इस बार दिवाली में धूम मचाएंगे इको फ्रेंडली दीये मोमबत्तियां और पटाखे
पर्यावरणीय प्रदूषण अभी से एक बार फिर से दिल्ली वासियों को घेर चुका है, वही छत्तीसगढ़, असम, हिमाचल में इक्रो फ्रेंडली दिवाली मनाने की कोशिशें भी जोरों पर हैं। शिमला के बच्चे इको फ्रेंडली मोमबत्तियां बना रहे हैं, तो छत्तीसगढ़ की महिलाएं गोबर के दीये और असम के गांव गनक्कुची के लोग ग्रीन पटाखे।
इको फ्रेंडली दिवाली मनाने की लोगों ने कई तरकीबें ढूंढ निकाली हैं। हिमाचल प्रदेश में एक ओर जहां ऊना इस दिवाली पर भी बारूद के ढेर पर है, पटाखे एवं आतिशबाजी सहित अन्य विस्फोटक पदार्थ टनों के हिसाब से ऊना पहुंच चुके हैं, साथ ही एक करोड़ से ज्यादा के आर्डर दिए जा चुके हैं, वही शिमला में उड़ान स्पेशल स्कूल के दिव्यांग बच्चे दिवाली के लिए मोमबत्तियां बना रहे हैं। स्कूल के प्रिसिंपल संतोष कटोच ने बताया कि इस समय ये मोमबत्तियां शिमला शहर के अलग-अलग स्कूलों के बच्चों तक पहुंचाई जा रही हैं ताकि वे भी इन बच्चों के हुनर को जान सकें। हमें हर साल मोमबत्तियां बनाने के लिए पर्याप्त मात्रा में सामान मिल जाता है और हमारे स्कूल के बच्चे खुशी-खुशी मोमबत्तियां बनाते हैं। टीचर्स भी उन बच्चों की हर तरह से मदद कर रहे हैं।
इस बार गाय के गोबर से बने दीयों की दिवाली पर काफी मांग है। गोबर में घी और इसेंशियल ऑइल डालकर ये दीये बनाया जा रहे हैं। इनमें लेमन ग्रास और मिंट जैसे उत्पादों का भी समिश्रण होता है। रायपुर (छत्तीसगढ़) में गोठानों से निकलने वाले गोबर से तैयार पूजन सामग्री और उत्पाद की मांग दिन ब दिन बढ़ती जा रही है। इनकी मांग दिल्ली से लेकर नागपुर तक है। इस बार यहां की नरवा, गरूवा, घुरवा और बाड़ी विकास योजना के तहत गायों के गोबर से बने दो लाख दीयों के लिए दिल्ली और नागपुर पहला आर्डर मिला है, जिन्हे स्वसहायता समूह की महिलाएं तैयार कर रही हैं।
स्व-सहायता समूह की ये महिलाएं गोबर से बहुरंगी कलाकृतियां, लाल, पीले हरे, सुनहरे दीये, पूजन सामग्री, ओम, श्री स्वास्तिक, छोटे आकार की मूर्तियां, हवन कुंड, अगरबत्ती स्टैण्ड, मोबाइल स्टैण्ड, चाबी छल्ला आदि बना रही हैं। अहमियत के साथ अब गाय के गोबर की डिमांड भी बढ़ ही गई है। समूह की सदस्य हेमीन बाई और ममता चंद्राकर ने बताया कि सुबह से शाम तक सभी महिलाएं इन दिनो दिवाली के लिए इको फ्रेंडली त्योहार के कामों में जुटी हुई हैं। एक दिन में एक महिला 300 तक दीये तैयार कर रही है। इन डिजाइन किये बड़े दीये की कीमत पांच रूपये और छोटे दीये की कीमत दो रुपये रखी गई है।
अब दिवाली कुछ ही दिन दूर है और सुप्रीम कोर्ट की पाबंदियों के कारण हर कोई ग्रीन पटाखे खोज रहा है। कम ही लोगों को ज्ञात होगा कि बरपेटा (असम) के गांव गनक्कुची में पिछले 130 वर्षों से ग्रीन पटाखे बना रहा है। असम सरकार ने इन स्वदेशी पटाखा कारीगरों को कुछ इंफ्रास्ट्रक्चर मुहैया कराया है, फिर भी यहां का सालाना टर्नओवर 1 करोड़ रुपए ही है। इस गांव के लोग 1885 से ही ईको-फ्रेंडली पटाखे बना रहे हैं। उनके पास एक खास फॉर्मूला है, जिसकी मदद से वे ग्रीन पटाखे तैयार करते हैं। ये पटाखे कम आवाज, कम धुआं और कम प्रकाश करते हैं। इन पटाखों में सरकार द्वारा प्रतिबंधित बेरियम नाइट्रेट का इस्तेमाल नहीं किया जाता है। इस बार दिवाली पर यहां के इको फ्रेंडली पटाखों की भारी डिमांड है।
मिट्टी के दीयों के बाजार को चुनौती भी मिल रही है। इस बार दिवाली पर इलेक्ट्रॉनिक आइटम पर भी महंगाई की मार है। इलेक्ट्रॉनिक दीयों की कीमत 350 से 600 रुपए प्रति दर्जन है। मिट्टी के दीयों की अपेक्षा लोगों का रुझान इलेक्ट्रॉनिक लड़ी व दीयों की तरफ अधिक रहता है। पहले घरों में दीपमालाएं सजाई जाती थीं। दीपों से पूरे घर को रोशन किया जाता था। अब इनका स्थान इलेक्ट्रॉनिक आइटम ने भी बहुतायत में ले रखा है।
फिलहाल इस चुनौती से निपटते हुए ग्राहकों को लुभाने के लिए मिट्टी के दीयों के साथ एक्सपेरीमेंट होने लगे हैं। अलग-अलग शेप और मॉडर्न लुक में मिट्टी के दीए तैयार किए जा रहे हैं। इनमें तिकोना शेप, ओम शेप, कार शेप, गणपति शेप, मछली, जहाज शेप आदि उल्लेखनीय हैं। इन डिजायन्ड दीयों की कीमत 100 से लेकर 150 रुपए प्रति दर्जन है।