कहां गुम हो चले हैं हाथ के बुने हुए क्यूट और रंग-बिरंगे स्वेटर...
नए जमाने के बदलावों और मशीन से बनने वाले डिजाइनर स्वेटरों, पुलोवर, जैकेट्स, के बीच हाथ के बुने ऊनी कपड़े अपना वजूद खोते जा रहे हैं...
'ऊन ले लो ऊन...', 'ऊन वाला...' कभी यह आवाज सुनकर कई घरों के दरवाजे और खिड़कियां झट से खुल जाया करते थे. गांव हो या शहर या कोई कस्बा, रंग-बिरंगी ऊन की लच्छियों से लदी साइकिल गलियों से गुजरती तो कई नजरें उस पर टिक जातीं. कुछ पारखी नजरें तो चंद पलों की झलक में ही अनुमान लगा लेतीं कि ऊन अच्छी है या नहीं. वहीं कुछ नजरें यह खोज रही होतीं कि उनकी जरूरत वाले रंग की ऊन उस साइकिल पर है या नहीं.
यह वह दौर था, जब हाथ के बने स्वेटर, स्कार्फ/टोपे, मोजे, पजामे, ऊनी ब्लाउज आदि बच्चों से लेकर बूढ़ों तक के बदन पर सर्दियों में दिखा करते थे. एक ऐसा वक्त, जब स्वेटर बुनने में माहिर हाथों की स्वामिनी और तरह-तरह की डिजाइन की ज्ञाता महिला, राह चलते अजनबी के स्वेटर को बस झलक भर देखकर ही बता देती थी कि इसे कैसे बुना गया है...
ऐसा नहीं था कि उस दौर में ऊन केवल साइकिलों पर ही बिकती थी. बाजारों में सर्दियों में ऊन की दुकानें सजा करती थीं. विभिन्न वेरायटी की, हर तरह के रंग की, एक ही रंग के कई शेड्स की ऊन की जमकर खरीद होती थी. लेकिन अब ऊन के गोले गायब से होते जा रहे हैं. गलियों में साइकिल पर ऊन की बिक्री लगभग बंद हो चली है. शहरों में तो यह एक तरह से खत्म ही है. साथ-साथ बाजारों में भी ऊन की दुकानें कम हो चली हैं. हों भी कैसे न...नए जमाने के बदलावों और मशीन से बनने वाले डिजाइनर स्वेटरों, पुलोवर, जैकेट्स, के बीच हाथ के बुने ऊनी कपड़े अपना वजूद खोते जा रहे हैं...
जब हर घर में अंगुलियों के बीच में नाच रही होती थी सलाई
ऊन व सलाई (हाथ से ऊनी कपड़े बनाने के लिए इस्तेमाल होने वाली निडिल्स) का वह दौर कुछ ऐसा था कि सर्दियों की दोपहर में छत या बरामदे में धूप सेंकते हुए, घने कोहरे वाले दिनों में रजाई में बैठकर, रेडियो सुनते हुए, टीवी देखते हुए...महिलाओं के हाथों में ऊन-सलाई दिख जाया करती थी. युवा, वयस्क, बुजुर्ग..हर उम्र वर्ग की महिला में तरह-तरह के स्वेटर बनाने का चाव दिखता था. एक-दूसरे से स्वेटर, कुर्ती, सॉक्स आदि की नई-नई डिजाइन को सीखा जाता था. इतना ही नहीं सर्दियों में मैगजीन्स जैसे सरिता, गृहशोभा, वनिता आदि के विंटर एडिशन को विशेष रूप से खरीदा जाता था ताकि उनमें छपी स्वेटर की डिजाइन्स हासिल हो सकें. ऊन के अलावा बाजार में विभिन्न नंबरों, साइज की सलाई भी बड़ी ही सहजता से उपलब्ध रहती थीं.
'स्वेटर बड़ा अच्छा लग रहा है, किसने बनाया?' यह सवाल बेहद आम था. जान-पहचान के बच्चों के साथ-साथ अजनबी बच्चों के बदन पर फब रहे स्वेटर को भी हाथ लगाकर देख लिया जाता था कि डिजाइन डाली कैसे है...फंदों को सलाइयों पर चलाया कैसे गया है. इतना ही नहीं दोस्तों, रिश्तेदारों, सहकर्मियों और पड़ोसियों से तो स्वेटर या सॉक्स दो-तीन दिन के लिए मांग लिए जाते थे, ताकि उनकी डिजाइन को समझा जा सके और फिर वैसा ही अपने यहां बनाया जा सके.
स्वेटर उधेड़ने का अपना ही मजा
यह प्रॉसेस तब अमल में आती, जब कोई स्वेटर या तो बहुत पुराना हो जाए या फिर कहीं से फट जाए या फिर स्वेटर बनाने के दौरान कोई फंदा बीच में डूब जाए. सर्दियों के दिनों में स्वेटर बनने के दौरान यह प्रॉसेस हमारी तो फेवरेट थी. क्योंकि जब स्वेटर उधेड़ना शुरू होता था तो ऊन, उसके एक सिरे से दूसरे सिरे तक लगभग नाचती हुई निकलती थी. देखते ही देखते एक पूरा बुना हुआ हिस्सा, ऊन के गोले में तब्दील हो जाता था. इस प्रॉसेस के फेवरेट होने की एक वजह और थी और वह यह कि अक्सर उधेड़े जाने वाले ऊनी कपड़े/हिस्से को बच्चों को या तो पकड़ा दिया जाता था या हमारे जैसे बच्चे खुद से उसे पकड़ने की जिद कर लेते थे.
आज भी जिंदा है यह हुनर लेकिन...
ऐसा नहीं है कि हाथ से बने ऊनी कपड़ों का दौर पूरी तरह खत्म हो चला है. आज भी कुछ लोग हैं, जो हाथ से ऊनी कपड़े बुन रहे हैं. यह हुनर आज भी जिंदा तो है लेकिन बहुत ही सीमित हो चला है. वजह...यंग जनरेशन में से ज्यादातर को इस कला में रुचि नहीं है. जिन्हें रुचि है, उनमें से कइयों के पास इसके लिए वक्त नहीं है क्योंकि बुनाई में वाकई समय लगता है. और कई तो ऐसे हैं, जो हाथ के बने ऊनी कपड़े पसंद तो करते हैं लेकिन चाहते हैं कि कोई और बना दे...