क्यों चल रही है यूरोप में जानलेवा हीट वेव? अब तक हज़ारों मौतें, पिघल रहे हैं रेलवे ट्रैक
यूरोप के ठंडे देशों के लिए 40 डिग्री और उससे अधिक का तापमान जानलेवा साबित हो रहा है. 1900 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं. क्या है इसका कारण?
यूरोप का बड़ा हिस्सा इस वक़्त जानलेवा गर्मी से जूझ रहा है. अब तक इस हीट वेव में 1900 लोगों की जान जा चुकी है. हालात को ध्यान में रखते हुए कई शहरों में लोगों से घरों में ही रहने की अपील की गई है. बच्चों के स्कूल बंद कर दिए गए हैं और अलर्ट जारी किया गया है. यूरोप में लोग गर्मियों का इंतज़ार करते हैं क्यूँकि हमेशा ठंडे रहने वाले इन देशों में गर्मियां सुहानी होती है, गर्मियों का तापमान 25 डिग्री से आगे कम ही इलाक़ों में जाता है. लेकिन इस हफ़्ते पश्चिमी यूरोप के कई हिस्सों में तापमान 38 से 40 डिग्री तक पहुँच गया. लंदन जहां पारा 40 पार जा चुका है, वहाँ “द सन” की एक खबर के अनुसार, रेलवे ट्रैक पिघल रहे हैं. वहाँ का इन्फ्रास्ट्रकचर इतनी गर्मी के हिसाब से बनाया नहीं गया है.
स्पेन और फ्रांस में भी 40 पार है तापमान, जंगलों में लगी आग
ब्रिटेन के अलवास फ़्रांस, स्पेन, इटली और पोलैंड का भी औसत तापमान में बढ़ोतरी हो रही है. इसी साल मई का महीना फ़्रांस के लिए अब तक का सबसे गर्म महीना रहा. मंगलवार को स्पेन में तापमान 43 डिग्री दर्ज किया गया. फ्रांस के दक्षिणी हिस्से में स्थित कैजोक्स में सोमवार को 42.4 डिग्री सेल्सियस तापमान रिकॉर्ड किया गया. फ़्रांस के ही जिरोंड शहर के जंगलों में भारी आग लग गई, जिसके बाद 1700 से ज्यादा दमकलकर्मियों को बुझाने के लिए तैनात करना पड़ा.
स्पेन के कैस्टिले और लियोन के मध्य क्षेत्र के साथ-साथ गैलिसिया के उत्तरी क्षेत्र में स्थित जंगल में भी गर्मी की वजह से आग लग गई. आग का कहर इतना अधिक था कि देश की रेलवे कंपनी को मैड्रिड और गैलिसिया के बीच रेल सेवा को स्थगित करने पर मजबूर होना पड़ा. स्पेन में जंगलों की आग के चलते 70 हजार हेक्टेयर जमीन बर्बाद हो चुकी है. स्पेन में गर्मी और हीटवेव इस कदर हावी हो चुकी है कि अभी तक 600 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है.
आख़िर क्यूँ पड़ रही है यूरोप में ऐसी जानलेवा गर्मी?
हीट वेव और क्लाइमेट चेंज
इससे पहले यूरोप में हीट वेव साल 2003 में आई थी जिसकी वजह से 70 हज़ार से ज़्यादा लोगों की जानें गईं थी. यूरोप में हीट वेव का असर देखते हुए नासा ने सैटेलाइट से ली गई एक तस्वीर शेयर की है. तस्वीर में धरती का बड़ा हिस्सा लाल रंग के निशान से घिरा हुआ दिख रहा है जो लगातार गर्म होते इलाकों का है और ठंडे इलाकों को नीले से दिखाया गया है. तस्वीर दिखाती है कि ग्रीन हाउस गैस (मुख्यतः CO2) का एमिशन कितने खतरनाक लेवल तक पहुंच गया है.
लगातार हो रहे कार्बन डाई-ऑक्साइड एमिशन ग्लोबल वार्मिंग का एक प्रमुख कारण है. और यूरोप में तापमान का यह लेवल उसी से बढ़ा है. इसके अलावा, यूरोप में समुद्रों की ज्यादा संख्या भी हीटवेव का एक कारण है. ऐसा क्योंकि वातावरण का सर्कुलेशन और समुद्रों की स्थिति तापमान पर गंभीर असर डालती है.
सरकारें क्या कर रही हैं?
दुनिया भर की सरकारों के बीच यह सहमति बन चुकी है कि ग्लोबल वर्मिंग से निजात पाने के लिए पेरिस समझौते के लक्ष्य को हासिल करने की ज़रूरत है. लेकिन इसमें सबसे बड़ी चुनौती है विकसित देशों और विकासशील देशों की प्राथमिकताओं में अंतर. विकसित देश कार्बन एमिशन के लिए सबसे ज़्यादा ज़िम्मेवार हैं. पिछले तीस साल में उन देशों में कार्बन एमिशन विकासशील देशों के मुक़ाबले साढ़े तीन गुना रहा है. वे अब महँगी ग्रीन टेक्नोलॉजी में निवेश करने की स्थिति में हैं. इसके मुक़ाबले विकासशील देशों की प्राथमिकता विकास है और ग्रीन टेक्नोलॉजी को लेकर उस स्तर पर निवेश करना उनके लिए सम्भव नहीं है.
वैसे भी विकासशील देशों में बहुत सारे पर्यावरण विनाश का क़सूर आज के विकसित देशों पर है जिन्होंने इन देशों में प्राकृतिक संसाधनों का दोहन अपने मुनाफ़े के लिए किया था. खुद विकसित देशों के भीतर भी ऐसा मॉडल बनाया गया कि कचरा उन इलाक़ों में डम्प किया गया जहां गोरे लोग नहीं रहते थे. ग्रीनपीस और Runnymede Trust का एक हालिया अध्ययन बताता है कि कचरा प्रबंधन में भी नस्लभेद और रंगभेद पर आधारित मानसिकता गहरे तक काम करती रही है.
यह विपुला पृथ्वी सबका घर है. इसका पर्यावरण बिगड़ रहा है, इसके अस्तित्व पर ख़तरा है तो उसे बचाना सबकी प्राथमिकता बनना होगा. लेकिन जिसका क़सूर बड़ा है उसकी ज़िम्मेवारी भी बड़ी होनी चाहिए. विकासशील देशों पर वहाँ अभी जी रहे मनुष्यों के विकास और भविष्य में से किसी एक को चुनने की दुविधा नहीं थोंपी जानी चाहिए. हालाँकि इसके बावजूद विकासशील देशों ने इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाने शुरू कर दिए हैं.
ज़रूरत है कि अमीर देश अपनी ऊर्जा जरूरतें कम करें, ग्रीन टेक्नोलॉजी में निवेश करे, उसे सस्ते में विकासशील देशों के साथ साझा करें.
यह पृथ्वी, जैसा गांधी ने कहा था, हम सबकी ज़रूरतों के लिए कभी कम नहीं पड़ेगी. लेकिन क्या हम उसे ऐसा करने देंगे?
(फीचर ईमेज क्रेडिट: NASA)