हिंदी में फेल हो रहे दस लाख छात्र, क्या हो सकती हैं वजह?
जब पढ़ाने वाले टीचरों को ही ठीक से हिंदी नहीं आती, कामचलाऊ लोग हिंदी पाठ्यक्रम के लिए किताबें लिख रहे हैं, प्रतिष्ठित कवि साहित्यकारों को पाठ्यक्रम से दरकिनार कर दिया गया हो, फिर छात्रों का भी क्या दोष, वे फेल तो होंगे ही।
अगर अपनी मातृभाषा, यानी मां के साथ बोलचाल से स्वभावतः सीखी हुई भाषा-विषय में ही आज के दस लाख बोर्ड परीक्षार्थी फेल हो जाएं, फिर हिंदी आंदोलन किसके भरोसे चल सकता है। देश के तमाम संगठन हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के सवाल पर तो दिन रात छाती पीटते रहते हैं लेकिन उन संगठनों में शामिल कर्ताधर्ताओं के बच्चे आंखें खोलते ही अंग्रेजियत की घुट्टी पीने लगते हैं।
उल्लेखनीय है कि इस बार यूपी बोर्ड हाईस्कूल, इंटरमीडिएट की परीक्षा में 998250 परीक्षार्थी अनिवार्य विषय हिन्दी में ही फेल हो गए। हाईस्कूल में सर्वाधिक 574409 परीक्षार्थी हिन्दी में फेल हुए, जबकि इंटरमीडिएट के 423841 परीक्षार्थी हिन्दी की परीक्षा पास नहीं कर सके। इंटरमीडिएट का उत्तीर्ण प्रतिशत कम होने की एक प्रमुख कारण परीक्षार्थियों का हिन्दी में फेल होना भी रहा है। हाईस्कूल में हिन्दी और प्रारंभिक हिन्दी का पेपर होता है। हिन्दी में 574107, प्रारंभिक हिन्दी में 302 फेल हुए। वही इंटर हिन्दी में 193447 तथा सामान्य हिन्दी में 230394 परीक्षार्थी फेल हो गए। बोर्ड परीक्षाओं में छात्रों के अपनी मातृभाषा में ही फेल हो जाने के कई और उल्लेखनीय कारण हैं।
मसलन, एक सवाल यह भी है कि जब पढ़ाने वाले टीचरों को ही ठीक से हिंदी नहीं आती, कामचलाऊ लोग हिंदी पाठ्यक्रम के लिए किताबें लिख रहे हैं, प्रतिष्ठित कवि साहित्यकारों को पाठ्यक्रम से दरकिनार कर दिया गया हो, फिर छात्रों का भी क्या दोष, परीक्षा में वे फेल तो होंगे ही। इससे एक बात और जुड़ी हुई है 'जीन' की। हाल ही में ब्रिटेन के जुड़वा बच्चों पर हुए एक रिसर्च से पता चला है कि स्कूल में कौन सा बच्चा तेज़ होगा, कौन औसत से कम, ये बात बच्चे के जीन पर निर्भर करती है।
जीन के आधार पर ये भी अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि कोई बच्चा प्राइमरी स्कूल में कैसा परफॉर्म करेगा, किस विषय में उसकी दिलचस्पी ज़्यादा होगी और आगे उसकी पढ़ाई का कैसा हश्र हो सकता है। यानी हमारे जीन्स की बनावट और माहौल का असर बच्चे की आगे के बर्ताव और पढ़ाई पर पड़ता है। रिसर्च जुड़वां बच्चों पर इसलिए हुआ ताकि उनकी पढ़ाई पर जेनेटिक्स असर को गंभीरता से समझा जा सके। एक जैसे दिखने वाले जुड़वां बच्चों के 100 फ़ीसद जीन्स एक जैसे होते हैं। अगर बच्चों का स्कूल का ग्रेड प्राइमरी से लेकर सेकेंडरी स्कूल तक एक जैसा ही रहता है, तो इसके पीछे बड़ी वजह बच्चों का जीन सीक्वेंस होता है।
दो साल पहले की बात है, केंद्रीय मंत्रिमंडल ने आठवीं कक्षा तक के छात्रों को फेल न करने की नीति खत्म करने को मंजूरी दे दी थी। उस समय भारत सरकार का कहना था कि वो इसके लिए 'बच्चों के लिए मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा संशोधन विधेयक' लाएगी। साल 2010 में भारत सरकार ने बच्चों के लिए मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा क़ानून लागू किया था, जिसके तहत 6 से 14 साल के बच्चों को मुफ़्त और अनिवार्य शिक्षा देने की बात कही गई थी, साथ ही आठवीं तक बच्चों को फेल ना करने की नीति यानी नो डिटेंशन पॉलिसी भी अपनाई गई थी।
इस क़ानून को 10 साल भी पूरे नहीं हुए, और उसमें बदलाव की बातें होने लगीं। आख़िर ऐसा करने की ज़रूरत क्यों पड़ी? इस पर विद्वानों का कहना है कि जब हमने बच्चों को फेल न करने या किसी क्लास में उसे न रोकने का नियम लागू किया तो धीरे-धीरे पाया गया कि उसका सबसे अधिक असर बच्चों के न सीखने पर पड़ रहा है। हमारे यहां स्कूलों की स्थितियां भी ऐसी नहीं हैं कि हम बच्चों को न फेल करने की बात करें या पास-फेल को बिल्कल समाप्त कर दें।
उन विद्वानों का मानना है कि अगर हमारे यहां फिनलैंड जैसी स्थिति होती, सारे अध्यापक प्रशिक्षित होते, शिक्षक-छात्रों का अनुपात सही होता, स्कूलों में आवश्यक सुविधाएं होतीं, स्कूल के अध्यापकों को ग़ैर-शिक्षकीय काम न करने पड़ते तो निश्चित तौर पर आज दस लाख छात्र हिंदी में फेल नहीं हो जाते। बच्चे के सीखने की सही मूल्यांकन उसका शिक्षक ही कर सकता है। यह भी गौरतलब है कि स्कूलों में आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग के बच्चे कक्षा तीन-चार में कक्षा एक की पुस्तक भी नहीं पढ़ पाते हैं। जब वे कक्षा छह-सात में पहुंचते हैं, उन्हें खासकर हिंदी के लिए एक बड़ी मानसिक यंत्रणा से दो-चार होना पड़ता है।
हमारे देश शिक्षा नियंता, नीतियां बनाने, बिगाड़ने वाले जब तक धरातल की इन सच्चाइयों को अपने विश्लेषणों का केंद्रीय आधार नहीं बना लेते, आगे भी हिंदी में लाखों बच्चों के फेल होने से इनकार नहीं किया जा सकता है। ऐसे में हिंदी भाषा का भविष्य क्या हो सकता है, खुद ही जाना जा सकता है।
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