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यूपी के गाज़ियाबाद में सामूहिक प्रयासों से शुरू होते शहरी जंगल, कम होता प्रदूषण

उत्तर प्रदेश के गाज़ियाबाद जिले में नगर निगम की बहुत सी ज़मीनें उपयोग ना होने की वजह से कूड़े के ढेर में बदल रही थी. यही हालत बहुत से तालाबों की है जो अतिक्रमण और कचरे के कारण अपनी पहचान खो चुके थे. शहर में बढ़ती इस समस्या से निपटने के लिए स्थानीय लोग, स्वयंसेवक और कुछ स्वयंसेवी संस्थाएं साथ आयीं.

यूपी के गाज़ियाबाद में सामूहिक प्रयासों से शुरू होते शहरी जंगल, कम होता प्रदूषण

Saturday January 21, 2023 , 9 min Read

करीब तीन साल पहले गाज़ियाबाद के प्रताप विहार इलाके में नगर निगम की लगभग 600 वर्ग मीटर की एक जमीन पर कचरा फेंका जाने लगा. एक तरफ मेडिकल कॉलेज और दूसरी तरफ मकानों के बीच की ये ज़मीन देख-रेख के अभाव में कूड़े के ढेर में बदल गयी थी. प्रताप विहार में ही हिंडन नदी के पास एक ऐसी ही खाली ज़मीन जंगली घास और झाड़ियों से भर गयी थी. ऐसी ही कहानी इस शहर की बहुत सी खाली ज़मीनों की है.

लेकिन कुछ लोगों के निरंतर प्रयास से इन दोनों जगहों की तस्वीर अब बदली सी दिखती है. हिंडन नदी के पास की बंजर और जंगली झाड़ियों से भरी जगह को अब साई उपवन का नाम दिया गया है जहां अब लगभग 2000 अलग अलग ऊंचाइयों के पेड़ और पौधे लगे हैं. प्रताप विहार में कचरा फेंकने की जगह बन चुकी जमीन अब हरी भरी हो चुकी है.

इन दोनों जगहों पर 25 से 50 अलग अलग प्रजातियों के पेड़ पौधे लगे हैं. इसी तरह शहर की बहुत सी बेकार ज़मीनें छोटे शहरी जंगलों में तब्दील हो रही हैं.

यह सब पिछले कुछ वर्षों में स्थानीय लोगों, पर्यावरण प्रेमी स्वयंसेवकों एवं स्वयंसेवी संस्थानों (एनजीओ) के साझा प्रयासों से संभव हो पाया है. इनमें से अधिकांश लोगों ने इस काम में बिना कोई वित्तीय लाभ के बावजूद अपना सहयोग दिया है. अमित अग्रवाल ऐसे ही एक स्वयंसेवक हैं. अग्रवाल पेशे से इंजीनियर हैं लेकिन हर हफ्ते ऐसी जगहों पर जाना, पेड़ लगाना, गन्दी जगहों की सफाई करना, उन्हें उपजाऊ बनाना और इनका संरक्षण करना अब इनकी आदत बन चुकी है.

“मैं इस अभियान से लगभग 1.5 साल पहले जुड़ा. इससे मुझे बहुत सीखने को भी मिला, जैसे, कैसे वैज्ञानिक तरीके से शहरी जंगलों को उगाया जा सकता है और कैसे इसकी आयु बढ़ाई जा सकती है. आम तौर पर कई लोग शौक से कुछ वृक्षारोपण करतें हैं और फिर भूल जातें हैं. ऐसे में बहुत से पौधे लंबे समय तक जीवित नहीं रह पाते. हमने बेहतरीन परिणाम के लिए पहले वहां मौजूद गंदगी को हटाया, ज़मीन की उर्वरता को बढ़ाने का काम किया और फिर कई तरह से पौधे लगाए. इन्हें समय से पानी देना, निगरानी करना, जंगली जानवरों से सुरक्षा के लिए बाउंडरी बनाना आदि इसका हिस्सा थे जो स्थानीय लोगों और बहुत से पर्यावरण प्रेमियों के साथ आने से ही संभव हो पाया,” अमित अग्रवाल ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया.

कैसे अलग है यह शहरी जंगल

मोहित रलन, से अर्थ (Say Earth) नाम की स्वयंसेवी संस्थान के संस्थापक हैं. इन्होनें गाज़ियाबाद में शहरी जंगलों में काम करने से पहले दिल्ली-गाज़ियाबाद बार्डर के पास गाजीपुर के कूड़े के पहाड़ (लैंडफिल) के पास ऐसे ही एक शहरी जंगल को स्थापित किया है और ऐसी दूसरी परियोजनाओं में काम किया है. रेलान बतातें हैं कि वो और उनके साथ काम कर रहे लोग ‘मियावाकी जंगल’ के मॉडल से प्रेरणा लेकर काम करते हैं. वह ऐसी जगहों पर अलग अलग ऊंचाई वाले पौधे लगाते हैं जो कम समय में जल्दी बड़े हो जाएँ और जैव विविधता को बढ़ावा दें. लेकिन यह पूरी प्रक्रिया सिर्फ एक वृक्षारोपण अभियान तक सीमित नहीं रहती है.

गाज़ियाबाद का एक शहरी जंगल। तस्वीर-मनीष कुमार

गाज़ियाबाद का एक शहरी जंगल. तस्वीर - मनीष कुमार

हालाँकि यह अच्छा काम है और शहर की गन्दगी की कम करके जैव विविधता को बढ़ावा देता है, लेकिन लोग और संस्थाएं अपनी मर्ज़ी से इस काम के लिए ज़मीन का चयन नहीं कर सकती हैं. ऐसे में स्वयंसेवियों द्वारा नगर निगम की अनुमति ली जाती है और इससे जुडी प्रक्रिया का पालन किया जाता है.

“हम कहीं भी ऐसे शहरी जंगल नहीं बना सकते हैं क्योंकि हो सकता है जिस जमीन पर हम ऐसा करना चाह रहे हैं वो सरकार ने किसी दूसरी परियोजना के लिए आवंटित कर रखी हो. तो, सबसे पहले हमें नगर निगम से ऐसी जगहों की पहचान करनी होती है जहां हम ऐसा कर सके. नगर निगम द्वारा पहचान और स्वीकृति मिलने पर ही हम अपना काम शुरू करते हैं,” रेलान बताते हैं.

चूंकि ये ज़मीनें कचरे और जंगली झाड़ियों से भरी होती हैं, ऐसे में इस कार्य में लगे लोगों का अधिकतर समय यहां की मिट्टी को सुधरने में लग जाता है. देवांश शर्मा, जो एक स्वयंसेवी के रूप में इस काम में जुड़े हैं, बताते हैं कि पहले मशीनों की मदद से ज़मीन में 3 फ़ीट तक खोदा जाता है ताकि उसमें से पत्थर और प्लास्टिक को निकाला जा सके ताकि वो किसी पौधे के विकास में अवरोध न पैदा करे. फिर उस जमीन को जोता जाता है ताकि मिट्टी ढीली रहे. फिर पेड़ों को लगाने के लिए छोटे गड्ढे किए जाते हैं जिसमें वृक्षारोपण करने से पहले कुछ भूसा, देसी गाय का गोबर एवं कुछ और प्राकृतिक पौष्टिक तत्व डाले जाते हैं. भूसे के कारण पानी अधिक समय तक पेड़ों के जड़ों के पास रहता है जिससे उनकी पानी पर निर्भरता कम हो जाती है. इसके कारण पानी की जरूरत इन पेड़ों को हर दिन की अपेक्षा हर तीन दिन में लगती है.

“इसके अलावा हम इस चीज का भी ध्यान रखतें हैं कि सिर्फ देशी किस्म के पौधों के प्रजातियों का ही वृक्षारोपण हो. इसके अलावा यह भी ध्यान देना होता है कि बड़े पेड़ जैसे पीपल आदि 10% से अधिक न लगाए जाये क्योंकि बड़े होकर यह ज्यादा जगह लेंगे और दूसरे पौधों के विकास में अवरोध पैदा कर सकते हैं. अतः हमने कुछ बड़े पेड़, मध्यम ऊंचाई के पेड़ और छोटे आकार के पेड़ों के मिश्रण लगाए हैं. लगभग 25-50 प्रजातियों के पेड़ लगाया जाते हैं ताकि विविधता बनी रहे. ऐसे अलग अलग ऊंचाई के पेड़ों के चयन के कारण जल्दी ही यह शहरी वन हरे भरे हो जाते हैं,” शर्मा ने बताया.

सही प्रजातियों का चयन

शलिनी प्रवीण इसी शहर में रहने वाली एक शोध फेलो हैं, उन्होंने जीबी पंत विश्वविद्यालय से बागबानी में स्नातकोत्तर की पढ़ाई भी की है और पिछले कुछ दशकों में दक्षिण भारत में शहरी जंगलों के विकास पर काम किया है. तीन साल पहले शालिनी गाज़ियाबाद आईं और तब से इस अभियान में अपनी भूमिका निभाने लगीं. अपने तकनीकी ज्ञान और इस क्षेत्र में अनुभव से उन्होंने स्थानीय जलवायु के अनुसार पेड़ पौधों की प्रजातियों के चयन में मदद की.

“दक्षिण भारत और गाज़ियाबाद की जलवायु में अच्छा खासा अंतर है. दक्षिण भारत मे हर तरह के पेड़ लगाना आसान है लेकिन गाज़ियाबाद में हवा गरम और शुष्क रहती है. इसके कारण यहां बड़े पत्तों के पेड़ जल्दी संभव नहीं क्योंकि यहां पत्तों से पानी का निकास अधिक होता है. कई जगह लोग सुंदरता बनाए रखने के लिए भी ऐसे पौधे लगाते हैं जो स्थानीय जलवायु के विपरीत होते हैं. हमनें गाज़ियाबाद के शहरी जंगलों के लिए ऐसे पौधे लगाए हैं जो स्थानीय जलवायु के अनुकूल हों. जो कम पानी में भी अच्छी तरह उग सकें और जिनकी देखभाल करने की जरूरत भी कम हो,” शलिनी ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया.

शलिनी ने बताया कि उन्होंने “ऑर्निथो आर्बोरियल” किस्म के पौधों, जो फल दे, फूल दे और जिनमे लकड़ी के मात्रा भी हो, को लगाने पर ज़ोर दिया. “ऐसे विविधता वाले पेड़ों के होने से अलग अलग तरह के पक्षी ऐसी जगहों पर आते हैं और शहरी जंगलों के विकास से इन बेकार पड़े स्थानों की ज़मीनों की उर्वरता भी बढ़ती है. ऐसे जंगल इन इलाकों में प्रदूषण से लड़ने में भी कारगर सिद्ध होतें हैं,” शालिनी ने बताया.

अक्सर ऐसे जंगलों में अलग अलग प्रजातियों के पौधे लगाएँ जातें हैं. तस्वीर - मनीष कुमार

अक्सर ऐसे जंगलों में अलग अलग प्रजातियों के पौधे लगाएँ जातें हैं. तस्वीर - मनीष कुमार

गाज़ियाबाद नगर निगम के बागबानी विभाग प्रभारी अनुज कुमार सिंह ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया, “हमनें पिछले कुछ वर्षों में ऐसे बहुत से लोगों को सामने आकर पर्यावरण के लिए काम करते देखा है, जो एक अच्छी बात है. हम नगर निगम की तरफ से इन लोगों को उन जगहों के बारे में बताते हैं जहां वृक्षारोपण किया जा सके और इसके लिए सरकारी अनुमति भी प्रदान करते हैं. इसके लिए निगम से कुछ पैसे नहीं दिये जाते.”

हालांकि नगर निगम जरूरत पड़ने पर मशीन, कचरा संग्रह आदि में इनकी मदद करता आया है. इन सारी परियोजनाओं का खर्च अक्सर निजी कंपनियों के कारपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (सीएसआर) के माध्यम से होता है जबकि कई बार बहुत से स्वयंसेवी अपने खुद के खर्च पर भी ऐसे परियोजनाओं को सफल बनाते आ रहें हैं.

तालाबों का कायाकल्प

गाज़ियाबाद में लोगों के सहयोग से केवल शहरी जंगल ही नहीं, यहां के विकृत हो चुके तालाबों की भी हालत सुधर रही है. गाज़ियाबाद में वेव सिटि के पास एक तालाब बढ़ते अतिक्रमण और कचरे के कारण अपनी प्राकृतिक पहचान लगभग खो चुका था. इसके आस पास शहरी कचरा जमा होने लगा था. शहर के बहुत से दूसरे तालाबों की कहानी भी कुछ ऐसी ही है. लेकिन अब यह तालाब हंसों के भ्रमण के लिए एक अच्छी जगह बन चूका है और इसके आसपास और किनारो पर किसान खेती करते दिखते हैं.

“पहले इस तालाब में आसपास का बहुत सा गंदा पानी सीधे जाता था और किनारों पर भी बहुत गंदगी थी. नगर निगम से बात कर मैंने और मेरे साथ आए कुछ पर्यावरण प्रेमियों ने यह ठानी के इसका कायापलट करना है. एक, दो साल के निरंतर प्रयास से हमनें इसकी तस्वीर बदली है. हमनें पहले इसमे गंदे पानी के मिलने से रोकने के लिए इस दूषित पानी के ट्रीटमेंट के सुविधा कराई ताकि तालाब का पानी अच्छा हो. फिर हमनें आसपास की सफाई कर आसपास के लोगों को इस अभियान का हिस्सा बनाया. अब यहां कुछ किसान हैं जो इन ज़मीनों पर सब्जी उगाते हैं और इसका इस्तेमाल करते हैं. बदले में इस तालाब की देख-रेख करते हैं,” रामवीर तंवर ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया.

गाज़ियाबाद के नयाफल तालाब की पहले और बाद की तस्वीर। तस्वीर-रामवीर तंवर

गाज़ियाबाद के नयाफल तालाब की पहले और बाद की तस्वीर. तस्वीर - रामवीर तंवर

तंवर ने अपनी इंजीनियर की नौकरी छोड़कर इन सभी परियोजनाओं पर कुछ साल पहले काम करना शुरू किया. वह अभी तक गाज़ियाबाद में 16 तालाबों पर काम कर चुके हैं, जबकि कुछ तालाबों पर काम अभी भी चल रहा है. तंवर का कहना है कि अब इस तालाब में लगभग 200 हंस किसी भी दिन देखे जा सकते हैं.

“हमनें पक्षियों के लिए तालाब के बीच में कुछ ख़ास और ठोस जगह बनाई जिसके कारण अब बहुत से पक्षी अब इसे अपना घर बना रहे हैं. वहीं तालाबों के अच्छे स्वास्थ्य से अब मछलियों की संख्या भी बढ़ी है जिसके कारण यहां मत्स्य खेती करना संभव हो पाया है,” तंवर ने बताया.

सुयश शर्मा जिन्होनें ऐसे कामों में बतौर स्वयंसेवक काम किया है, बताते हैं कि इन सब कामों में बहुत से काम खुद लोगों को साथ आकर करने पड़ते हैं अन्यथा बहुत सी ऐसी परियोजनाएँ देखरेख और रख-रखाव के अभाव में असफल हो जाती हैं. “पहले मैं पर्यावरण संबंधी कुछ कामों को खुद से करता था लेकिन फिर मैं इस शहर में एक साथ काम कर रहे ऐसे समूह से मिला जिसके कारण अब हम लोग बड़े स्तर के काम कर पा रहे हैं और बहुत अच्छे परिणाम सामने ला पा रहें हैं,” शर्मा बताते हैं.

(यह लेख मूलत: Mongabay पर प्रकाशित हुआ है.)

बैनर तस्वीर: गाज़ियाबाद के प्रताप विहार के शहरी जंगले मे भ्रमण करते एक स्थानीय निवासी की तस्वीर - मनीष कुमार