मेहरबाई और दोराबजी टाटा ने कैसे बचाया था टाटा स्टील को डूबने से, क्या है जुबली डायमंड की कहानी
दोराबजी टाटा और उनकी पत्नी मेहरबाई टाटा की बदौलत Tata Steel न केवल बची बल्कि मुनाफे में भी आई.
टाटा स्टील (Tata Steel)...टाटा ग्रुप (Tata Group) की कंपनियों में एक अहम नाम. टाटा स्टील आज के दौर में 1,10,467.54 करोड़ रुपये मार्केट कैप वाली कंपनी है. लेकिन साल 1924 में हालात ऐसे नहीं थे. उस दौर में टाटा स्टील की हालत काफी खस्ता थी, इतनी ज्यादा कि कंपनी अपने कर्मचारियों को सैलरी का भुगतान भी नहीं कर पा रही थी. लेकिन दोराबजी टाटा (Sir Dorabji Tata) और उनकी पत्नी मेहरबाई टाटा (Meherbai Tata) की बदौलत कंपनी न केवल बची बल्कि मुनाफे में भी आई. इसमें अहम रोल निभाया एक बेशकीमती हीरे ने जिसका नाम है 'जुबली डायमंड' (Jubilee Diamond).
किसी भी हीरे का इतना अच्छा इस्तेमाल शायद ही हुआ हो, जितना अच्छा इस्तेमाल 'जुबली डायमंड' का हुआ. जुबली डायमंड, मानव इतिहास का शायद अकेला ऐसा हीरा रहा, जिसने एक स्टील कंपनी को डूबने से बचाने में मदद की, कई जिंदगियों की रक्षा की और फिर कैंसर हॉस्पिटल तैयार करने में भी भूमिका निभाई. साल 1895 में दक्षिण अफ्रीका की Jagersfontein खान से निकला जुबली डायमंड दुनिया का छठां सबसे बड़ा हीरा कहा जाता है. 1896 में जुबली डायमंड को पॉलिशिंग के लिए एम्सटर्डम भेजा गया और 1897 में इसे क्वीन विक्टोरिया की डायमंड जुबली के नाम पर नाम दिया गया 'जुबली डायमंड'.
टाटा के पास कैसे आया था जुबली डायमंड
जुबली डायमंड का स्वामित्व रखने वाले लंदन के तीन मर्चेंट्स के कंसोर्शियम का सोचना था कि इस हीरे की बेस्ट जगह ब्रिटिश महारानी का शाही मुकुट है. लेकिन उस हीरे की किस्मत में तो किसी और के गले की खूबसूरती बढ़ाना लिखा था. साल 1900 में जुबली डायमंड को पेरिस एक्सपोजीशन में डिस्प्ले किया गया. यह एक ग्लोबल फेयर था, जिसका प्रमुख आकर्षण जुबली डायमंड था. उस वक्त जमशेदजी टाटा के बेटे दोराबजी टाटा ब्रिटेन में ही थे. दोराबजी अपनी पत्नी मेहरबाई से बेहद प्यार करते थे. दोनों की शादी 1898 के वैलेंटाइन्स डे पर हुई थी. सर दोराबजी ने जब जुबली डायमंड को देखा तो उन्होंने इसे मेहरबाई को गिफ्ट करने का फैसला कर लिया. फिर क्या था, दोराबजी ने इसे लंदन के मर्चेंट्स से 1 लाख पाउंड में खरीद लिया.
245.35 कैरेट का हीरा
मेहरबाई टाटा ने जुबली डायमंड मिलने के बाद इसे एक प्लेटिनम के छल्ले में डाला और अपने गले में पहनने लगीं. वह, रॉयल कोर्ट्स में अपनी विजिट और सार्वजनिक फंक्शंस के दौरान यानी केवल खास मौकों पर ही इसे पहनती थीं. मेहरबाई टाटा के पास जो जुबली डायमंड था, वह 245.35 कैरेट का था. इसका आकार कोहिनूर हीरे से दोगुना है.
फिर जब टाटा स्टील पर छाया संकट
जमशेदजी टाटा के बेटे सर दोराबजी टाटा, 1904 में टाटा समूह के चेयरमैन बने और 1932 तक इस पद पर रहे. वाकया प्रथम विश्व युद्ध के बाद का है. जमशेदपुर में बेस्ड टाटा स्टील अपने शुरुआती दिनों में थी और उसने विस्तार की ओर कदम बढ़ाया ही था. लेकिन यह विस्तार कंपनी के लिए मुश्किलें लेकर आया. टाटा स्टील को प्राइस इन्फ्लेशन से लेकर लेबर इश्यूज तक का सामना करना पड़ रहा था. वहीं जापान में भूकंप के बाद मांग में कमी आ रही थी. 1923 आते-आते कैश और लिक्विडिटी की कमी का संकट खड़ा हो गया. साल 1924 में जमशेदपुर में एक बुरी खबर के साथ एक टेलिग्राम पहुंचा. बुरी खबर थी कि टाटा स्टील के इंप्लॉइज को वेतन देने के लिए पर्याप्त पैसा नहीं है. इसके बाद सवाल उठने लगे कि क्या कंपनी चल पाएगी या फिर बंद हो जाएगी?
फिर जब पति-पत्नी ने गिरवी रख दी सारी दौलत
टाटा स्टील पर जब संकट आया तो तो सर दोराबजी टाटा से रहा न गया. उन्होंने और उनकी पत्नी मेहरबाई टाटा ने अपनी सारी निजी संपत्ति इंपीरियल बैंक को गिरवी रख दी. उस संपत्ति की कीमत उस वक्त 1 करोड़ रुपये थी, जो उस दौर में एक बड़ा अमाउंट था. गिरवी रखी गई संपत्ति में जुबली डायमंड समेत मेहरबाई की सारी ज्वैलरी शामिल थी. इंपीरियल बैंक से मिले 1 करोड़ रुपये के लोन से टाटा स्टील की फंडिंग की गई. जल्द ही कंपनी की विस्तारित प्रॉडक्शन फैसिलिटीज ने रिटर्न देना शुरू किया और स्थिति बेहतर होने लगी. उस मुश्किल भरे वक्त में किसी भी कर्मचारी की छंटनी नहीं हुई लेकिन शेयरहोल्डर्स को अगले कई सालों तक डिविडेंड का भुगतान नहीं हो सका.
फिर जब कंपनी आई मुनाफे में
कुछ सालों बाद ही टाटा स्टील मुनाफे में आ गई और दोराबजी व मेहरबाई की गिरवी रखी गई संपत्ति को छुड़ा लिया गया. 1930 के दशक के आखिर में टाटा स्टील फिर से फलने फूलने लगी. साल 1931 में मेहरबाई और साल 1932 में दोराबजी टाटा इस दुनिया से रुखसत हो गए. दोराबजी अपनी सारी संपत्ति 'सर दोराबजी टाटा चैरिटेबल ट्रस्ट' के नाम कर गए, जिसमें वह जुबली डायमंड भी शामिल रहा.
आगे जुबली डायमंड का क्या हुआ?
साल 1937 में जुबली डायमंड की बिक्री कार्टियर के माध्यम से हुई और बदले में हासिल हुआ पैसा 'सर दोराबजी टाटा चैरिटेबल ट्रस्ट' के पास गया. जुबली डायमंड को एक फ्रांसीसी उद्योगपति एम. पॉल-लुइस वीलर ने खरीदा था. बाद में इसे House Mouawad के रॉबर्ट Mouawad ने खरीदा. ट्रस्ट ने जुबली डायमंड की बिक्री से हासिल हुए फंड्स का इस्तेमाल टाटा मैमोरियल हॉस्पिटल समेत कई संस्थान स्थापित करने में किया, जैसे कि टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च.
जुबली डायमंड का भारी भरकम इंश्योरेंस
मेहरबाई टाटा को अपनी भारतीय जड़ों पर बेहद गर्व था और वह महिलाओं के लिए आवाज उठाने वालों में से थीं. मेहरबाई विदेश दौरों के दौरान भी भारतीय विरासत को सहेजते हुए साड़ी ही पहनती थीं और उनकी सुंदर पारसी साड़ी पर जुबली डायमंड एक परफेक्ट एक्सेसरी हुआ करता था. जुबली डायमंड का इंश्योरेंस भी भारी भरकम हुआ करता था. कभी ताज महल होटल, मुंबई में जानेमाने ज्वैलर रहे दिनसी गजधर से एक बार सर दोराबजी टाटा ने कहा था कि जब भी उनकी पत्नी लंदन के सेफ डिपॉजिट वॉल्ट से जुबली डायमंड निकालती हैं तो हर बार इंश्योरेंस कंपनी उन पर 200 पाउंड का जुर्माना लगाती है.
(यह अंश टाटा सन्स में ब्रांड कस्टोडियन हरीश भट्ट की किताब 'Tatastories: 40 Timeless Tales to Inspire You' से लिया गया है.)