पहले कचरे का घर हुआ करता था यह गांव, अब गंदगी का नामो निशान नहीं
कुछ महीनों पहले की बात है, गुजरात के गांधीनगर के पास अंबापुर का एक गांव कचरे के ढेर में दबा रहता था। खाली जगहों से लेकर तालाब और पोखरों तक कचरे की दुर्गंध आती रहती थी। कहीं जानवर प्लास्टिक खा रहे होते थे तो कहीं कचरे के ढेर से आग सुलगती नजर आती थी। ऐसा नजारा आम होता था। इस वजह से जहां एक ओर लोगों को तरह-तरह की स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतें उठानी पड़ती थीं तो वहीं दूसरी तरफ पर्यावरण पर इसका बुरा असर पड़ रहा था।
लेकिन सिर्फ कुछ महीनों में ही गांव की यह तस्वीर बदल गई है। अब गांव पहले की तरह हरा भरा हो गया है और गंदगी का तो नामो निशान मिट गया। यह सब संभव हो पाया एक एनजीओ और कुछ स्टूडेंट्स की बदौलत। सभी वॉलंटियर्स ने घर-घर जाकर कचरे को इकट्ठा करने का सिस्टम बनाया और लोगों को अच्छी तरह से जागरूक भी किया। सफाई अभियान चलाने के लिए एनजीओ 'नीड बॉक्स फाउंडेशन' को कुछ पैसों की जरूरत थी जिसे क्राउडफंडिंग के जरिए जुटाया गया। लगभग 1.5 लाख रुपये एकत्र किए गए।
नीड बॉक्स फाउंडेशन के सह संस्थापक किंजल शेठिया कहते हैं, 'इस अभियान से अंबापुर में रहने वाले लोगों के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन हुआ। अब वे कचरे का सही निपटान करना सीख गए हैं और इधर उधर कचरा नहीं बिखेरते हैं। इससे पर्यावरण पर सकारात्मक असर हुआ है।' अंबापुर में पहले प्लास्टिक कचरे की भरमार थी जिसे हटाने के लिए एक मजबूत योजना की जरूरत थी। अंबापुर गांव लगभग एक स्क्वॉयर किलोमीटर तक फैला हुआ है और यहां करीब 4,000 लोग रहते हैं। इस लिहाज से देखें तो लोगों का घनत्व काफी ज्यादा है।
इस अभियान को अंजाम देने वाले नीड बॉक्स की फाउंडेशन की स्थापना बीते साल 2018 में ही मुंबई में हुई थी। इसे किंजल शेठिया और विनीत शेठिया ने शुरू किया था। दोनों भाई बहन हैं। उन्होंने यह सोचकर इसे शुरू किया था कि समाज में कई तरह की बुराइयां हैं जिन्हें खत्म करने की जरूरत है। इसके साथ ही इस अभियान में VAVO नाम के ग्रुप ने भी सहयोग किया। यह LDRP इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलजी एंड रिसर्च इंस्टीट्यूट गांधीनगर के छात्रों का एक ग्रुप है। इस ग्रुप ने पौधरोपण की मुहिम से अपनी शुरुआत की थी।
VAVO के प्रॉजेक्ट लीड दीप भुवा कहते हैं, 'शुरू में हमने सरकार के स्वच्छ भारत अभियान के साथ काम किया था। यह हमारे कॉलेज प्रॉजेक्ट का एक हिस्सा था। कॉलेज खत्म होने के बाद भी हमने इसे आगे जारी रखने का फैसला किया। वावो का गुजराती में मतलब होता है पौधरोपण। हमारे साथ अभी लगभग 20 लोग वॉलंटीयर के तौर पर जुड़े हैं।'
वावो और नीड बॉक्स फाउंडेशन ने मुंबई में एक फोरम डिस्कशन के दौरान साथ काम करने की प्रतिबद्धचा जताई थी। किंजल बताती हैं, 'हमने वावो के काम के बारे में सुन रखा था। वावो ने गुजरात इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन के साथ नरोदा में काम किया था। इससे हम काफी प्रभावित हुए। उन्होंने लगभग 1,500 पेड़ लगाए थे वो भी सिर्फ पांच दिनों में। उन्होंने गुजरात के गांवों को कचरामुक्त बनाने का विचार सामने रखा था जिसे हमने सहर्ष स्वीकार कर लिया।'
अंबापुर गांव में शुरू किए गए अभियान का नाम ब्लूग्रीन ऑपरेशन रखा गया। इसकी शुरुआत बीते फरवरी माह में की गई थी। इसे तीन भागों में विभाजित किया गया। सबसे पहले तो लोगों में जागरूकता फैलाने का काम किया गया और उन्हें साफ-सफाई की अहमियत बतलाई गई। दीप बताते हैं, 'गांव में लगभग 520 परिवार हैं। हमने उनके साथ बैठकर पूरी रणनीति बनाई और उन्हें समझाया कि घर से निकले कचरे को किस तरह से निपटान करना है।'
दूसरे चरण के अंतर्गत हर घर में दो कूड़ेदान का वितरण किया गया। एक कूड़ेदान नीलो रंग का जिसमें सूखा कचरा डाला जाना था और दूसरा हरा कूड़ेदान जिसमें गीला कचरा डालना था। इस तरह से लोगों को घर से ही कचरा अलग करने की ट्रेनिंग दे दी गई। दीप आगे बताते हैं, 'जब कचरा इकट्ठा करने की बारी आई तो हमने घर-घर जाकर कचरा उठाने का काम किया। हमने इसके लिए अंबापुर स्थानीय पंचायत से इलाके के कचरा बीनने वाले लोगों को नियुक्त किया और उनसे हर रोज कचरा उठाने के लिए कहा गया।'
तीसरे और अंतिम चरण के तहत गांव में कुछ चुनिंदा जगहों पर कंपोस्ट गढ्ढे खोदे गए और एक रिसाइक्लर भी लगाया गया। कचरा बीनने वालों को इसी गढ्ढे में कचरा डालने को कहा गया। इस कचरे में जो जरूरत की चीज मिली उसे गांव के लोगों को वापस कर दिया गया। किंजल आगे कहती हैं, 'स्थानीय पंचायत के लोग काफी सहयोग कर रहे थे। उन्होंने उन घरों पर 500 रुपये का जुर्माना लगाने का भी प्रावधान रखा जो कचरे को सही से व्यवस्थित नहीं कर रहे थे। इस तरह से लोगों ने इस अभियान को गंभीरता से लिया।' इस अभियान की बदौलत आज अंबापुर एक स्वच्छ और हरा भरा गांव बन गया है।
अंबापुर गाँव के निवासी सचिन पटेल कहते हैं, 'मैं पिछले 24 सालों से अंबापुर में रह रहा हूं और इस तरह की ख़ुशी कभी नहीं देखी। हर जगह चारों ओर इतना कचरा फेंका गया था कि वह मच्छरों का प्रजनन स्थल बन गया था। मेरे पड़ोस के लोग अक्सर मलेरिया या डेंगू के कारण बीमार पड़ जाते थे। मुझे खुशी है कि अब यह सब गायब हो गया है।'
अंबापुर में एक टेक्सटाइल प्रोसेसिंग यूनिट में काम करने वाले तुषार भैला कहते हैं कि अब झीलों के आसपास कचरा नहीं दिखते हैं। वे बताते हैं कि पहले कई मछली और अन्य जानवर पानी में और उसके आस-पास फेंके गए प्लास्टिक कचरे को खाकर मर जाते थे। यह निश्चित रूप से अब और नहीं होगा क्योंकि पूरा गांव न केवल डस्टबिन में पैदा होने वाले सभी कचरे को फेंक रहा है, बल्कि उन्हें अलग भी कर रहा है।किंजल का विचार है कि ब्लूग्रीन इनिशिएटिव को आसानी से और कम लागत में पूरे भारत के गांवों में लागू किया जा सकता है। बेतरतीब तरीके से कचरे को फेंकने औ उसे जलाने के कारण देश के कई ग्रामीण इलाकों में प्रदूषण बढ़ रहा है। इसे खत्म करने की जरूरत है।
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