औषधि वाली फसलें उगा कर लाखों का फायदा कमा रहीं ये युवा महिला किसान
मल्टीनेशनल कंपनियों की नौकरियां छोड़ ग्रामीण महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के साथ-साथ लाखों का फायदा कमा रही हैं रंजना और डॉ सरोज...
हुनर अमीरी का मोहताज नहीं होता, न ही मेहनत महानगरीय सुविधाओं की। कठिन हालात से लड़ते हुए किस तरह पैसा और शोहरत, दोनों की एक साथ कमाई हो सकती है, यह कोई पहाड़ की रंजना रावत और मैदान की डॉ. सरोज चौधरी से सीखे। एक ने मल्टीनेशनल कंपनी की जॉब छोड़कर पहाड़ी युवाओं के मोटिवेशन का बीड़ा उठाया तो गरीबी में भेड़-बकरियां चराती रहीं दूसरी, कृषि वैज्ञानिक बनकर इन दिनों ग्रामीण महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने में जुटी हैं।
अमेरिकन सैफ्रॉन एक बहुमूल्य हर्ब है, जिसका बाजार मूल्य चालीस हजार से लेकर एक लाख रुपये प्रति किलो है। इसका पचास ग्राम बीज एक बीघा जमीन पर रोपा जाता है। एक बीज चालीस रुपए का मिलता है। इसकी अक्टूबर में लगाई गयी फसल पांच से छह महीने में तैयार हो जाती है जिससे पांच महीने में करीब दस किलो केसर का उत्पादन हो जाता है।
कृषि विज्ञान के क्षेत्र में हो रहे तरह-तरह के प्रयोग उन अभावों की भरपाई कर रहे हैं, जिनके बूते राजनेता और अफसर मंचों से खुद की कामयाबियों का हवाला देकर मुफ्त में वाहवाहियां बटोरते रहते हैं। ऐसी कामयाब महिला प्रतिभाओं में उत्तराखंड की रंजना रावत और मध्य प्रदेश की डॉ सरोज चौधरी आज के युवाओं की प्रेरणा स्रोत बनी हुई हैं। इनमें एक रंजना रावत ने मल्टीनेशनल कंपनी में क्वॉलिटी ऑफिसर की जॉब ठुकरा दी तो डॉ चौधरी अपनी लगन और मेहनत के बूते ग्वालन से कृषि वैज्ञानिक बन गईं। रुद्रप्रयाग (उत्तराखंड) के गांव भीरी निवासी डीएस रावत की बेटी रंजना रावत दिल्ली स्थित मल्टीनैशनल कंपनी में क्वॉलिटी ऑफिसर की जॉब कर रही थीं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘मन की बात’ कार्यक्रम से प्रभावित होकर उन्होंने नौकरी छोड़कर स्वरोजगार का निर्णय किया।
आज रुद्रप्रयाग जिले में उनका नाम बागवानी, कृषि, मशरूम उत्पादन और फल संरक्षण के लिए जाना जाता है। मात्र 24 साल की रंजना अब तक सैकड़ों लोगों को मशरूम उत्पादन की ट्रेनिंग देकर स्वावलंबी बना चुकी हैं। पिछली होली पर पहाड़ी पोषक तत्वों से भरपूर उनकी स्पेशल मिठाइयां कोदर्फ़ी (मंड़ुआ की बर्फी) और मंडुआ सिंगोरी का लोगों ने आनंद उठाया। उपभोक्ताओं को मिठाइयां कॉल आर्डर पर मुहैया कराई गईं। इस सफलता के पीछे रंजना रावत की विशेष मेहनत रही। वह इन दिनों उत्तराखंड के पहाड़ों में रोजगार तथा कृषि को बढ़ावा दे रही हैं। रंजना रावत स्वरोजगार के जरिए पहाड़ों से पलायन रोकने, ग्रामीण विकास की परिकल्पना को चरितार्थ करने और रोजगार सृजन की मुहिम चला रही हैं।
फार्मेसी विशेषज्ञ रंजना के खेतों में बेशकीमती अमेरिकन सेफ्रान की खुशबू बिखेर रही है। रंजना ने शुरुआत में प्रयोग के तौर पर अपने गाँव भीरी, रूद्रप्रयाग जनपद और टिहरी जनपद के प्रतापनगर में अमेरिकन सैफ्रॉन को उगाया है जबकि आगे राज्य के अधिकतर किसानों के साथ मिलकर बड़े स्तर पर इसकी व्यापारिक खेती करने का लक्ष्य रखा है। यदि टेस्टिंग में अमेरिकन सैफ्रॉन का पैंतालीस प्रतिशत भी अर्क निकला तो उसका भाव 70 हजार रुपये से लेकर 1.5 लाख रूपये प्रति किलो तक हो सकता है। अमेरिकन केसर का वानस्पतिक नाम कारथेमस टिंकटोरियस है। भारत में राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र में भी कई जागरूक किसान अमेरिकन सैफ्रॉन की खेती कर लाखों रुपए की कमाई कर रहे हैं।
अमेरिकन सैफ्रॉन एक बहुमूल्य हर्ब है, जिसका बाजार मूल्य चालीस हजार से लेकर एक लाख रुपये प्रति किलो है। इसका पचास ग्राम बीज एक बीघा जमीन पर रोपा जाता है। एक बीज चालीस रुपए का मिलता है। इसकी अक्टूबर में लगाई गयी फसल पांच से छह महीने में तैयार हो जाती है जिससे पांच महीने में करीब दस किलो केसर का उत्पादन हो जाता है। अन्य फसलों की तुलना में इसकी खेती करना आसान है। ड्रिप पद्धति से इसकी फसल तैयार होती है। पौधों में कोई बीमारी नहीं लगती है। जैविक फसल का पौधा 4.5 फुट लंबा होता है। जिस पर दो सौ से ढाई सौ तक फूल लगते हैं जिनकी पंखुड़ियों से केसर मिलती है। फूलों को सुखाकर उससे केसर निकाल कर कंटेनर में रख दिया जाता है। जब पूरी फसल कट जाती है, उसके बाद इसे छाया में अच्छे से सुखा कर बाजार में बेचा जाता है। सैफ्रॉन विश्व के विभिन्न भू-भागों में पाया जाता है।
रंजना रावत ही नहीं, देवभूमि की तमाम युवा प्रतिभाएं कृषि विज्ञान, जैव प्रौद्योगिकी, जैव रसायन एवं सूक्ष्म जैविकीय वनस्पति विज्ञान, रसायन विज्ञान, पृथ्वी विज्ञान सह भू-विज्ञान, भू-भौतिकीय अभियान्त्रिकी विज्ञान एवं तकनीकी, पर्यावरण विज्ञान एवं वानिकी, गृह विज्ञान पदार्थ एवं सूक्ष्मकण विज्ञान गणित, सांख्यकी आदि विषयों पर अपने शोध प्रस्तुत कर देश-दुनिया को चमत्कृत कर रही हैं। राज्य सरकार के पलायन रोकने के इरादों के अनुकूल राज्य की ये उत्साही युवा प्रतिभाएं अपने स्तर पर लगातार इस मुहिम को आगे बढ़ा रही हैं। उनकी प्रेरणा से बाहर रह रहे युवा भी गांवों की ओर लौटने लगे हैं। दिव्या रावत, श्वेता तोमर, हरिओम नौटियाल आदि ऐसे ही प्रेरक नाम हैं। इनकी मुहिम रंग भी ला रही है।
इनसे प्रशिक्षण लेकर किसान परिवार गांव में खुद का काम करने लगे हैं। वे उजड़े घरों को फिर से आबाद कर रहे हैं। वे नहीं चाहते कि गांव का एक भी खेत-खलिहान बंजर रहे। राज्य विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद की ओर से पिछले दिनों विज्ञान धाम में मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत की मौजूदगी में स्टेट साइंस एंड टेक्नोलॉजी कांग्रेस के दूसरे दिन प्रदेश के युवा वैज्ञानिक शोधार्थियों ने 16 विषयों पर शोध पत्र प्रस्तुत किए। चयनित शोधार्थियों को ‘युवा वैज्ञानिक पुरस्कार’ से सम्मानित करने का निर्णय लिया गया। इस प्रोग्राम में कई राज्यों से पहुंचे राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर के विशेषज्ञों ने राज्य के युवा वैज्ञानिकों के शोध कार्यों की समीक्षा की। राज्य के कामयाब युवा अब तेजी से मीडिया की भी सुर्खियों में आने लगे हैं।
ऐसे ही एक कामयाब युवा हैं टिहरी गढ़वाल के विपिन पंवार। वह दिल्ली में नौकरी कर रहे थे। एक दिन अचानक उन्होंने तय किया कि अब अपने गांव में ही रहकर कुछ बेमिसाल करना चाहिए। वह मशरूम उत्पादन में जुट गए। अब वह अपने गांव को पर्यटन केंद्र का स्वरूप देने में जुटे हुए हैं। इसी तरह पौड़ी गढ़वाल के गांव सिड़ियाधार, पोखरा के विज्ञान वैभव नौटियाल भी देहरादून की नौकरी छोड़कर अपने गांव पहुंच गए और आधुनिक तरीके से फल और सब्जियों का उत्पादन कर रहे हैं।
रंजना रावत बताती हैं, कि उनके दादा जी ज्यादा पढ़े लिखे तो नहीं लेकिन वह किसी इंजीनियर से कम भी नहीं हैं। आखिर गाँव में पहला अत्याधुनिक तकनीक वाला घराट उन्होंने ही अपने हाथों से बनाया था। वह कोई शास्त्री नहीं पर अपनी बातों को श्लोकों से समझाना वह भी अच्छी तरह जानते हैं। वह नेता भी नहीं, लेकिन मंच पर अपनी बात रखने से वह कभी कतराते नहीं हैं। यह अलग बात है कि कभी-कभी उनका भाषण एक घंटे का भी हो जाता है, लेकिन उस एक घंटे तक भी मैंने लोगों को टकटकी लगाये सुनते हुए देखा है! वह कोई कलाकार नहीं लेकिन पत्थरों की कलाकारी कोई उनसे सीखे। आखिर जिस पैतृक मकान की लोग तारीफ करने से नही चूकते, वह उन्ही के हाथों की कला का नतीजा है। रिंगाल की बनायी हुई वे कण्डियाँ मुझे आज भी याद हैं जिस पर मैंने बचपन में फुल-फुल माई खेली थी। तेईस लोगों के उनके बड़े से परिवार में हर एक के सुख-दुख के बारे में सोचना शायद परिवार के मुखिया के लिए मुश्किल हो सकता है लेकिन मेरे दादा जी के लिये नहीं। आखिर उनकी डायरी सब कुछ जो बयाँ करती है। मुझे याद है कि पिछले साल हमारा जंगल छोड़ कर बाकी सबके जंगलों में आग लगी थी क्योंकि दादा जी ने पूरे जंगल की पिरूल घास साफ कर डाली थी। अपनी तीन हेक्टेयर जमीन पर 75 सालों तक धैर्य के साथ खेती करना कोई मेरे दादा जी से सीखे। आज वह 86 साल बाद भी 30 साल के जवान लड़के के बराबर दमखम रखते हैं।
डॉ. सरोज चौधरी बालिकाओं के लिए यूथ आइकन से कम नहीं हैं। उन्होंने कठिन परिस्थितियों से लड़ते हुए आधी आबादी का सर फक्र से ऊंचा किया है। डॉ.सरोज बताती हैं कि वह एक गरीब परिवार से रही हैं। फुलेरा तहसील के गुमानपुरा में पिता बन्नाराम जाट की चार बेटियों में वह सबसे छोटी हैं। परिवार में शिक्षा का माहौल नहीं होने पर बचपन के दिनों में वह भेड़-बकरियां चराती थीं।
इसी तरह मध्य प्रदेश में एक ग्वालिन से कृषि वैज्ञानिक बनने की डॉ सरोज चौधरी की कहानी किसी करिश्माई दास्तान से कम नहीं है। शाहपुरा (म.प्र.) के गांव म्हारखुर्द से जुड़े परमानपुर की डॉ. चौधरी को हाल ही में नेशनल वूमेन अवार्ड से सम्मानित किया गया है। उन्हें यह अवार्ड उनके द्वारा सूदूर ग्रामीण परिवेश की विषम परिस्थितियों से मुकाबला करते हुए उच्च शिक्षा अर्जित कर कृषि वैज्ञानिक के पद पर चयनित होने, बालिका सशक्तीकरण में सार्थक सहयोग देने और गुजरात के जिला भावनगर स्थित कृषि विज्ञान केन्द्र में पदस्थापन के दौरान जिले में किसानों, खासकर महिला किसानों के साथ काम करते हुए उनके आर्थिक विकास और सामाजिक सोच में बदलाव का मार्ग प्रशस्त करने के लिए प्रदान किया गया।
डॉ. चौधरी बालिकाओं के लिए यूथ ऑइकन से कम नहीं हैं। उन्होंने कठिन परिस्थितियों से लड़ते हुए आधी आबादी का सर फक्र से ऊंचा किया है। डॉ.सरोज बताती हैं कि वह एक गरीब परिवार से रही हैं। फुलेरा तहसील के गुमानपुरा में पिता बन्नाराम जाट की चार बेटियों में वह सबसे छोटी हैं। परिवार में शिक्षा का माहौल नहीं होने पर बचपन के दिनों में वह भेड़-बकरियां चराती थीं। उनके बाद जन्मे दो भाइयों को बकरी चराने के साथ-साथ सरकारी स्कूल तक लाने ले जाना भी उनकी ही जिम्मेदारी थी। वह अपने भाइयों को छोड़कर स्कूल के बाहर ही उनका इंतजार करती रहती थीं। एक दिन शिक्षकों ने उन्हें भी कक्षा में बैठा दिया।
इसके बाद उनकी विलक्षण प्रतिभा से चमकत्कृत शिक्षकों ने उनके माता-पिता को समझाकर जोबनेर के बालिका स्कूल में दाखिला दिला दिया। शादी के बाद भी पति बनवारीलाल जाट का पूरा सहयोग मिलने से आगे भी पढ़ाई चलती रही। आज वह कृषि वैज्ञानिक बन गई हैं। अब तक उनके दस रिसर्च पेपर इन्टरनेशनल शोध जर्नल्स में प्रकाशित हो चुके हैं। पत्र-पत्रिकाओं में भी उनके लेख छपते रहते हैं। डॉ. सरोज सीधे महिला किसानों के लिए उपयोगी तकनीकों को उनकी भाषा-बोली में समझा देती हैं। उनकी दीक्षा को भावनगर (गुजरात) की महिलाएं हाथोहाथ ले रही हैं।
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