1200 साल पहले जापान में तो नहीं जन्मा था रिसायक्लिंग का विचार?
शायद ही ऐसा कोई दिन जाता हो जिसमें ‘सस्टेनेबल’ (sustainable) शब्द हमसे ना टकराता हो. लगभग हर चीज़- खाना, कपड़ा, पेपर, बोतल इटीसी. सस्टेनेबिलिटी के नाम पे बेचा जा रहा है या हम सोच समझ कर उसे अपनी जीवन शैली में शामिल कर रहे हैं. ‘गो ग्रीन’, ‘विगानिस्म’, ‘ईको-फ्रेंडली’ ‘सस्टेनेबल ट्रैवलिंग’ ‘प्लांट-बेस्ड’ या ऐसे कई ईको-क्रेडेंशिअल वाले जुमले हम लोगों से, दोस्तों से या इन्टरनेट पर पढ़ते-सुनते रहते हैं. जो ठीक है.
कोका-कोला, जो हर साल 200,000 प्लास्टिक बोतलों का हर मिनट उत्पादन करती है, जब अपने उनके रीसायक्लेबल (recyclable) होने के लिए विडियो रिलीज़ करती है. आप में से बहुतों को वह विज्ञापन याद होगा. उसे देखकर भी कई लोगों ने हर दिन उत्पन्न हो रहे औद्योगिक और दूसरी तरह के कचरे (waste) और उसे रीसायकल करने की जरुरत को और ध्यान से देखने लगे थे.
1200 साल पहले जापान में रिसायक्लिंग
चीज़ों को रीसायकल करके उसको दुबारा प्रयोग में लाये जाने का एक पुराना इतिहास रहा है. और यह इतिहास कोई 10-20 साल पुराना नहीं है, बल्कि कई हजारों साल पुराना है.
9वीं शताब्दी में ही जापान के लोगों ने पेपर को रीसायकल करना शुरू कर दिया था. टूटी हुई चीज़ों को जोड़कर दुबारा इस्तेमाल में लाने की एक झलक हमें वहां के किन्त्सुगी (Kintsugi) आर्ट में दिखती है.
वहां के लोग किसी टूटी हुई वस्तु जैसे सिरेमिक बाउल अगर टूट गयी है तो उसकी टूटी दरारों में सोना भरकर उसे जोड़कर दोबारा इस्तेमाल करते हैं. उनका मानना है की कोई भी परफेक्ट नहीं होता, चीज़ों के टूटने-बनने में ही उनकी संभावना निहित होती है. टूटना बनाने की प्रकिया में महज एक कदम है और ये भी कि टूटना अंत नहीं होता. अंततः किसी भी चीज़ की सुन्दरता उसको देखने में होती है, ना कि उस चीज़ में. इसी फलसफे से प्रभावित उनकी वाबी-साबी (Wabi Sabi) प्रैक्टिस भी है.
वर्ल्ड वार के दौरान रिसायक्लिंग
चीज़ों को दुबारा इस्तेमाल करने की जरुरत सबसे अधिक तब पड़ती है जब हम किसी प्रकार के साधन की कमी से जूझ रहे होते हैं. और जब पूरा देश एक युद्ध संकट से गुज़र रहा हो, तो अपने सीमित संसाधनों को नए नए तरीके से इस्तेमाल करना कितना जरूरी रहा होगा. पहले और दुसरे विश्व युद्ध के दौरान, अमेरिका और ब्रिटेन के पास जब संसाधनों की कमी होने लगी तो इन दोनों देशों ने अपने अपने लोगों से अपने रोज़मर्रा के ‘waste’ में से टीन, रबर, स्टील, पेपर और कुछ अन्य चीज़ों को भी सावधानीपूर्वक अलग तरह से इक्कठा करके रखने की अपील करते हुए पोस्टर्स और न्यूज़रील जारी किये थे. उदाहरण के लिए, अमेरिकी सरकार ने वहां के लोगों से अपने मांसाहारी खाने से बचे हुए ‘फैट’ (चर्बी) को अपने लोकल मीट-डीलर्स के पास जमा करने को कहा ताकि उसे रीसायकल करके बुलेट्स या विस्फ़ोटक इंधन की तरह इस्तेमाल किया जा सके.
धीरे-धीरे लोगों को रीसाइक्लिंग का महत्त्व समझ आने लगा और इस समझदारी ने उनके रीसायकल करने की वजहें भी बदली. अब लोग सिर्फ पैसे बचाने के बजाय चीज़ों की अधिकतम उपयोगिता के नज़रिए से रीसायकल करने में दिलचस्पी दिखाने लगे. यही चीज़ों के वैकल्पिक प्रयोग के चलन की भी वज़ह बना. मतलब, एक चीज़ को कई दूसरी चीज़ों की जगह भी उपयोग किया जा सकता है. जैसे एक इंसान अपनी एक ज़िन्दगी में कई तरह की भूमिकाएं निभाता है, वैसे ही एक चीज़ कई तरह से उपयोग में लायी जा सकती है.
आर्ट और पेंटिंग में रिसायक्लिंग
पहले विश्वयुद्ध के बाद, आम लोगों के साथ-साथ, उस समय के पेंटर और आर्टिस्ट्स ने भी रीसाइक्लिंग को अपने तरीके से परिभाषित करते हुए ‘Collage’ स्टाइल ऑफ़ आर्ट को गढ़ा. इस आर्ट फॉर्म में आप मौजूद और इस्तेमाल की गयी चीज़ें, मसलन; टिकट, मैगजींस, रेस्त्रां का बिल, फोटोग्राफ्स, पोस्टर्स आदि को सजा कर एक नया और यूनिक आर्ट-पीस को तैयार करते हैं. ऐसा करते हए उस वक़्त के सबसे ज़्यादा प्रयोग करने वाले आर्टिस्ट्स ने ‘फॉर्मल’ स्टाइल ऑफ़ पेंटिंग को चुनौती देते हुए एक ऐसा परिदृश्य तैयार किया जिसने कई और तरह के आर्ट फॉर्म्स को जन्म दिया, ‘पॉप’-आर्ट’ उनमे से एक है. पाब्लो पिकासो और जॉर्ज ब्राक इस परंपरा के आर्टिस्ट्स हैं.
आज जब हम रिसायक्लिंग पर बात करते हैं तो शायद यह सब हमारे दिमाग़ में नहीं आता. हम अक्सर इसको Waste Management या पर्यावरण से ही जोड़कर देखते हैं. तो अगली बात जब कोई आपको सेस्टेनेबल होने के लिये कहे तो उसे जापान से लेकर वर्ल्ड वार तक की कहानी सुना दीजिएगा.