लोलुप नजरों से बचने के लिए चेहरे पर टैटू बनवाती हैं कुंआरी आदिवासी लड़कियां
भारत की आदिवासी लड़कियां दस साल की उम्र से पहले माथे, फिर पूरे बदन पर जड़ा के तेल में दीये की राख मिलाकर नीडिल से रंगीन टैटू (गोदना) बनाती हैं। एक वक़्त में आदिवासी लड़कियां शिकारी राजाओं की नजर से बचने के लिए अपने चेहरे को टैटू से खुरदरा कर लेती थीं। उनके लिए टैटू एक्यूपंचर और मोक्ष का उपाय भी है।
उत्तर प्रदेश का सोनभद्र हो या ओडिशा का कालाहांडी, पूरी दुनिया में सिर्फ भारत की आदिवासी स्त्रियों में गोदना गुदवाने की प्रथा है, जिसे आजकल टैटू भी कहा जाता है। एक जमाने में आदिवासी लड़कियों के चेहरे पर इसलिए टैटू बनाए जाते थे ताकि उनकी सुंदरता युवावस्था में उन्हे असुरक्षित न कर दे। बदसूरती, चेहरे का खुरदरापन उनके लिए शिकारी राजाओं की लोलुप निगाहों से सुरक्षा कवच जैसा माना गया।
जंगली जानवरों से बचने के लिए वे नुकीले कंगन पहनती हैं। अब समय के साथ उनकी पुरानी मान्यताएं टूट रही हैं। अब वे टैटू (बोना) के श्रृंगार करने लगी हैं। वे आज भी टैटू को सिर्फ शहरी फैशन भर नहीं, अपनी गुलामी की जंजीरे तोड़ने का प्रतीक भी मानती हैं। जापानी परंपरा के अनुसार, स्वस्थ रहने के लिए टैटू (गोदना) आदिवासी एक्यूपंचर चिकित्सा पद्धति भी है।
सोनभद्र (उ.प्र.) के आठ ब्लॉक में गोंड़, धुरिया, नायक, ओझा, पठारी, राजगोंड़, खरवार, खैरवार, परहिया, बैगा, पंखा, पनिका, अगरिया, चेरो, भुईया, भुनिया, सहरिया जैसे आदिवासी समुदाय निवास करते हैं। दक्षिणी ओडिशा के दो जिलों रायगढ़ा और कलाहांड़ी में 60 से अधिक आदिवासी जातियां रहती हैं। वहां के हर समुदाय की ज्यादातर स्त्रियां पूरे शरीर पर अलग-अलग तरह के टैटू ओढ़े रहती हैं।
विश्व में आदिवासी टैटू (गोदना) की कला के अर्वाचीन प्रमाण ईसा से 1300 साल पहले मिस्र में, 300 वर्ष ईसा पूर्व साइबेरिया के कब्रिस्तान में पाए गए हैं। ऐडमिरैस्टी द्वीप में रहने वालों, फिजी निवासियों, भारत के गोंड और टोडो, ल्यू क्यू द्वीप के बाशिन्दों और अन्य कई जातियों में रंगीन गोदना गुदवाने की प्रथा केवल स्त्रियों तक सीमित है। ऑस्ट्रेलिया में कुंआरी आदिवासी लड़कियां पीठ पर क्षतचिन्ह बनवाती हैं।
उड़िया आदिवासी युवती ज्योति अब अपने बदन के गोदने को टैटू का श्रृंगार मानती हैं। उनके समुदाय में मान्यता है कि मौत के बाद वे गर्व से अपने टैटू यमदूत को दिखाती हैं। पहले उनके समुदाय की स्त्रियां गोदने से चेहरे को बदसूरत बनाकर अपनी इज्जत बचाती थीं।
खास बात ये है कि ओडिशा में सिर्फ कंद समुदाय के लोग ही गांव की बूढ़ी महिलाओं से अपनी शान के प्रतीक टैटू बनवाते हैं। अब तो आदिवासी युवा और बुजुर्ग भी पुरखों की तरह अपने बदन पर खूब टैटू बनवाने लगे हैं। लालटेन अथवा दीये के धुएं की राख जड़ा के तेल में मिलाकर टैटू का रंग बनाया जाता है। फिर नीडिल से उसे शरीर पर गोदा जाता है। उनके समुदाय में दस साल की बच्चियां तक अपने चेहरे के अलावा हाथों और सीने पर टैटू बनवाती हैं।
भारत के आदिवासियों में टैटू (गोदना) के प्रचलन से एक सौ साल पुराना वाकया भी जुड़ा हुआ है। सवर्ण उन्हे सताने, मंदिरों में जाने से रोकने लगे, अलग कुएं से पानी लेने को विवश करने लगे तो इन यातनाओं से आत्मरक्षा के लिए उन्होंने अपने बदन पर राम-नाम के टैटू बनवा लिए। ऐसे आदिवासियों का रामनामी समुदाय बन गया। सोनभद्र के दुद्धी ब्लॉक के 62 वर्षीय सहरिया आदिवासी औरास तो 50 वर्ष से टैटू बनवा रहे हैं।
बैगा जनजाति की लड़कियां तो आठ साल की उम्र से ही टैटू बनवाने लगती हैं। झुर्रीदार चेहरे वाली 58 वर्षीय कुसुमा बताती हैं कि गोदना (टैटू) उनकी जनजाति की स्त्रियों का धार्मिक श्रृंगार है। इससे उन्हे अपने समुदाय में अलग तरह का सम्मान दिया जाता है। उनके समुदाय की स्त्रियां बरसात के बाद जाड़ा-गर्मियों में पहले माथे पर, फिर धीरे-धीरे पूरे शरीर पर टैटू बनवाती हैं।