कौन हैं दादा साहब फाल्के, जिनके नाम पर दिया जाता है देश का सबसे प्रतिष्ठित फिल्म पुरस्कार?
भारत के लोगों को सिनेमाई अनुभव की सुंदरता से परिचित कराने और दुनिया में सबसे बड़ा मनोरंजन उद्योग विकसित का श्रेय दादासाहब फाल्के को जाता है. दादा साहब फाल्के ने ही देश की पहली फुल लेंथ फीचर फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ बनाई थी. जिसके बाद से ही देश में फीचर फिल्मों का चलन लगातार बढ़ने लगा.
इसीलिए भारतीय फिल्म इंडस्ट्री में सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कारों में से एक ‘दादासाहब फाल्के पुरस्कार’ उनके नाम पर शुरू किया गया था, जो भारतीय फिल्म उद्योग के प्रतिष्ठित व्यक्तियों को उनके बहुमूल्य योगदान के लिए दिया जाता है. यह सिनेमा में भारत का सर्वोच्च पुरस्कार है जिसमें विजेता का चयन एक समिति द्वारा किया जाता है जिसमें भारतीय फिल्म उद्योग की प्रतिष्ठित हस्तियां शामिल होती हैं. इस पुरस्कार को पाने वाले नामों में सत्यजीत रे, श्याम बेनेगल और ऋषिकेश मुखर्जी जैसे भारतीय सिनेमा के दिग्गज निर्देशकों के नाम शामिल हैं.
महाराष्ट्र के नासिक में जन्मे दादासाहब फालके का वास्तविक नाम धुंदीराज गोविंद फाल्के था. सिनेमा बनाने का ख़याल उनके मन में तब आया जब साल 1911 में उन्होंने मुंबई के 'अमेरिका-इंडिया थिएटर' में फर्डिनेंड ज़ेका द्वारा निर्मित एक मूक फिल्म "द लाइफ ऑफ क्राइस्ट" देखी. फिल्म देख उनके मन में ख्याल आया कि भारत के महापुरुषों के महान जीवन पर भी फिल्में बनाई जानी चाहिए. अपनी इसी सोच को अमलीजामा पहनाने के लिए वे लंदन गए और वहां करीब 2 महीने रहकर सिनेमा की तकनीक समझी और फिल्म निर्माण का सामान लेकर भारत लौटे.
इसके बाद साल 1912 में उन्होंने ‘फाल्के फिल्म’ नाम की एक कंपनी की शुरुआत की. और साल 1913 में अपनी पहली मूक फिल्म ‘राजा हरिश्चन्द्र’ बनाई. इस फिल्म के निर्माता, निर्देशक, लेखक, कैमरामैन वो खुद ही थे. यही नहीं, इस फिल्म को बनाने में उनका पूरा परिवार शामिल था. उनकी पत्नी ने अभिनेताओं की वेशभूषा, फिल्म के पोस्टर और निर्माण को संभाला. उनके 7 साल के बेटे भालचंद्र फाल्के ने फिल्म में हरिश्चंद्र के बेटे की प्रमुख भूमिका निभाई.
फिल्म बनाने की कुल लागत लगभग 15 हज़ार रुपये की थी जो उस समय के लिए बहुत बड़ी राशि थी.
यह फिल्म पहली बार 3 मई, 1913 को कोरोनेशन सिनेमा, मुंबई में सार्वजनिक रूप से दिखाई गई थी. भारत की पहली फिल्म दर्शकों के सामने थी. एक पौराणिक गाथा होने की वजह से दर्शक फिल्म देखकर वाह-वाह कर उठे.
इसके बाद उन्होंने कई फिल्में बनाई जिनमें ज्यादातर फिल्में उन्होंने खुद ही लिखी और डायरेक्ट की थी. अपने 20 सालों के फिल्मी करियर में दादा साहब फाल्के ने करीब 121 फिल्मों का निर्माण किया जिसमें से 95 से अधिक फिल्में और 26 शॉर्ट फिल्में शामिल हैं.
साल 1932 में उनकी आखिरी मूक फिल्म ‘सेतुबंधन’ बनी थी, जिसे बाद में डब करके आवाज दी गई थी. डबिंग के लिहाज़ से यह एक रचनात्मक और शुरुआती प्रयोग हुआ था. वहीं फाल्के ने अपने करियर में इकलौती बोलती फिल्म बनाई जिसका नाम ‘गंगावतरण’ हैं.
देश को आजादी मिलने के चंद साल पहले 16 फरवरी, 1944 को नासिक में उनका निधन हो हुआ. भारत में फिल्म उद्योग की नींव रखने और उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए भारतीय सिनेमा का सबसे प्रतिष्ठित सम्मान उनके नाम पर दिए जाने की 1969 में शुरु हुई. दादा साहब फाल्के अकादमी दादा साहब फाल्के के नाम पर तीन पुरस्कार देती है: फाल्के रत्न पुरस्कार, फाल्के कल्पतरु पुरस्कार और दादा साहब फाल्के अकादमी पुरस्कार. 1971 में उनके सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया गया.
वहीं, साल 2009 में, मराठी फिल्म ‘हरिश्चंद्राची फैक्ट्री,’ जिसे रंगमंच के दिग्गज परेश मोकाशी द्वारा निर्देशित किया गया था और दादासाहेब फाल्के के 1913 में ‘राजा हरिश्चंद्र’ बनाने के संघर्ष को दर्शाया गया था, को सर्वश्रेष्ठ विदेशी भाषा फिल्म श्रेणी में अकादमी पुरस्कार के लिए भारत की आधिकारिक प्रविष्टि के रूप में चुना गया था.
Edited by Prerna Bhardwaj