तिरंगा डिज़ाइन करने वाले पिंगली वैंकैया की जीवन-कथा से हमें क्या सीख लेनी चाहिए
भारत की आज़ादी के 75 वर्ष पूरा होने के अवसर पर चल रहे तिरंगा अभियान ने हमें अवसर दिया है कि हम एक लगभग विस्मृत कर दिए गए देशप्रेमी पिंगली वैंकैया को कृतज्ञतापूर्वक याद करने का अवसर दिया है जिन्होंने हमारे तिरंगे को साकार किया है?
यह एक सुखद संयोग है कि भारत का पहला झंडा भी अगस्त में ही फहराया गया था. हालांकि उस झंडे का स्वरूप आज के वर्तमान झंडे से अलग था और हमारे झंडे फहराने की वजहें भी अलग थीं. भारत का पहला झंडा 7 अगस्त 1906 को पारसी बागान चौराहे पर बंगाल विभाजन के प्रतिरोध में सर सुरेन्द्र नाथ बैनर्जी ने झंडा फहराया था.
आज हम झंडा अपनी आज़ादी का उत्सव मनाने के लिए फहराते हैं. आइए जानते और समझते हैं हमारी आज़ादी के सबसे सशक्त प्रतीक झंडे का इतिहास.
1906 में पारसी बागान में फहराया गया झंडा चौकोर था, जिसमें हरी, पीली और लाल/नारंगी पट्टियां थी. सबसे ऊपर की हरी पट्टी में आठ कमल के फूल आठ प्रान्तों के प्रतीक थे. बीच की पट्टी में वंदे मातरम् लिखा हुआ था.
फिर वर्ष 1907 में भीकाजी कामा ने क्रांतिकारियों के साथ पेरिस में लगभग इसी तरह का झंडा फहराया. इसमें पहली बार केसरिया रंग का इस्तेमाल हुआ था. इसके बाद कुछ वर्षों तक भारत की पताका पर कोई ख़ास पहल नहीं हुई.
जैसे-जैसे आज़ादी के लिए संघर्ष तेज़ होता गया वैसे-वैसे भारत को अपना नया झंडा भी मिलता रहा. 1917 में एनी बेसेंट और लोकमान्य तिलक ने एक नए झंडे की परिकल्पना की जिसमे पांच लाल और चार हरे रंग की पट्टियां थीं. और साथ में इस झंडे पर सप्तऋषि को दर्शाते हुए सात तारे और अर्धचन्द्र और सितारे भी थे. बायीं तरफ़ कोने में यूनियन जैक भी था इस झंडे में.
उसके चार साल बाद 1921 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सम्मेलन में आंध्र प्रदेश के पिंगली वेंकैया ने राष्ट्रीय ध्वज की अपनी परिकल्पना को पेश किया जो बहुत हद तक हमारे वर्तमान झंडे का मूल रूप है.
बता दें कि भारत की आजादी की घोषणा से कुछ ही दिन पूर्व 22 जुलाई, 1947 को हुई संविधान सभा की बैठक के दौरान भारतीय ध्वज को उसके वर्तमान स्वरूप में अपनाया गया था. राष्ट्रीय ध्वज आज जिस रूप में दिख रहा है उसके पीछे पिंगली वैंकैया की 5 साल की मेहनत है.
पिंगली वेंकैया का जन्म 2 अगस्त, 1876 को आंध्र प्रदेश के मछलीपट्टम में स्थित एक तेलुगु ब्राह्मण परिवार में हुआ था. उनके पिता का नाम हनुमंतरायुडु और मां का नाम वेंकटरत्नम्मा था. उन्होंने मद्रास (वर्तमान में चेन्नई) में ही स्कूली शिक्षा पूरी की और ग्रेजुएशन की पढ़ाई कैंब्रिज यूनिवर्सिटी से की. वहां से लौटने के बाद रेलवे में एक-दो नौकरियां कीं. फिर वापस पढाई की तरफ लौटे और तब उन्होंने उर्दू और जापानी भाषा की पढ़ाई की.
महज 19 साल की उम्र में पिंगली वेंकैया ब्रिटिश आर्मी में सेना नायक बन गए थे. सेना में रहते दक्षिण अफ्रीका में एंग्लो-बोअर युद्ध के बीच महात्मा गांधी से उनकी मुलाकात हुई. गांधीजी से मिलकर वो इतने प्रभावित हुए कि देश के लिए कुछ कर गुजरने की भावना के साथ हमेशा के लिए भारत लौट आए.
भारत के लिए कुछ भी कर गुजरने वाले का संकल्प रखने वाले पिंगली चाहते थे कि मुल्क का अपना एक राष्ट्र ध्वज होना चाहिए. शायद यह उनके युद्ध में लड़ने का असर था जहां उन्होंने झंडे के लिए सिपाहियों को अपनी जान कुर्बान करते देखा था. अपना यह विचार उन्होंने महात्मा गांधी के साथ शेयर किया जिसपर गांधी ने उन्हें देश का झंडा बनाने का जिम्मा सौंप दिया.
इस ज़िम्मेदारी की गंभीरता को समझते हुए 1916-21 के पांच वर्षों तक उन्होंने 30 देशों के राष्ट्रीय ध्वजों पर गहराई से शोध किया और 1921 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सम्मेलन में राष्ट्रीय ध्वज की अपनी संकल्पना को पेश किया. उसमें दो रंग- लाल और हरा- क्रमश: हिंदू और मुस्लिम दो प्रमुख समुदायों का प्रतिनिधित्व करते थे. बाकी समुदायों के प्रतिनिधित्व के लिए महात्मा गांधी ने उसमें एक और रंग- सफेद- को जोड़ने का सुझाव दिया और इस तरह तीन रंगों वाला तिरंगा अस्तित्व में आया. गांधी ने देश की प्रगति के सूचक के रूप में चरखे को शामिल करने का भी सुझाव दिया. चरखे में चक्र को शामिल करने का सुझाव लाला हंसराज ने दिया था. लेकिन, अभी तक केसरिया रंग नहीं था और न ही अशोक चक्र जो आज के झंडे में विद्यमान है.
दस साल बाद 1931 में कराची में कांग्रेस कमेटी की बैठक में तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में अपनाने का प्रस्ताव पारित हुआ. और तभी उसमें लाल रंग का स्थान केसरिया ने लिया. पर चरखा इस बार भी केंद्र में था. आज का वर्तमान तिरंगा 1931 में बने झंडे से काफी मिलता जुलता है.
22 जुलाई 1947 को यानी स्वतंत्रता मिलने के 23 दिन पहले संविधान सभा में भारत के राष्ट्रीय ध्वज या पताका के सम्बन्ध में प्रस्ताव रखा गया. जवाहरलाल नेहरू ने तिरंगे को भारत के राष्ट्रीय ध्वज के रूप में अपनाने का प्रस्तावना पर मुहर लगाई थी. जिसमें गहरे केसरिया, सफ़ेद और गहरे हरे रंग की बराबर-बराबर की तीन आड़ी पट्टियां होंगी. सफ़ेद पट्टी के केंद्र में चरखे के प्रतीक स्वरूप गहरे नीले रंग का एक चक्र होगा. चक्र की आकृति उस चक्र के समान होगी, जो सारनाथ के अशोक कालीन सिंह स्तूप के शीर्ष भाग पर स्थित है.
राष्ट्रीय ध्वज स्वतंत्रता और स्वतंत्र भारत की भावना का पर्याय बन चूका है. आज़ादी के बाद के वर्षों में कृषि और शिक्षा में रूचि रखने वाले पिंगली वेंकैया ने मछलीपट्टनम में एक संस्था बनायी थी. 1963 में देश को यह निधि देने वाले पिंगली वेंकैया का निधन हो गया था. उनका योगदान और उनकी जीवनकथा लम्बे अरसे तक विस्मृत ही रही. पिछले कुछ सालों में उनके योगदान की और ध्यान गया है. भारतीय डाक विभाग ने 2009 में उनके सम्मान में डाक टिकट जारी किया. और आंध्र प्रदेश के राजनीतिक और सामाजिक जीवन में उनको याद किया जाने लगा. पिछले साल तेलंगाना के मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी ने पिंगली वेंकैया को देश के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार भारत रत्न से सम्मानित करने की अपील की. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लिखे पत्र में उन्होंने कहा कि स्वर्गीय वेंकैया को भारत रत्न से सम्मानित करना 75वें भारतीय स्वतंत्रता दिवस समारोह के अवसर पर प्रत्येक भारतीय के लिए गर्व की बात होगी.
कल भारत सरकार की ओर से पीएम मोदी ने उन पर एक विशेष स्मारक डाक टिकट जारी किया.
पिंगली वैंकैया की जीवन कथा हमें सिखाती है कि हमने अपना इतिहास लिखते हुए, आज़ादी की लड़ाई का इतिहास लिखते हुए, पाठ्यक्रम बनाते हुए और कुल मिलाकर एक लोकतंत्र का निर्माण करते हुए अक्सर अपना ध्यान शीर्ष नेतृत्व और उनके आसपास केंद्रित रखा है. आज़ादी की लड़ाई की लड़ाई जिन स्थानीय स्तरों पर लड़ी गयी, उसके लिए साधारण, अक्सर अज्ञात लोगों ने जिस जिस तरह से योगदान दिया उस पर हमारा ध्यान नहीं गया. शायद इसलिए हम एक देश के रूप में प्रेरणाओं के लिए और एक समाज के रूप में मूल्यों के लिए खुद को खोया-हुआ-सा पाते हैं.
क्या अगली बार पिंगली वैंकैया को हम एक साल बाद ही याद करेंगे?