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वी. वी. गिरी: जब एक मजदूर नेता बना देश का राष्ट्रपति

मज़दूर आंदोलनों से होते हुए केंद्र की कैबिनेट तक पहुंचने वाले, देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर निर्दलीय चुने जाने वाले वी. वी. गिरी (Varahgiri Venkata Giri) देश के चौथे राष्ट्रपति थे.

वी. वी. गिरी: जब एक मजदूर नेता बना देश का राष्ट्रपति

Wednesday August 24, 2022 , 6 min Read

19वीं शताब्दी के उतरार्ध में जब आधुनिक उद्योग धीरे-धीरे शुरू हो रहे थे और रेलवे, पोस्ट ऑफिस, कोयला खनन, चाय बगान और टेलीग्राफ जैसे सेवाओं का विकास हो रहा था, उस समय आधुनिक मजदूर वर्ग का उदय भी हो रहा था. अंग्रेज ये सारी सुविधायें भारत लेकर आ रहे थे, और भारतीय मजदूर बनाए जा रहे थे. 


पर जैसे-जैसे आम भारतीयों में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ गुस्सा बढ़ रहा था, वैसे-वैसे मजदूरों में भी समाजवादी और साम्यवादी विचारों के प्रसार के कारण बड़ी तेजी से राजनीतिक चेतना का विकास हो रहा था. अंग्रेजों की मार और ऊपर से मालिकों की दोहरी मार! नतीज़तन, बंगाल और बम्बई में रेलवे मजदूर, जूट मीलों, नगरपालिकाओं, कागज मिलों आदि में काम करने वाले मजदूर अपने अधिकारों के लिए लिए पूरे देश भर में प्रदर्शन कर रह थे. 

रेलवे मज़दूर आंदोलन और मज़दूर संगठनों का उदय 

1927 में रेलवे कंपनियों ने अपनी लागत में कटौती करने के लिए  रेलवे कर्मचारियों की छंटनी करने का एक सर्वसम्मत निर्णय लिया. इस निर्णय के जवाब में, फरवरी 1927 में बंगाल-नागपुर रेलवे के श्रमिकों द्वारा खड़गपुर में और मार्च 1928 में लिलूह में हड़ताल का आह्वान किया गया. यह एक ऐतिहासिक हड़ताल थी. 1928 की इस हड़ताल का नेतृत्व करने वालों में से एक वी.वी. गिरी भी थे. 


वी वी गिरि ने बंगाल-नागपुर रेलवे एसोसिएशन की भी स्थापना की थी. सन् 1926 में वी. वी. गिरि पहली बार अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस के अध्यक्ष बने. वे ऑल इंडिया रेलवे मैन फेडरेशन के संस्थापक सदस्यों में से एक थे और एक दशक से ज्यादा समय तक वो इस संस्था के महासचिव रहे. साल 1929 में गिरि और नारायण मलहार जोशी ने मिलकर द इंडियन ट्रेड यूनियन फेडरेशन (ITUF) बनाई. बाद में 1939 में ITUF का AITUC में विलय हो गया और गिरि 1942 में दूसरी बार इसके अध्यक्ष बनाए गए. 

राजनैतिक जीवन 

1947 में जब देश आजाद हुआ तो 1951 तक वह सीलोन में भारत के पहले उच्चायुक्त बने. साल 1951 में जब आम चुनाव हुए तो वह मद्रास में पथपट्टनम सीट से पहली लोकसभा के लिए चुने गए. जवाहरलाल नेहरु की कैबिनेट में उन्हें श्रम मंत्री बनाया गया. 


बतौर मंत्री उनकी नीतियों ने इंडस्ट्री के कई विवादों का निपटारा किया. हालांकि, ट्रेड यूनियनों, बैंक कर्मचारियों के वेतन को कम करने के सरकार के फैसले पर मतभेदों के कारण उन्हें अगस्त 1954 में सरकार से इस्तीफा देना पड़ा. 


1957 में गिरी चुनाव हार गए तो उन्हें उत्तर प्रदेश का राज्यपाल बनाया गया. 1960 में केरल के राज्यपाल बने और 1965-67 तक कर्नाटक के राजपाल रहे. 


1967 में वे देश के तीसरे उपराष्ट्रपति चुने गए. और डॉ.जाकिर हुसैन देश के राष्ट्रपति. 


जब क़ानून बदलना पड़ा वी.वी. गिरी को राष्ट्रपति बनाने के लिए

3 मई साल 1969, तारीख थी. राष्ट्रपति बनने के महज दो साल बाद डॉ. जाकिर हुसैन निधन हो गया. ऐसा पहली बार हुआ कि वर्तमान राष्ट्रपति का कार्यकाल समाप्त होने से पहले ही राष्ट्रपति का पद खाली हो जाए. देश के संविधान में इस परिस्थिति के लिए कोई प्रावधान नहीं था कि राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति की अचानक मौत या इस्तीफे से पद खाली होने पर सरकार के प्रमुख का दायित्व कौन निभाएगा?


इस संकट से निपटने के लिए सदन ने करीब तीन हफ्ते बाद, 28 मई 1969 को प्रेसिडेंट (डिस्चार्ज ऑफ फंक्शंस) ऐक्ट, 1969 बनाया.  गिरी को देश का कार्यवाहक राष्ट्रपति बना दिया गया. 

अंतरात्मा की आवाज़ और एक निर्दलीय राष्ट्रपति 

देश की प्रधानमंत्री थीं इंदिरा गांधी.  इंदिरा गांधी ने बैकों का राष्ट्रीयकरण करने का फैसला लिया और राष्ट्रपति वी. वी. गिरी ने इस अध्यादेश पर दस्तखत कर दिए. कहते हैं बैंकों के राष्ट्रीयकरण के अध्यादेश पर उन्होंने अपने इस्तीफे के एक दिन पहले ही दस्तखत किए थे.


बैकों के राष्ट्रीयकरण का श्रेय इंदिरा गांधी को जाता है लेकिन इस बात से बहुत फ़र्क़ पड़ा होगा कि सरकार के उस आदेश को वैद्यता देने के लिए वी. वी. गिरी जैसा राष्ट्रपति था जिसका भारत के मज़दूरों के साथ काम करने का, उन्हें संगठित करने का एक लम्बा अनुभव रहा था.


इसके बाद एक अजीबोगरीब स्थिति पैदा हो गई. देश में राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति दोनों पद खाली होने वाले थे. सवाल यह भी था कि वी.वी. गिरि राष्ट्रपति पद से इस्तीफा देंगे या उपराष्ट्रपति पद या दोनों से. उन्होंने दोनों ही पदों से इस्तीफा दे दिया और देश में पहली बार भारत के तत्कालीन चीफ जस्टिस एम. हिदायतुल्लाह ने कार्यकारी राष्ट्रपति का पद संभाला.


मालूम हो ये कांग्रेस के इतिहास का वो दौर था, जब कांग्रेस में ओल्ड गार्ड वर्सेस यंग गार्ड की लड़ाई चल रही थी. ओल्ड गार्ड, जिसे सिंडिकेट कहा जाता था, का नेतृत्व कर रहे थे के. कामराज. वहीं यंग गार्ड का नेतृत्व था इंदिरा के हाथ में जो प्रधानमंत्री थीं.


राष्ट्रपति चुनाव होना था. इस चुनाव में सिंडिकेट दल नीलम संजीव रेड्डी के समर्थन में थे और इंदिरा गांधी ने वी. वी. गिरि को समर्थन देने का फैसला कर लिया था. लेकिन इस फैसले को सार्वजनिक नहीं किया था. इस बीच वी.वी. गिरी ने बतौर निर्दलीय उम्मीदवार राष्ट्रपति चुनाव लड़ने का मन बना लिया. इंदिरा गांधी ने चुनाव में पार्टी के विधायकों और सांसदों से अंतरात्मा की आवाज सुनकर वोट देने को कहा. अंतरात्मा की आवाज़ ने एक मजदूर नेता को देश का राष्ट्रपति के पद पर आसीन कर दिया. लेकिन, वी.वी. गिरि की जीत से कांग्रेस पार्टी अध्यक्ष और इंदिरा गांधी के बीच खाई और गहरी हो गई. 


नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस अध्यक्ष निजलिंगप्पा ने इंदिरा गांधी को कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से बर्खास्त कर दिया. इसके बाद इंदिरा ने एक नई पार्टी का ऐलान किया जिसका नाम रखा गया कांग्रेस (रेक्वेजिशन). अध्यक्षता जगजीवन राम की रही. बाद में इंदिरा वाली कांग्रेस को ही कांग्रेस रूलिंग और इमरजेंसी के बाद कांग्रेस इंदिरा के नाम से भी जाना गया. 1971 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी की कांग्रेस (आर) को 352 सीटें मिलीं, जबकि कांग्रेस (ओ) को महज 16 सीटें. और इस तरह से इंदिरा गांधी की कांग्रेस को असली कांग्रेस की वैधता हासिल हो गई.


1969 राष्ट्रपति चुनावों में जीत के साथ 24 अगस्त 1969 को वी. वी. गिरी देश के चौथे राष्ट्रपति बने और 5 साल का कार्यकाल पूरा कर 24 अगस्त 1974 तक पद पर रहे.


24 जून, 1980 को वी.वी. गिरी का निधन हुआ.