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कहानी सीक्रेट रेडियो सर्विस चलाने वाली लड़की की, जिसने अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया

भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान जब अंग्रेजों ने गांधीजी को गिरफ्तार कर लिया और प्रेस पर प्रतिबंध लगा दिया, एक 22 साल की लड़की ने सीक्रेट रेडियो स्‍टेशन के जरिए आंदोलन की अलख जलाए रखी.

कहानी सीक्रेट रेडियो सर्विस चलाने वाली लड़की की, जिसने अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया

Friday August 12, 2022 , 7 min Read

“ये है कांग्रेस रेडियो, मैं 42.34 मीटर हर्ट्ज पर हिंदुस्‍तान की किसी जगह से बोल रही हूं.”

नवंबर की उस सुबह रेडियो पर दोबारा ये शब्‍द दोहराए जा रहे थे. मुंबई की गिरगांव चौपाटी के सामने से पुलिस की नीले रंग की विलायती लॉरी दाएं घूमी. लॉरी के अंदर अंग्रेज डिप्‍टी इंस्‍पेक्‍टर फर्ग्‍यूसन और सीआईडी अफसर कोकजे बैठा हुआ था. दोनों अपने रेडियो ट्रांसमीटर से रेडियो तरंगें पकड़ने की कोशिश कर रहे थे.  

पिछले तीन महीनों से इस रेडियो ने अंग्रेज सरकार की नाक में दम कर रखा था. रोज फिरंगियों के अत्‍याचार की खबरें चलाता, हिंदुस्‍तानी जनता को आंदोलन की पल-पल की खबर देता. गांधीजी जेल में थे, लेकिन इस रेडियो पर उनका संदेश प्रसारित होता.

रेडियो पर जो महिला आती थी, वो कहती कि मैं हिंदुस्‍तान के किसी हिस्‍से से बोल रही हूं, लेकिन जाने क्‍यूं फर्ग्‍यूसन को यकीन था कि ये औरत यहीं कहीं मुंबई में है. उस दिन भारतीय विद्या भवन और मणि भवन के सामने से गुजरते हुए अचानक ट्रांसमीटर ने कुछ तरंगें पकड़ीं, लेकिन तुरंत ही सिगनल गायब हो गया. वेव्‍स आ-जा रही थीं. फर्ग्‍यूसन को यकीन था कि ये रेडियो इसी इलाके से चलाया जा रहा है,  लेकिन ठीक-ठीक पता नहीं था कि कहां से.       

कहानी सीक्रेट रेडियो की

वो 1942 का साल था. रोज दो बार सीक्रेट रेडियो पर बुलेटिन प्रसारित होता. रेडियो पर उस महिला की आवाज सुनते ही देश के कोने-कोने में लोग अपने ट्रांजिस्‍टर से कान लगाकर बैठ जाते. अंग्रेज दूसरे विश्‍व युद्ध में व्‍यस्‍त थे और यहां हिंदुस्‍तानियों ने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ मरो या मारो की लड़ाई छेड़ दी थी. हमें अंग्रेज हुकूमत से पूरी तरह आजादी चाहिए थी.

8 अगस्‍त को मुंबई के गोवालिया टैंक मैदान से महात्‍मा गांधी ने “करो या मरो” का नारा दिया और भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत की. 12 अगस्‍त को गांधी को गिरफ्तार कर लिया गया. ब्रिटिश सरकार ने प्रेस पर पाबंदी लगा दी. अंग्रेज इस आंदोलन से इतने बौखलाए हुए थे कि उन्‍होंने चप्‍पे-चप्‍पे में आंदोलनकारियों की धर-पकड़ के लिए पुलिस का जाल बिछा दिया था. एक जगह से दूसरी जगह सूचना पहुंचाना असंभव हो गया.

usha mehta the youngest freedom fighter who started a secret radio service

ऐसे में एक सीक्रेट रेडियो स्‍टेशन देशवासियों को आंदोलन की खबरें पहुंचाने और आंदोलन की अलख जलाए रखने का काम कर रहा था. इस रेडियो स्‍टेशन का ठिकाना रोज बदल जाता. अंग्रेजों को इसका ठिकाना मालूम करने और इससे जुड़े लोगों को गिरफ्तार करने में चार महीने लग गए.

देश की अवाम अपने ट्रांजिस्‍टर से कान सटाए इस सीक्रेट रेडियो में रोज जिस महिला की आवाज सुनती थी, वो एक 22 साल की लड़की थी. नाम था ऊषा मेहता. गांधी की अनुयायी, उनके आंदोलन की मजबूत सिपहसालार.

जब 8 साल की ऊषा ने पहली बार गांधी को देखा

25 मार्च, 1920 को गुजरात के सूरत के पास एक छोटे से गांव सरस में ऊषा का जन्‍म हुआ. पिता अंग्रेज सरकार में जज थे. ये 1928 की बात है. एक दिन सरस गांव में गांधी की एक सभा का आयोजन हुआ. पूरा गांव उनका भाषण सुनने आया. उस भीड़ में आठ बरस की ऊषा भी थी. उस नन्‍ही बच्‍ची पर गांधी के शब्‍दों का इतना असर पड़ा कि उस दिन घर पहुंचकर उसने ऐलान कर दिया कि वो आजादी के आंदोलन में हिस्‍सा लेगी. उसी दौरान गांव में एक छोटा सा कैंप भी लगा था, जहां लोगों को हथकरघे से सूत कानना और कपड़ा बुनाना सिखाया जा रहा था. नन्‍ही ऊषा भी उस कैंप में पहुंच गई. वहां उसने सूत कातना और कपड़ा बुनना सीखा.

उसी साल जॉन साइमन के नेतृत्‍व वाला साइमन कमीशन हिंदुस्‍तान आया था और भारतीय उसका विरोध कर रहे थे. गांव में भी साइमन कमीशन के खिलाफ विरोध प्रदर्शन हुआ और 8 साल की ऊषा ने उस प्रदर्शन में हिस्‍सा लिया. 12 मार्च 1930 को जब गांधी ने दांडी यात्रा शुरू की और नमक सत्‍याग्रह की शुरुआत हुई, तब ऊषा सिर्फ 10 साल की थी. वो समंदर का पानी भरकर घर लाती और उससे घर पर नमक बनाती.

इन नन्‍ही बच्‍ची के जज्‍बे का चर्चा चारों ओर होने लगा. लोग उसे नन्‍ही क्रांतिकारी कहकर बुलाने लगे. 17 बरस की उम्र से ही ऊषा ने गांधी का अनुसरण करते हुए अपना सूत खुद कातना और अपनी साड़ी खुद बुनना शुरू कर दिया था. उसके बाद से उन्‍होंने आजीवन हाथ काती खादी की साड़ी ही पहनी.    

usha mehta the youngest freedom fighter who started a secret radio service

10 बरस की ऊषा

ऊषा को जीवन की राह मिल गई थी. हालांकि पिता बेटी के इस रास्‍ते से सहमत नहीं थे. वो खुद अंग्रेज सरकार के नौकर थे. लेकिन कुछ ही सालों के भीतर जब ऊषा थोड़ी बड़ी हुईं तो उन्‍होंने पिता के खिलाफ विद्रोह कर दिया और पूरी तरह गांधी के आंदोलन में शामिल हो गईं. 1930 में पिता के रिटायरमेंट के साथ उन पर दबाव भी नहीं रहा. ऊषा अब आजाद थी.

स्‍कूल की पढ़ाई खत्‍म करने के बाद जब उन्‍हें आगे पढ़ने के लिए मुंबई भेजा गया तो मानो उन्‍हीं पूरी आजादी मिल गई. 1939 में उन्‍होंने मुंबई के विल्‍सन कॉलेज से फिलॉसफी में ग्रेजुएशन किया. पिता चाहते थे कि वह लॉ करें, लेकिन वही समय था, जब गांधी का आंदोलन जोर पकड़ रहा था. भारत छोड़ो आंदोलन की भूमिका बन रही थी. ऊषा ने लॉ कॉलेज जाने से इनकार कर दिया और पिता से कहा, “इस वक्‍त देश को मेरी जरूरत है. पढ़ाई तो बाद में भी हो सकती है.”

सीक्रेट रेडियो स्‍टेशन और चार साल की जेल

गांधी की गिरफ्तारी के बाद ऊषा ने सीक्रेट रेडियो स्‍टेशन की शुरुआत की, नाम था कांग्रेस रेडियो. इस रेडियो में वो रोज हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में आंदोलन की खबरें पढ़तीं. अंग्रेजों की नजर भी इस रेडियो पर थी, लेकिन उन्‍हें इसका ठिकाना नहीं मालूम था क्‍योंकि ठिकाना रोज बदल जाता था. इस चक्‍कर में अंग्रेजों ने कई कांग्रेसियों के घर छापे मारे, लेकिन जब तक अंग्रेज पहुंचते, पूरा साजो-सामान वहां से रफा-दफा हो चुका होता था.

\ऊषा रोज रेडियो पर बतातीं कि आज किन-किन लोगों की गिरफ्तारी हुई, अंग्रेजों ने कहां लाठियां, गोलियां चलाईं, कितने लोग घायल हुए और कितनों की मौत हो गई. हर रोज अपने बुलेटिन की शुरुआत वो “हिंदुस्‍तान हमारा” गीत के साथ करतीं और अंत “वंदे मातरम” के साथ. चार महीने तक इस रेडियो को चलाए रखने में नेहरू, मौलाना आजाद और सरदार वल्‍लभभाई पटेल ने उनकी काफी मदद की थी.

12 नवंबर की सुबह जब ऊषा गिरगांव से उस दिन का बुलेटिन पढ़ रही थीं, इंस्‍पेक्‍टर फर्ग्‍यूसन के रेडियो ट्रांसमीटर ने तरंगें पकड़ लीं. अंग्रेजों को रेडियो स्‍टेशन का ठिकाना मिल गया और ऊषा को गिरफ्तार कर लिया गया.

पांच हफ्ते तक स्‍पेशल कोर्ट में मुकदमा चला और ऊषा को चार साल की सजा हुई.अंग्रेजों ने उन्‍हें हर तरह का लालच देने की कोशिश की. पढ़ने के लिए विदेश भेजने और हमेशा के लिए वहां बसाने का लालच दिया. शर्त एक ही थी कि वह दूसरे अंडरग्राउंड कांग्रेसियों का पता बता दें. अंग्रेजों ने सब करके देख लिया, लेकिन फौलाद की ऊषा को डिगा नहीं सके. चार साल बाद 1946 में उन्‍हें जेल से रिहा किया गया.

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अगले साल अगस्‍त में देश आजाद हो गया. ऊषा 26 साल की थीं. उन्‍होंने अपनी जो पढ़ाई बीच में छोड़ दी थी, आजाद भारत में दोबारा शुरू की. बॉम्‍बे यूनिवर्सिटी से गांधीवादी विचार परंपरा में पीएचडी की और विल्‍सन कॉलेज में पॉलिटिकल साइंस पढ़ाने लगीं. रिटायरमेंट के बाद कुछ समय तक वह मणि भवन की अध्‍यक्ष भी रहीं.

ऊषा मेहता की विरासत

हर साल की तरह उस साल भी 8 अगस्‍त को मुंबई के अगस्‍त क्रांति मैदान में भारत छोड़ो आंदोलन का सालाना जलसा था. 80 बरस की ऊषा की उस दिन तबीयत थोड़ी नासाज थी. उन्‍हें तेज बुखार था, लेकिन वो आयोजन में गईं. लौटीं तो तबीयत और बिगड़ गई. तीन दिन बाद 11 अगस्‍त, 2000 को नींद में ही उनकी मृत्‍यु हो गई.

अपने जीवन के आखिरी सालों में दिए कई इंटरव्‍यू में उन्‍होंने देश के मौजूदा हालात को लेकर अपनी चिंता जाहिर की थी. एक इंटरव्‍यू में उन्‍होंने कहा, “ये तो वो आजादी नहीं है, जिसके लिए हमने कुर्बानी दी. आज अमीर और गरीब की खाई इतनी गहरी हो गई है. इस भारत का सपना तो हमने नहीं देखा था.”