दफ्तर में लैंगिक समानता कैसे आएगी ?
ब्लूमबर्ग के जेंडर इक्वैलिटी इंडेक्स में विप्रो, टेक महिंद्रा समेत भारत की 9 कंपनियां शामिल.
जेंडर इक्वैलिटी या लैंगिक बराबरी के मायने क्या हैं. आसान शब्दों में कहें तो इसका सीधा सा अर्थ है स्त्री और पुरुष के बीच समानता. लेकिन जब इस समानता का संदर्भ वर्कप्लेस यानी हमारे दफ्तर हों तो इसका अर्थ है एक ऐसी ऑफिस जहां उतनी ही महिलाएं काम करती हैं, जितने कि पुरुष. जहां निर्णायक पदों पर, लीडरशिप पोजीशन में महिलाएं पुरुषों के बराबर हैं. जहां अवसर, प्रमोशन, सैलरी हाइक में जेंडर के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया.
कुछ ऐसे ही पैरामीटर्स पर ब्लूमबर्ग हर साल दुनिया भर की कंपनियों को परखने की कोशिश करता है और अपना जेंडर इक्वैलिटी इंडेक्स (ब्लूमबर्ग लैंगिक समानता सूचकांक) जारी करता है. इंडेक्स में विश्व की उन कंपनियों को जगह मिलती है, जिन्होंने जेंडर बराबरी के लक्ष्य को हासिल किया है या उसे हासिल करने की दिशा में लगातार बढ़ रही हैं.
वर्ष 2023 के जेंडर इक्वैलिटी इंडेक्स में भारत की 9 कंपनियों को जगह मिली है. इन कंपनियों में विप्रो (Wipro Ltd), टेक महिंद्रा (Tech Mahindra Ltd) , हीरो मोटोकॉर्प (Hero MotoCorp Ltd), डॉ. रेड्डीज लैबोरेटरीज लिमिटेड (Dr Reddy’s Laboratories Ltd), फर्स्टसोर्स सॉल्यूशंस लिमिटेड (Firstsource Solutions Ltd), एचसीएल टेक्नोलॉजीज लिमिटेड (HCL Technologies Ltd), टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज लिमिटेड(Tata Consultancy Services Ltd), वकरांगी लिमिटेड (Vakrangee Ltd)
और डब्ल्यूएनएस होल्डिंग्स लिमिटेड (WNS Holdings Ltd.).
इस लैंगिक समानता सूचकांक में दुनिया भर की 484 कंपनियों ने जगह बनाई है. इस इंडेक्स में वह कंपनियां शामिल हैं, जहां औसतन कंपनियों के बोर्ड में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 30 फीसदी से ज्यादा है और निर्णायक लीडरशिप पोजीशंस में महिलाओं की भागीदारी 27 फीसदी से ज्यादा है. यह एक एवरेज डेटा है क्योंकि कुछ कंपनियों में यह आंकड़ा 47 से 52 फीसदी तक भी है.
जेंडर समानता इंडेक्स पर परखने के लिए ब्लूमबर्ग जिन पैमानों पर कंपनियों का आंकलन करता है, वे पैमाने इस प्रकार हैं-
1- वर्कफोर्स में महिला कर्मचारियों का प्रतिशत
2- बोर्ड और लीडरशिप पोजीशन में महिलाओं का प्रतिशत
3- सैलरी में जेंडर बराबरी यानी एकसमान वेतन
4- वर्कप्लेस सेक्सुअल हैरेसमेंट पर कंपनी का रुख, नीतियां और उसका एक्जीक्यूशन
5- इंक्लूसिव कल्चर यानी समावेशी संस्कृति
पिछले एक-दो दशकों में जो कंपनियों अपने वर्कप्लेस को महिलाओं के ज्याद बेहतर और सुरक्षित बनाने में कामयाब हुई हैं, उनके नामों को सेलिब्रेट करने के साथ हमारे लिए एक बड़ा सवाल ये भी है कि बाकी कंपनियां इस इंडेक्स में अपनी जगह कैसे बना सकती हैं. लैंगिक समानता के लक्ष्य को हासिल करने में उनकी राह में कौन सी दीवारें हैं. बाकी कंपनियों को अपने वर्कप्लेस को ज्यादा इंक्लूसिव बनाने के लिए कौन से जरूरी कदम उठाने चाहिए.
हायरिंग के स्तर पर पॉलिसी निर्माण
वर्कप्लेस पर महिलाओं की बराबरी सुनिश्चित करने के लिए सबसे पहला जरूरी कदम है हायरिंग के स्तर पर सही फैसले लेना. SHRM (सोसायटी फॉर ह्यूमन रिसोर्स मैनेजमेंट) की वर्ष 2018 की एक रिपोर्ट में 41 फीसदी मैनेजरों ने कहा कि उनकी कंपनी में हायरिंग के स्तर पर जेंडर बराबरी को लेकर कोई पॉलिसी नहीं है.
ज्यादा संख्या में महिला कर्मचारियों की हायरिंग पॉलिसी के स्तर पर नियम बनाकर ही की जा सकती है. यह तय करके कि अमुक विभाग में, अमुक पदों पर आपकी एक निश्चित संख्या में महिलाओं की नियुक्ति ही करनी है. विप्रो और टेक महिंद्रा में आज यदि बड़ी संख्या में महिलाएं काम कर रही हैं तो इसका कारण है उन कंपनी की पॉलिसीज, जो हायरिंग यानि एंट्री लेवल पर ही महिलाओं को ज्यादा मौके दे रही हैं.
प्रमोशन और सैलरी हाइक में बराबरी
यह भी दरअसल पॉलिसी स्तर पर ही किया जाने वाला फैसला है, जिसकी जिम्मेदारी ओनर, मैनेजमेंट और कंपनी में निर्णायक पदों पर बैठे हुए लोगों की है. महिलाएं कंपनी में आगे तभी बढ़ सकती हैं, जब उन्हें पुरुषों के बराबर आगे बढ़ने के अवसर दिए जाएं.
80 फीसदी जगहों पर फैसलाकुन निर्णायक पदों पर पुरुष बैठे हैं. वही नीतियां बना रहे हैं. उन्हीं के पास पावर और फैसले लेने का अधिकार है. ऐसे में यदि संबंधित व्यक्ति स्वयं बहुत जागरूक और जेंडर सेंसिटिव न हों या यह कंपनी की पॉलिसी न हो तो अकसर जेंडर पूर्वाग्रह अपना काम करते ही हैं. आखिरकार इतने सालों तक महिलाओं पिछड़े रहने की वजह भी ये जेंडर पूर्वाग्रह ही हैं.
यहां एक बात पर और ध्यान देने की जरूरत है कि यह सिर्फ नेक नीयत से ही मुमकिन नहीं है. इसके लिए बाकायदा एचआर के स्तर पर पॉलिसी और नियम होने चाहिए और उन नियमों की अनदेखी होने पर उसे चेक करने वाली कोई रेगुलेटरी बॉडी भी होनी चाहिए.
उस रेगुलेटरी बॉडी का काम यह सुनिश्चित करना हो कि जेंडर के आधार पर कर्मचारियों के वेतन, प्रमोशन और सैलरी हाइक में कोई भेदभाव न किया जाए.
जेंडर सेंसिटिव वर्कप्लेस
एक स्त्री और पुरुष के दिमाग, बुद्धि, प्रतिभा, स्किल और कार्यक्षमता में कोई फर्क नहीं है, लेकिन दोनों की जैविक संरचना में बहुत फर्क है. जैविक संरचना के कारण महिलाओं की बहुत सारी जरूरतें भी पुरुषों से अलग होती हैं.
स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी की साल 2017 की एक स्टडी उन कारणों की पड़ताल करती है, जिसकी वजह से कोई कंपनी अपने वर्कप्लेस को ज्यादा जेंडर इंक्लूसिव बना पाती है. इस स्टडी के मुताबिक अमेरिका में बैंकिंग सेक्टर में महिलाओं का पार्टिसिपेशन, रीटेंशन और ग्रोथ रेट सबसे ज्यादा था क्योंकि इस सेक्टर ने महिलाओं प्रेग्नेंसी, पीरियड्स और मदरहुड की जरूरतों को देखते हुए उनके काम के घंटों और काम की जगह को फ्लैक्सिबल रखा. इसका नतीजा ये हुआ कि शादी-बच्चे आदि का उनके कॅरियर पर नकारात्मक असर नहीं पड़ा.
सेक्सुअल हैरेसमेंट पर कंपनी की नीतियां
भारत समेत दुनिया के तकरीबन 80 फीसदी देशों में कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न के संबंध में कठोर कानून हैं, जिनका मकसद वर्कप्लेस को महिलाओं के लिए सुरक्षित बनाना है. भारत में भी पॉश कानून (Sexual Harassment of Women at Work Place (Prevention, Prohibition and Redressal) Act, 2013) है, जिसके तहत हर दफ्तर में एक सेक्सुअल हैरेसमेंट कंप्लेन कमेटी होना अनिवार्य है.
चूंकि अब यह कानून है तो यह कमेटी तो सभी दफ्तर बना ही लेते हैं, लेकिन विप्रो, टेक महिंद्रा जैसी कंपनियों ने इसके अलावा और इससे आगे बढ़कर भी कुछ किया. उन्होंने विभिन्न वर्कशॉप्स, क्लासेज और एक्टिविटी के जरिए अपने कर्मचारियों को जेंडर सेंसटाइज करने की कोशिश की. हर दफ्तर में यह सचेत कोशिश की जानी चाहिए. ऐसा माहौल बनाने की कोशिश, जहां महिलाएं सुरक्षित महसूस कर सकें. उन्हें यह डर न हो कि बोलने या शिकायत करने से उनके कॅरियर को नुकसान हो सकता है.
इंक्लूसिव वर्कप्लेस
काम की जगह का इंक्लूसिव होना सिर्फ जेंडर पर ही लागू नहीं होता. इंक्लूसिव होने का अर्थ है कि वहां जेंडर, जाति, धर्म, नस्ल, क्षेत्र, भाषा आदि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होता. इंक्लूसिव होने का अर्थ है एक ऐसी जगह, जहां सभी के लिए समानता और सुरक्षा का है.
पूर्वाग्रहों का तो ऐसा है कि वो ज्यादातर मनुष्यों अपने परिवेश और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से विरासत में मिलते हैं, लेकिन शिक्षा का काम है उन पूर्वाग्रहों को दूर करना.
जो कंपनियां इस काम को सुचिंतित ढंग से पूरा कर पाती हैं, वो ज्यादा इंक्लूसिव वर्कप्लेस बनाने में कामयाब होती हैं. वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी की एक स्टडी कहती है कि इंक्लूसिव वर्कप्लेस कंपनी की ग्रोथ में भी अहम भूमिका अदा करता है.
यह आखिरी सवाल कि ये करना क्यों जरूरी है, इसका जवाब हार्वर्ड यूनिवर्सिटी की साल 2020 की इस स्टडी के पास है, जिसके मुताबिक जेंडर बराबरी को सुनिश्चित करके कंपनियां 2030 तक अपनी जीडीपी में 13 ट्रिलियन डॉलर का इजाफा कर सकती हैं.
जेंडर इंक्लूसिव वर्कप्लेस सिर्फ महिलाओं के लिए ही नहीं, खुद कंपनियों की ग्रोथ, विकास और प्रॉफिट के लिए जरूरी है.
Edited by Manisha Pandey