मुंबई के वारली आर्टिस्ट्स और उनकी संस्कृति व कला को हाइलाइट करती संवाद खदीचा प्रदर्शनी
वारली पेंटिंग वारली जनजाति द्वारा बनाई जाने वाली आदिवासी कला (ट्राइबल आर्ट) है जो ज्यामितीय (जियोमेट्रिक) आकृतियों का उपयोग करके इस समुदाय की दिन-प्रतिदिन की गतिविधियों को दर्शाती है. यह कलात्मक शैली पारंपरिक ज्ञान का एक रूप है और पीढ़ियों से संरक्षित सांस्कृतिक बौद्धिक संपदा है. दरावली गांव की वारली जनजाति की युवा लड़कियों के एक समूह द्वारा बनाई गई यह कलाकृति शहरी विकास के असमान विस्तार को बयां करती है जिसके परिणामस्वरूप वारली आदिवासी समुदाय हाशिए पर पहुंच गया है.
26 साल की रेशमा तारे बताती हैं, "मेरा जन्म दरावली नाम के एक खूबसूरत गाँव के वारली समुदाय में हुआ, लेकिन अब मैं अपने आस-पास ऐसे अस्थिर बदलाव देख रही हूँ जो हमारे भविष्य के लिए अच्छे नहीं हैं. मेरे समुदाय की आजीविका धान के खेतों और नाले में केकड़ों को पकड़ने पर निर्भर है. लेकिन प्रदूषण की वजह से, अब खाड़ियों में केकड़ों की संख्या कम होती जा रही है और घटते प्राकृतिक संसाधनों पर लंबे समय तक हम गुजर-बसर नहीं कर सकते. हममें से थोड़े शिक्षित कई लोगों को अब नौकरी की तलाश करनी पड़ रही है, जबकि बहुत से लोग दिहाड़ी मजदूर बनने पर मजबूर हैं. मेरा गहराई से मानना है कि हमारे इलाके के पास गार्बेज डंप्स को हटा दिया जाना चाहिए. जब लोग हमारी खाड़ियों में और हमारे घरों के पास कचरा फेंकते हैं तो एक समुदाय के रूप में हमें जो उसकी कीमत चुकानी पड़ती है, उससे लोगों को अवगत कराया जाना चाहिए. एक कला स्नातक और स्थानीय निवासी के रूप में, मुझे प्रदर्शनी अच्छी लगी और विशेष रूप से यह तथ्य कि मेरी तस्वीर इसमें प्रदर्शित की गई है. मुझे उम्मीद है कि इस प्रदर्शनी से उन लोगों को यह बात अच्छी तरह समझ में आएगी कि इन सभी वर्षों के दौरान हमने किस तरह से अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष किया है."
संवाद खदीचा प्रदर्शनी के हिस्से के रूप में, मुंबई के संजय गांधी नेशनल पार्क के एक वारली कलाकार, 27 वर्षीय दिनेश बाराप ने न सिर्फ इस आर्ट फॉर्म को प्रमोट करने के लिए बल्कि शहरी कचरा कुप्रबंधन की वजह से हुए पर्यावरणीय क्षरण के कारण वारली समुदाय के अनगिनत लोगों को होने वाली मुश्किलों को दर्शाने वाली एक वारली आर्ट वर्कशॉप का आयोजन किया.
दिनेश बताते हैं, "मैं एक वारली आर्टिस्ट हूं और मेरा जन्म और पालन-पोषण संजय गांधी नेशनल पार्क में हुआ है. मेरी दादी ने मुझे वारली कला और प्रकृति से प्रेरणा लेकर प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करना सिखाया. जब भी मेरे समुदाय में कोई शादी होती, वह प्रसिद्ध वारली आकृति, देवचौक या गॉड्स स्क्वायर बना लेती थीं. उनसे मैंने सीखा कि कैसे रंग तैयार करना है और कला के माध्यम से अपने आसपास की दुनिया को कैसे बयां करना है. आज मैंने रुइया कॉलेज, माटुंगा से ग्रेजुएशन पूरा किया है. मुझे जेजे स्कूल ऑफ आर्ट्स में पढ़ने का अवसर खोना पड़ा क्योंकि मेरे परिवार में कोई कमाने वाला नहीं था. हालांकि, एक कलाकार के तौर पर मैंने अपने क्षितिज का विस्तार करना जारी रखा है और आज मैं गोंड आर्ट और मधुबनी में भी पारंगत हूं. मैं किताबें पढ़ता हूं, अपने स्किल्स को बढ़ाने की कोशिश करता हूं, ऑर्डर लेता हूं और "Go Haalu Haalu" नामक वेबसाइट और इंस्टाग्राम के लिए काम भी करता हूं."
प्रकृति माँ और एक दूसरे के साथ हमारे परस्पर संबंधों से शहरी नागरिक बहुत कुछ सीख सकते हैं. हम एक-दूसरे के प्रति बेहद दयालु हैं, हम एक-दूसरे को समझते हैं. हम अपनी समस्याओं को हल करने के लिए एक परिवार के रूप में मिलकर काम करते हैं. लोगों को हमारे जीवन और संघर्षों को लेकर जागरूक करने के लिए यह शानदार वर्कशॉप है. यहां लोग देख सकते हैं कि मछली पकड़ने पर निर्भर समुदाय खाड़ियों में प्रदूषण की वजह से कितनी बुरी तरह तरह प्रभावित हुए हैं.
Edited by रविकांत पारीक