31 साल पहले का वह ऐतिहासिक बजट जिसने अर्थव्यवस्था ही नहीं देश को भी हमेशा के लिए बदल दिया
24 जुलाई 1991 को तत्कालीन वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने वह बजट पेश किया था जिसने देश में आर्थिक सुधारों की नींव रखी, उदारीकरण और ग्लोबलाइज़ेशन की शुरुआत की और एक नए भारत को बनाना शुरू किया.
90 का दशक वह दौर था जब न सिर्फ आर्थिक, बल्कि सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक रूप से भी सब कुछ बदलने वाला था.
1990 में वी पी सिंह की सरकार गिर गयी थी. उसके बाद चंद्रशेखर सरकार भी कुछ ही दिन में गिर गयी थी. देश को नया प्रधानमंत्री मिलना था पर 21 मई, 1991 को राजीव गाँधी की हत्या हो गई. देश ग़मगीन था. आर्थिक व्यवस्था इतनी खस्ताहाल थी कि कि भारत डिफ़ॉल्टर होने की कगार पर था.
ऐसे माहौल में पी वी नरसिम्हा राव 21 जून 1991 को भारत के प्रधानमंत्री बने. और उनके वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने 21 जुलाई को अपने पहले बजट में ऐसा कुछ पेश किया जिसने भारत की आर्थिक व्यवस्था बदल कर रख दी.
क्या बड़े बदलाव किए थे वित्तमंत्री मनमोहन ने 1991 के उस ऐतिहासिक बजट में
तेज़ रफ़्तार आर्थिक विकास वाले हमारे आज के इकॉनमी मॉडल की नींव आज से ठीक 31 साल पहले 24 जुलाई 1991 को रखी गयी थी और इस नीवं को रखने वाले थे मनमोहन सिंह जो इससे पहले रिजर्व बैंक के गवर्नर रह चुके थे. वे आगे चलकर 2009 में भारत के प्रधानमंत्री भी बने. इस बजट को भारतीय इतिहास में गेम चेंजर बजट भी कहा जाता है क्योंकि इस बजट ने वैश्विक बाजार के लिए भारत के दरवाजे खोल दिए थे. मनमोहन सिंह ने तीन कैटेगरी में बड़े बदलाव किए - उदारीकरण, वैश्वीकरण और निजीकरण जिसके तहत विदेश व्यापार उदारीकरण, वित्तीय उदारीकरण, कर सुधार और विदेशी निवेश जैसे बदलाव किये गए थे.
आसान शब्दों में कहें तो किसी वस्तु का कितना उत्पादन होगा और उसकी कितनी कीमत होगी, इसका फैसला सरकार नहीं बल्कि बाज़ार पर छोड़ दिया गया. अगर हम बैंको को ही देखें तो उससे 20 साल पहले कांग्रेस की ही इंदिरा गाँधी की सरकार ने निजी बैंको का राष्ट्रीयकरण किया था और उसी पार्टी की सरकार की 1991 में इस बजट के साथ आरबीआई पर सरकार का नियंत्रण कम कर दिया और नए निजी बैंक खोलने के लिए नियम भी आसान कर दिए. साथ ही कर्ज की राशि, जमा और कर्ज राशि पर कितना इंटरेस्ट रेट होगा यह सब निर्णय लेने की छूट बैंको को दी गयी.
दूसरा बड़ा बदलाव कस्टम ड्यूटी को लेकर किया गया जिसके तहत कस्टम ड्यूटी को 220 फीसदी से घटाकर 150 फीसदी किया गया. इम्पोर्ट-एक्सपोर्ट पॉलिसी में भी बड़े बदलाव किए गए. इम्पोर्ट लाइसेंस फीस को घटाया गया और एक्सपोर्ट को बढ़ावा दिया गया. मनमोहन सिंह ने इम्पोर्ट-एक्सपोर्ट पॉलिसी में बदलाव कर भारतीय अर्थव्यवस्था को दुनिया के लिए खोल दिया. इन बदलावों ने भारतीय उद्योगों को सीधे अंतरराष्ट्रीय बाजार से कॉम्पिटिशन के द्वार खोल दिए.
इसके अलावा, इस बजट ने लाइसेंस राज खत्म कर दिया. केंद्र सरकार ने करीब 18 उद्योगों को छोड़कर बाकी सभी के लिए लाइसेंस की अनिवार्यता को खत्म किया.
सिर्फ़ दो हफ़्ते चलने लायक़ था विदेशी मुद्रा भंडार
1980 के दशक तक उत्पादन के हर क्षेत्र में सरकारी नियंत्रण था. सरकार तय करती थी कि किस उद्योग में कितना उत्पादन होगा. विदेशी पूंजी निवेश पर सरकारी नियंत्रण था. आयात के लिए जटिल लाइसेंसिंग सिस्टम था. चीन और पाकिस्तान के साथ हुए युद्ध, शेयर बाज़ार में हो रहे घपले, उत्पादन के क्षेत्र में सरकारी नियंत्रण आदि अर्थव्यवस्था की रफ्तार को थामे हुए थे.
1991 में जब मनमोहन सिंह वित्त मंत्री बने, तब भारत में विदेशी मुद्रा का भंडार केवल 5.80 अरब डॉलर का था. जिससे सिर्फ दो हफ़्तों का निर्यात किया जा सकता था. यह एक गंभीर समस्या थी. 1991 में भारत का भुगतान संतुलन इतना बिगड़ा हुआ था कि भारत को सोना गिरवी रखने की नौबत आ गयी थी. अपने बजट भाषण में आर्थिक सुधारों की अहमियत बताते हुए मनमोहन सिंह ने कहा था, "खोने के लिए देश के पास कोई समय नहीं है, साल दर साल न तो सरकार और न ही अर्थव्यवस्था अपने संसाधनों से परे जाकर चलती रह सकती है. उधार लिए गए पैसे या वक्त पर निर्भर रहने का अब कोई वक़्त नहीं रह गया है.”
इस संकट से उबरने के लिए मनमोहन सिंह ने इस बजट में भारतीय बाज़ार को विदेशी कंपनियों के लिए खोल दिए. इस कदम से सरकार को चंद महीनों में ही पहली सफलता मिली, जब दिसंबर 1991 में भारत सरकार विदेशों में गिरवी रखा सोना छुडवा कर आरबीआई को सौंपने में कामयाब रही.
पीवी नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह की ने उस न्यू इंडिया की नीवं रखी जिसकी अर्थव्यवस्था विदेशी और निजी कंपनियों का स्वागत करती है और जिसमें सोफ्टवेयर कंपनियों का बोलबाला है. नॉएडा, गुरुग्राम, बेंगलुरु और हैदराबाद की चमचमाती ऊँची इमारतों की दुनिया की नीवं इसी बजट में रखी गयी थी. विदेशी पूंजी के इस प्रवाह ने देश को बदलना शुरू किया, लोगों के पास ज्यादा पैसा आया, जीवनशैली बदली. दुनिया के बड़े ब्रांड्स ने भारत में दस्तक दी. नौकरियां और उद्योग बढ़े.
ग्लोबलिजेशन की यह नयी व्यवस्था ‘सर्वाइबल आफ द फिटेस्ट’ की व्यवस्था है जिसमें भारत में बड़े पैमाने पर नए बिलिनेयर पैदा हुए हैं.
लेकिन उस बजट का एक और भी प्रॉमिस था जिस पर आंशिक सफलता ही मिली है. वह प्रॉमिस था टिकल डाउन का. ऐसा माना गया था कि नयी, खुली अर्थव्यवस्था से उत्पन्न होने वाली सम्पत्ति का एक हिस्सा आर्थिक रूप से कमजोर तबके तक पहुँचेगा. भारत में मध्यवर्ग का आकार बढ़ा है, श्रमिक वर्ग तक सरकारी योजनाओं में भुगतान सीधे पहुँचने लगा है. इसके बावजूद तीन चौथाई जनसंख्या पच्चीस हजार प्रतिमाह से कम कमा रही है. 1991 से अब तक जनसंख्या के एक वर्ग को चरम ग़रीबी से बाहर लाया जा सका है लेकिन अभी भी एक बहुत बड़ा वर्ग उसमें है. प्रधानमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल में मनमोहन ने वापिस राज्य की भूमिका को लाने की कोशिश की और कई कल्याणकारी योजनाओं जैसे मनरेगा पर फ़ोकस किया. लेकिन उनके द्वारा भारतीय अर्थव्यवस्था में किया गया ऐतिहासिक बदलाव क्या सबके विकास और बराबरी का लक्ष्य हासिल कर पाएगा?
उस बजट, उससे बनी अर्थव्यवस्था और मनमोहन सिंह की विरासत के कई आकलन हुए हैं. अंतिम आकलन शायद इसी बात पर होगा कि उसने भारत को सबके लिए अवसरों और संसाधनों वाला एक सक्षम देश बनाने में कितना योगदान दिया.