नाम के अंग्रेजों के पुलिस अफसर ने उन्‍हें गिरफ्तार कर खंडवा जेल में डाल दिया, लेकिन वो तीन दिन के भीतर ही वहां से भाग निकले.

धोखे से गिरफ्तारी और फांसी की सजा

अंग्रेज अफसर उनके पीछे पड़े थे. किसी तरह इंदौर की सेना का एक अधिकारी टंट्या से संपर्क करने में कामयाब हो गया. उसने उन्‍हें यकीन दिलाया कि वो सरेंडर कर दें और उन्‍हें अंग्रेज सरकार से माफी मिल जाएगी. हालांकि टंट्या इसके लिए भी राजी नहीं हुए.

लेकिन वो सेना के अधिकारी से मिलने के लिए राजी हो गए थे. उन्‍हें नहीं पता था कि यह एक ट्रैप था और उसी वक्‍त उन्‍हें घात लगाकर गिरफ्तार करने की साजिश रची गई थी. उस दिन उन्‍हें गिरफ्तार कर जबलपुर ले जाया गया, जहां उन पर मुकदमा चलाया गया. 4 दिसंबर 1889 को उन्‍हें फांसी दे दी गई.

‘भारत का रॉबिन हुड’

अंग्रेजों के रिकॉर्ड में टंट्या भील का नाम एक डाकू, हत्‍यारे और क्रिमिनल के रूप में दर्ज है, लेकिन भारत के इतिहास में एक आदिवासी नायक, एक सच्‍चे क्रांतिकारी के रूप में.

10 नवंबर 1889 को टंट्या भील की गिरफ्तारी का समाचार न्यूयॉर्क टाइम्स में प्रमुखता से प्रकाशित हुआ था और उस खबर में उन्हें ‘भारत का रॉबिन हुड’ कहा गया. तब से इतिहास की किताबों में उनका नाम भारत का रॉबिनहुड ही पड़ गया.   


Edited by Manisha Pandey