मिलिए उन 5 महिलाओं से जिन्होंने उठाई है जिम्मेदारी ज़रूरतमंद बच्चों के बचपन को संवारने की
इंटरनेशनल लेबर ऑर्गनाइज़ेशन द्वारा 2011 में उपलब्ध कराए गए डेटा के अनुसार, भारत में 5 साल से 14 साल तक के 1 करोड़ बच्चों से गैर-क़ानूनी रूप से काम करवाया जा रहा था। यूनीसेफ़ इंडिया के मुताबिक़, 40 लाख 60 हज़ार लड़कियां और 50 लाख 60 हज़ार लड़के, जो नाबालिग थे, उनसे गैर-क़ानूनी तौर पर काम कराया जा रहा था, जो भारत के कुल वर्कफ़ोर्स का 13 प्रतिशत हिस्सा है। आमतौर पर ये बच्चे कॉटन या चाय के बगानों में, माचिस या ताले बनाने वाली फ़ैक्ट्रियों में या फिर खदानों में काम करते थे।
यूनीसेफ़ ने इतने बड़े स्तर पर बालश्रम की मौजूदगी के कारण भी बताए थे, जिनमें ग़रीबी, बच्चों के मां-बाप का पढ़ा-लिखा होना, उनके सामाजिक और आर्थिक हालात, जागरूकता की कमी, मूलभूत शिक्षा का अभाव, कौशल विकास की कमी और बेरोज़गारी आदि शामिल थे।
यह स्थिति भयावह है और इस परिदृश्य को बदलने की ज़रूरत है। आज हम आपको ऐसी पांच महिलाओं के बारे में बताने जा रहे हैं, जिन्होंने परिस्थिति की गंभीरता को समझते हुए इन ज़रूरतमंद बच्चों की मदद करने और उन्हें बेहतर ज़िंदगी देने की जिम्मेदारी अपने कंधो पर ली है।
गीता धर्मराजन, कथा
1989 में लेखिका, संपादक और शिक्षिका गीता धर्मराजन ने कथा की शुरुआत की थी। यह एक गैर-लाभकारी संगठन है, जो ग़रीब परिवार से आने वाले बच्चों को शिक्षित कराने के लिए काम करता है। 2001 से कथा एक ओरिजिनल तकनीक का इस्तेमाल कर रहा है, जिसे स्टोरी पेडगॉगी कहा जाता है। यह तकनीक स्टोरी-टेलिंग और परफ़ॉर्मेंस आर्ट का अहम हिस्सा है।
1990 में गीता ने कथा लैब स्कूल की भी शुरुआत की, जो एक लर्निंग सेंटर। इस लैब की शुरुआत दिल्ली के गोविंदपुरी के 5 बच्चों के साथ कई गई थी। आज यह कथा रेलेवेंट एजुकेशन फ़ॉर ऑल-राउंड डिवेलपमेंट (केआरईएडी) के क्रिएटिविटी सेंटर के रूप में विकसित हो चुका है। यहां पर गोविंदपुरी की झुग्गियों में रहने वाले बच्चों का विकास किया जाता है। ऐसे बच्चे, जो अपने परिवार को सहयोग देने के लिए काम करने पर मजबूर हैं।
अभी तक कथा, हज़ारों झुग्गियों-झोपड़ियों में रहने वाले 96 लाख बच्चों को लाभान्वित कर चुका है और भारत के 17 राज्यों में 1 हज़ार से भी ज़्यादा स्कूलों के साथ मिलकर काम कर रहा है। संगठन का कहना है कि उनके प्रोग्राम से निकलकर बच्चे ग्रैजुएशन करने के बाद आईबीएम जैसी बड़ी कंपनियों में नौकरी कर रहे हैं और बहुत से बच्चे सरकारी महकमों में लग गए हैं या फिर ऑन्त्रप्रन्योर्स बन गए हैं।
शाहीन मिस्त्री, आकांक्षा फ़ाउंडेशन और टेक फ़ॉर इंडिया
शाहीन मिस्त्री ने 1991 में आकांक्षा फ़ाउंडेशन की शुरुआत की थी, जो एक गैर-लाभकारी संगठन है। यह संगठन ग़रीब परिवार के बच्चों को शिक्षित करता है और उनके कौशल विकास के लिए काम करता है।
2007 तक, फ़ाउंडेशन अपने आफ़्टर-स्कूल सेंटर्स के ज़रिए काम करता था, लेकिन अब इसने मुंबई और पुणे में अपने 21 स्कूल खोल लिए हैं। इन स्कूलों में लगभग 500 शिक्षक हैं और 8 हज़ार से भी ज़्यादा बच्चे यहां पर सीख रहे हैं। आकांक्षा फ़ाउंडेशन के अनुसार, इन स्कूलों में बच्चों की औसत उपस्थिति 91 प्रतिशत तक है और यहां पर आने वाले 97 प्रतिशत अपने कोर्स को पूरा करके ही निकलते हैं।
2008 में शाहीन टेक फ़ॉर इंडिया की भी शुरुआत की। उन्हें लगा कि भारत में अच्छी शिक्षा तक पहुंच के मामले में बड़ा अंतर है और इस दूर करना ज़रूरी है। इस लक्ष्य के साथ ही उन्होंने टेक फ़ॉर इंडिया को लॉन्च किया। यह भी एक गैर-लाभकारी संगठन है, जो शिक्षकों या एजुकेटर्स का नेटवर्क तैयार करके, ग़रीब बच्चों तक शिक्षा को तकनीक के ज़रिए पहुंचा रहा है।
टीएफ़आई फ़ेलोशिप के तहत बच्चों को दो सालों तक पढ़ाना होता है और बड़े स्तर पर प्रोजेक्ट्स चलाने होते हैं। हाल में, टीएफ़आई में 7 शहरों के 1 हज़ार से भी ज़्यादा अभ्यर्थियों ने अपना नाम दर्ज करा रखा है और अभी तक इस फ़ेलोशिप के अंतर्गत करीबन ढाई हज़ार अभ्यर्थी काम कर चुके हैं।
फ़रीदा लांबे, प्रथम
1995 में एजुकेटर और सामाजिक कार्यकर्ता फ़रीदा लांबे ने प्रथम की शुरुआत की, जो एक 'इनोवेटिव लर्निंग ऑर्गनाइज़ेशन' है, जो भारत में शिक्षा के स्तर को बेहतर करने के लिए काम करती है। इसकी शुरुआत मुंबई के स्लम्स के बच्चों के लिए काम करने से हुई और 23 सालों में अब यह मुहिम बहुत ही बड़ा रूप अख़्तियार कर चुकी है।
प्रथम, सरकार, स्थानीय समुदायों, ज़रूरतमंद बच्चों के माता-पिता, शिक्षकों और स्वयंसेवकों के साथ मिलकर काम करता है। यह सरकार के प्रयासों में कमियां निकालने के बजाय उनमें अपना सहयोग देता है। प्रथम में पढ़ाई का तरीक़ा, परंपरागत तरीक़ों से अलग है और यहां पर इनोवेशन और आउटपुट को अधिक तवज्जो दी जाती है।
प्रथम, 'सेकंड चान्स' प्रोग्राम भी संचालित कराता है, जो ऐसी महिलाओं या लड़कियों, जिन्होंने मजबूरी में स्कूल छोड़ दिया हो, उन्हें फिर से पढ़ाई शुरू करने में मदद करता है। एक साल में पांच दिन, लड़कियों और महिलाओं को विशेषज्ञों के साथ इनटेंसिव लर्निंग सेशन्स में हिस्सा लेने का भी मौक़ा मिलता है।
2017-18 तक प्रथम ने 23 राज्यों में अपनी मौजूदगी दर्ज करा ली थी और यह अभी तक 80 लाख से भी ज़्यादा बच्चों और युवाओं को लाभान्वित कर चुका है। यह संगठन यूएस में भी अपने ऑपरेशन्स चला रहा है, जहां पर रीडैथॉन जैसे इवेंट्स आयोजित कराके भारत में अपने ऑपरेशन्स को चलाने के फ़ंड्स इकट्ठा करता है।
जेरो बिलिमोरिया, चाइल्डलाइन इंडिया
चाइल्डलाइन की शुरुआत 1996 में एक प्रयोग के तौर पर हुई थी। इसकी शुरुआत करने वाले जेरो बिलिमोरिया, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज़ (टीआईएसएस) में प्रोफ़ेसर हैं। रेलवे स्टेशनों और रैन-बसेरों में रहने वाले बच्चों से बात करने के बाद उन्हें इस प्रोजेक्ट की शुरुआत करने की प्रेरणा मिली थी। इस प्रोजेक्ट के तहत 18 साल से कम उम्र वाले बच्चों की सुरक्षा हेतु एक 24/7 टेलिफ़ोन हेल्पलाइन सर्विस चलाई जाती है। यह मुख्य रूप से उन बच्चों की मदद के लिए काम करता है, जो पहले यौन या शारीरिक शोषण का शिकार हो चुके हैं या सेक्स वर्क्स के बच्चों आदि। साथ ही, यह प्रमुख रूप से दिव्यांग बच्चों और प्राकृतिक आपदाओं का शिकार हुए बच्चों तक भी मदद पहुंचाता है।
भारत सरकार ने 1998-99 में पूरे देश में इस प्रोजेक्ट को स्थापित करने का फ़ैसला लिया था। चाइल्डलाइन स्थानीय समुदायों के युवाओं, गैर-लाभकारी संगठनों, संस्थानों और स्वयंसेवकों के नेटवर्क की मदद से अपने ऑपरेशन्स चलाता है। कॉल सेंटर में प्रशिक्षित युवाओं की टीम है, जो बच्चों की समस्याओं को दर्ज करती है। टीम लगातार यह सुनिश्चित करती है, मदद मांगने वाले बच्चे की समस्या सुलझाई गई या नहीं।
श्वेता चारी, टॉयबैंक
श्वेता चारी ने मुंबई से 2004 में टॉयबैंक की शुरुआत की थी। ये ओपनट्री फ़ाउंडेशन के अंतर्गत आता है, जिसका उद्देश्य वंचित बच्चों को उनका 'खेलने का अधिकार' दिलाना। यह नियमित तौर पर स्कूलों में, कॉर्पोरेट ऑफ़िसों में और अन्य संस्थानों में अपने स्वयंसेवकों के ज़रिए टॉय कलेक्शन ड्राइव आयोजित कराता है।
टॉयबैंक के दिल्ली, मुंबई और पुणे समेत अन्य कई जगहों पर 250 प्ले सेंटर्स हैं। इकट्ठा हुए खिलौनों को इन सेंटर्स में वितरित कर दिया जाता है। टॉयबैंक के माध्यम से शिक्षकों को इस बात के प्रति भी जागरूक किया जाता है कि एक बच्चे के विकास के लिए स्कूलों और सामुदायिक केंद्रो में उसके खेलने की ज़रूरतों का ख़्याल रखा जाना कितना महत्वपूर्ण है।
अपनी पहुंच बढ़ाने के लिए, टॉयबैंक ने कई स्कूलों और एनजीओ इत्यादि के साथ संपर्क बना रखा है। 2017-18 में संगठन ने महाराष्ट्र में 43,000 बच्चों तक खिलौने पहुंचाए और उन्हें रीक्रिएशनल कार्यक्रमों में शामिल किया।