वैसे फक्कड़, धुन के पक्के अब कहां !
जितेंद्र रघुवंशी कैफी आजमी, एके हंगल जैसे सृजनधर्मियों से आखिरी दिनों तक गहरे जुड़े रहे। उनकी दृष्टि में समाज और कुछ नहीं, मनुष्यता की प्रयोगशाला भर है।
सियासत में आज जितने दल, उतने रंग। जितने संगठन, उतनी तेवरियां। मन से न जन की चिंता, न समाज की, लेकिन जीवन के अनुभव जिन आंखों से राह दिखाते हैं, उनमें ही एक नाम जाने-माने रंगकर्मी जितेंद्र रघुवंशी का। यारों के यार, फक्कड़ नुक्कड़बाज, धुन के पक्के वैसे बटोही अब कहां! उनकी वह जादू की झप्पी जैसी मुस्कान। स्वस्थ सियासत करते हुए वह बहुत मुश्किल समय में थिएटर की विरासत को हर दिन परवान चढ़ाते रहे।
जितेंद्र रघुवंशी: नाटकों, नुक्कड़ नाटकों के मंचन से लेकर लिटिल इप्टा के शिविर तक, उनके नेतृत्व में अक्सर राष्ट्रीय स्तर के प्रोग्राम होते रहते थे।a12bc34de56fgmedium"/>
अपने वैचारिक जुझारूपन का जितेंद्र रघुवंशी कभी प्रदर्शन नहीं करते थे। पार्टी से अंतिम सांस तक जुड़े रहने के बावजूद मोर्चों पर नीतिगत दोरंगेपन से वह अंदर से प्रायः असहमत जान पड़ते थे। दो-एक मुलाकातों में भी दुश्मन को दोस्त बना लेने का उनमें अद्भुत हुनर था। स्वभाव से अत्यंत विनम्र और विचारों में कत्तई सख्त।
सियासत में आजकल जितने दल, उतने रंग। जितने संगठन, उतनी तेवरियां। मन से न जन की चिंता, न समाज की, लेकिन जीवन के अनुभव जिन आंखों से राह दिखाते हैं, उनमें ही एक नाम है जाने-माने रंगकर्मी जितेंद्र रघुवंशी का, जो नुक्कड़ों, मंचों के माध्यम से हमारी नयी पीढ़ी को कई-कई राहें सिखाते, दिखाते रहे। जब तक रहे, आगाह करते रहे कि आज की राजनीति में जो कुछ सामने दिख रहा है, सच उससे कहीं ओझल है। वह अनवरत पूरे देश में रंगकर्म के बहाने जूझते रहे। वह अक्सर कहते थे- 'क्या हम लोग कभी एक नहीं हो सकते। आपस में याराना नहीं, न सही, कम- से-कम दुश्मनी करने से बाज आ जाएं, तब भी बात बहुत कुछ बन सकती है। हम सही लोग दुनिया में आज भी सबसे ज्यादा हैं और सच के प्रति उतने ही जिद्दी। क्या किसी मामूली से मुद्दे पर भी हम एक मंच पर नहीं आ सकते!'
उनका इशारा वैचारिक समरसता के बहाने आपसी टकराव, बिखराव, भटकाव, दुराव (छिपाव भी) की तरफ होता था। वह कैफी आजमी, एके हंगल जैसे सृजनधर्मियों से आखिरी दिनों तक गहरे जुड़े रहे। उनकी दृष्टि में समाज और कुछ नहीं, मनुष्यता की प्रयोगशाला भर है।
मैंने बहुत निकट से उनके स्वभाव की कई परतें देखी थीं, जो विरलों में ही मिलती हैं। रंगमंच और सियासत में पूर्णतः सक्रिय रहते हुए घर-परिवार, दोस्त-मित्रों के लिए भी उनके पास पर्याप्त समय होता था। दो-एक मुलाकातों में भी दुश्मन को दोस्त बना लेने का उनमें अद्भुत हुनर था। स्वभाव से अत्यंत विनम्र, विचारों में कत्तई सख्त। कभी-कभी उनकी मिलनसारिता से भी बड़ी झुझलाहट होती थी। जब मैं मेरठ में था, उन्होंने एक दिन सुबह तड़के फोन किया। मैं देर रात कार्यालय से लौटा था। कच्ची नींद में भन्नाते हुए फोन उठाया। बिना जाने कि कॉल किसकी है, उधर से निर्देश भरा स्वर जीतेंद्र रघुवंशी का - 'ऐसा है, आज मेरठ आ रहा हूं। आज का समय बचाकर रखना, हंगल साहब से मिलवाना चाहता हूं।'
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अब नींद कहां। मैं एक घंटा पहले कार्यालय पहुंचा। समय से पहले ठिकाने पर पहुंच गया, जहां ए. के. हंगल आ चुके थे। मुलाकातियों से घिरे हुए। उन्होंने किसी तरह बच-बचाकर अलग कमरे में मेरी हंगल साहब से मुलाकात करवाई। उस दिन हंगल साहब किसी बात से बहुत उखड़े हुए थे, फिर भी रंगकर्म, फिल्म, आंदोलनों से जुड़े सवालों पर खूब बेबाकी से बोले। कमरे से बाहर निकलते समय हंगल साहब का जीतेंद्र रघुवंशी से कहा गया वह वाक्य मेरे कानों में आज तक गूंजता है - 'आपने अखबार वालों को क्यों बुला लिया। मेरे पास इतना समय नहीं है।' मुड़कर मेरी दृष्टि जीतेंद्र भाई के चेहरे पर जा टिकी। वह अप्रत्याशित फटकार पर स्थिर भाव से यथावत मुस्कराते दिखे, जैसेकि वह हर समय सहज रह लेते थे।
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अपने वैचारिक जुझारूपन का वह कभी प्रदर्शन नहीं करते थे। पार्टी से अंतिम सांस तक जुड़े रहने के बावजूद मोर्चों पर नीतिगत दोरंगेपन से वह अंदर से प्रायः असहमत जान पड़ते थे। मैं पहली बार बड़े नाटकीय ढंग से उनके घर तक पहुंचा था। उन दिनो पत्र-पत्रिकाएं पढ़ने का नशा-सा था। एक पत्रकार मित्र ने बताया कि रघुवंशीजी सभी अच्छी पत्र-पत्रिकाएं मंगाते हैं। उनसे मिल लीजिए, समस्या हल हो जाएगी। पहले परिचय में ही लगा कि, चलो ठिकाना मिल गया। वह मुझे अक्सर आगाह करने से चूकते नहीं थे - 'अखबार की नौकरी में इतनी प्रतिबद्धता खतरनाक होगी। वैचारिक मुखरता से जरा परहेज रखा करिए। चारो ओर चुगलखोर हैं, आप की नौकरी चली जाएगी।'
कुछ भी कह कर वह हल्के से मुस्कराना नहीं भूलते थे। उनकी वह जादू की झप्पी जैसी मुस्कान। नाटकों, नुक्कड़ नाटकों के मंचन से लेकर गर्मी की छुट्टियों में लिटिल इप्टा के शिविर तक, उनके नेतृत्व में अक्सर राष्ट्रीय स्तर के प्रोग्राम होते रहते थे। स्वस्थ सियासत करते हुए उन्होंने बहुत मुश्किल समय में बृज क्षेत्र में थिएटर की विरासत को हर दिन परवान चढ़ाया। उनका कहना था कि अपने हुनर से अवाम और मुल्क की बेहतरी के लिए काम करो। यारों के यार, फक्कड़ रंगकर्मी, धुन के पक्के वैसे बटोही अब कहां मिलेंगे!