जानिए क्या होती है फ्यूचर एंड ऑप्शन ट्रेडिंग, इसी की वजह से अडानी एंटरप्राइजेज गिरा था 35% तक
पिछले दिनों अडानी एंटरप्राइजेज के शेयरों में करीब 35 फीसदी की गिरावट देखने को मिली थी. लोग ये सोच रहे थे कि कोई भी शेयर अधिकतम 20 फीसदी तक ही गिर सकता है, तो ये कैसे हुआ. उसकी वजह थी फ्यूचर एंड ऑप्शन ट्रेडिंग.
जब बात शेयर बाजार (Share Market) की आती है तो अधिकतर लोगों को लगता है कि इसके तहत सिर्फ शेयर खरीदना और उसकी कीमत बढ़ने पर बेचना होता है. कुछ लोग शॉर्ट सेलिंग (Short Selling) के कॉन्सेप्ट को भी जानते हैं, जिसके तहत पहले शेयरों को बेचा जाता है और फिर बाद में खरीदा जाता है. खैर, ये तो मामूली चीजें हैं. शेयर बाजार में नॉर्मल शेयर जितनी खरीद-फरोख्त होती है, उससे कई गुना ज्यादा ट्रांजेक्शन फ्यूचर एंड ऑप्शन (Future and Option) में होती हैं. अब सवाल ये है कि आखिर फ्यूचर एंड ऑप्शन होता क्या है (What is Future and Option Trading) और इसमें लोग ज्यादा खरीद-फरोख्त क्यों करते हैं? यहां एक दिलचस्प बात ये है कि पिछले दिनों गौतम अडानी ग्रुप (Gautam Adani Group) की कंपनी अडानी एंटरप्राइजेज (Adani Enterprises) में 35 फीसदी तक की गिरावट फ्यूचर ट्रेडिंग की वजह से ही आई थी.
पहले जानिए कैसे गिरे अडानी एंटरप्राइजेज के शेयर
पिछले दिनों अडानी एंटरप्राइजेज के शेयरों में करीब 35 फीसदी की गिरावट देखने को मिली थी. बहुत सारे लोग ये सोच रहे थे कि बाजार में तो कोई भी शेयर अधिकतम 20 फीसदी तक ही गिर सकता है, उसके बाद उसमें सर्किट लग जाता है और बाकी दिन के लिए उसमें ट्रेडिंग बंद हो जाती है. हालांकि, अडानी एंटरप्राइजेज के साथ ऐसा नहीं हुआ, क्योंकि वह उसके फ्यूचर एंड ऑप्शन भी हैं. फ्यूचर एंड ऑप्शन में शेयर में बार-बार सर्किट तो लगता है लेकिन 15 मिनट बाद ही दोबारा ट्रेडिंग होने लगती है. यही वजह है कि अडानी एंटरप्राइजेज 35 फीसदी तक गिरा भी और 30 फीसदी तक चढ़ा भी. अडानी ग्रुप की अडानी पोर्ट्स भी फ्यूचर्स में है, जिसकी वजह से उसमें भी सर्किट लगने के कुछ ही देर बाद कारोबार दोबारा शुरू हो जाता है.
फ्यूचर-ऑप्शन जानने के लिए डेरिवेटिव्स समझना है जरूरी
शेयर बाजार में फ्यूचर और ऑप्शन एक तरह के डेरिवेटिव्स होते हैं. इन्हें डेरिवेटिव्स इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह किसी न किसी शेयर से ही निकले हुए होते हैं यानी डिराइव होते हैं. इसे एक उदाहरण से समझते हैं. आप में से अधिकतर लोगों ने कहीं न कहीं किसी प्रोडक्ट या सेवा के लिए टोकन लिया होगा. जैसे अगर आप किसी रेस्टोरेंट में जाकर समोसे ऑर्डर करें और आपका बिल 50 रुपये का बने. वहां पर आपको एक प्लास्टिक का टोकन मिल जाएगा, जिसे समोसे वाले काउंटर पर देकर आप समोसे ले सकते हैं. यहां प्लास्टिक का वो टोकन डेरिवेटिव है, जिसकी खुद की कीमत महज चंद रुपये होगी, लेकिन यहां आप उससे 50 रुपये के समोसे खरीद सकते हैं.
पहले जानिए क्या होती है फ्यूचर ट्रेडिंग?
फ्यूचर ट्रेडिंग में आप किसी शेयर के डेरिवेटिव्स के जरिए भविष्य की कोई ट्रेडिंग फाइनल करते हैं. भविष्य में आप किसी शेयर को खरीदने या बेचने, किसी भी तरह की ट्रांजेक्शन कर सकते हैं. आइए एक उदाहरण से समझते हैं कि ऐसा कैसे होता है. मान लीजिए आप XYZ शेयर के फ्यूचर खरीदते हैं. अगर XYZ शेयर की कीमत अभी 100 रुपये है तो उसका फ्यूचर आप करीब 10-20 रुपये में ही खरीद सकते हैं. हालांकि, यहां एक बात ध्यान देनी होगी आपको कम से कम एक लॉट खरीदना होगा. यह लॉट कितने शेयरों का होगा, ये स्टॉक एक्सचेंज की तरफ से अलग-अलग शेयरों के लिए अलग-अलग हो सकता है.
मान लेते हैं कि ये लॉट 1000 शेयरों का होगा, तो आपके पूरे लॉट की कीमत करीब 1 लाख रुपये हो जाती है. हालांकि, जब आप इसे खरीदते हैं तो आपको 10-20 फीसदी यानी 10-20 हजार रुपये ही देने होंगे. फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट 3 तरह के होते हैं. एक होता है इसी महीने का, दूसरा होता है अगले महीने का और तीसरा होता है अगले के भी अगले महीने का. अब आप फ्यूचर्स का मतलब समझ गए होंगे. इसे फ्यूचर्स इसीलिए कहा जाता है, क्योंकि इसके तहत फ्यूचर की कीमत पर डील की जाती है.
अब एक बार आसान भाषा में समझते हैं. मान लीजिए आप एक किसान हैं और आलू उगाते हैं. हर साल जब आपके आलू की फसल बाजार में जाती है तो उसकी कीमत 5-6 रुपये किलो के हिसाब से मिलती है. इसी बीच कोई आपको चिप्स बनाने वाली कंपनी का कोई मैनेजर मिलता है. आप उससे डील करते हैं कि फ्यूचर यानी भविष्य की एक तय तारीख को आप उसे आलू 10 रुपये प्रति किलो के हिसाब से बेचेंगे. ये सुनकर मैनेजर भी खुश होता है, क्योंकि उसे डर है कि इस बार आलू का उत्पादन कम रह सकता है, जिससे उसे आलू 15 रुपये किलो या उससे भी महंगे मिलेंगे. ऐसे में भविष्य की एक तारीख पर डिलीवरी करने को लेकर उस मैनेजर और किसान के बीच एक डील होगी. यही फ्यूचर ट्रेडिंग है. अब जब डिलीवरी की तारीख आएगी तो बाजार में आलू की कीमत भले ही 10 रुपये हो या 15 रुपये या 5 रुपये, दोनों के बीच जो डील हुई है उसे पूरा करना जरूरी होगा. यह डील एक थर्ड पार्टी की मौजूदगी होती है, ऐसे में अगर कोई भी पार्टी डील से भागती है तो थर्ड पार्टी की जिम्मेदारी होगी कि वह दूसरे के नुकसान की भरपाई करे. शेयर बाजार के मामले में यह थर्ड पार्टी स्टॉक एक्सचेंज होते हैं.
शेयर बाजार के फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट में ये जरूरी नहीं है कि आप उसे डील की एक्सपायरी तक अपने पास रखें. आप चाहे तो उसे बीच में ही किसी दूसरे को बेच भी सकते हैं. यानी अगर एक्सपायरी डेट से पहले ही आपकी फ्यूचर डील के तहत शेयर की कीमत बहुत ज्यादा बढ़ जाती है और आपको लगता है कि इसे बेच देना चाहिए तो आप उसे बेचकर मुनाफा कमा सकते हैं. मान लीजिए आपने XYZ कंपनी के 1000 शेयर 100 रुपये के हिसाब से खरीदे होते और 110 रुपये पर बेच देते. यानी आपको 10 हजार रुपये का मुनाफा होता, लेकिन इतने सारे शेयरों को खरीदने के लिए आपको 1 लाख रुपये खर्च करने होते. वहीं दूसरी ओर फ्यूचर्स में आपको सिर्फ 10-20 फीसदी रकम ही देनी होती है. ऐसे में आप 1 लाख के शेयर सिर्फ 20 हजार रुपये में ही खरीद लेते और आपको उसी से 10 हजार रुपये का फायदा हो जाता. यही वजह है कि लोग फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट की तरफ आकर्षित होते हैं. इसके तहत फ्यूचर्स खरीदे भी जा सकते हैं और उन्हें बेचा भी जा सकता है यानी शॉर्ट सेलिंग भी की जा सकती है.
रिस्क भी है बहुत ज्यादा
हमने ये तो देखा कि फ्यूचर्स के तहत सिर्फ 20 हजार लगाकर 1 लाख रुपये के शेयर खरीद लिए. शेयर सिर्फ 10 रुपये महंगा हुआ और उसे बेचकर 10 हजार का मुनाफा कमा लिया, लेकिन नुकसान का क्या. अगर शेयर की कीमत घटेगी तो नुकसान भी तो होगा. मान लीजिए कि 100 रुपये का शेयर 50 रुपये का हो गया. ऐसे में आपको 1000 शेयरों पर 50 हजार रुपये का नुकसान होगा, जबकि आपने वो फ्यूचर्स तो सिर्फ 20 हजार रुपये में खरीदे थे. ऐसे में आपको अपनी जेब से अतिरिक्त 30 हजार रुपये चुकाने होंगे और डील सेटल करनी होगी. यानी फ्यूचर्स में तगड़ा मुनाफा है तो भारी-भरकम रिस्क भी है.
ऑप्शन ट्रेडिंग क्या होती है
अगर आपने फ्यूचर ट्रेडिंग को अच्छे से समझ लिया है तो आपके लिए ऑप्शन ट्रेडिंग समझना बहुत आसान है. जिस तरह फ्यूचर ट्रेडिंग में मामूली प्रीमियम देकर शेयरों का पूरा लॉट खरीदा या बेचा जाता है, वैसा ही ऑप्शन ट्रेडिंग में भी होता है. हालांकि, इसमें एक बड़ा फायदा ये होता है कि आपका नुकसान सिर्फ उतना ही होता है, जितना आपने प्रीमियम दिया होता है. यानी अगर आपने 20 हजार रुपये लगाकर 1 लाख रुपये की कीमत वाले शेयरों का ऑप्शन लिया है तो भले ही शेयर की कीमत 0 हो जाए, आपका नुकसान सिर्फ 20 हजार रुपये का ही होगा. यही वह है कि इसे ऑप्शन कहा जाता है, क्योंकि यहां आपको एक ऑप्शन यानी विकल्प मिलता है कि आप डील से बाहर निकल सकते हैं.
ऑप्शन ट्रेडिंग में भले ही आपका नुकसान सीमित है, लेकिन अगर बात फायदे की करें तो आपका फायदा अनलिमिटेड है. यानी शेयर जितना चढ़ता जाएगा आपका फायदा उतना ही अधिक होगा. हालांकि, आपका जो प्रीमियम है वह वापस नहीं मिलेगा तो वो हमेशा ही आपका नुकसान होगा. मान लीजिए आपने XYZ शेयर का ऑप्शन कॉन्ट्रैक्ट लिया और उसके लिए 20 हजार रुपये चुकाए. वहीं ये शेयर 100 रुपये से बढ़कर 110 रुपये हुआ तो आपने उसे बेच दिया. यानी 1000 शेयरों पर आपको 10 हजार रुपये का मुनाफा होगा, जबकि जो 20 हजार रुपये आपने प्रीमियम के तौर पर दिए वह वापस नहीं मिलेंगे. इस तरह देखा जाए तो इसमें आपको 10 हजार रुपये का नुकसान ही है. ऑप्शन ट्रेडिंग में लोग तभी पैसा लगाते हैं जब वह पूरी तरह से आश्वस्त होते हैं कि शेयर किस दिशा में जाएगा.