महादेवी वर्मा को वह खत लिखने वाले कौन थे स्वामी पारसनाथ!
कवयित्री महादेवी वर्मा का यह जन्म-शताब्दी वर्ष है। क्या उन्होंने कभी अपना दाम्पत्य जीवन बिखरने के बाद अपने पुनर्विवाह के बारे में सोचा था, इस तरह के प्रश्न से जुड़े कुछ दस्तावेज प्रकाश में आए हैं? कुछ दुर्लभ पत्रों के साथ यह गंभीर सवाल उठा रहे हैं दिल्ली दूरदर्शन एवं आकाशवाणी के अपर महानिदेशक राजशेखर व्यास, वह बताते हैं कि 'महादेवी वर्मा मेरे पिता द्वारा संपादित पत्र 'विक्रम' की नियमित लेखिका थीं। उनकी आरंभिक अनेक रचनाएँ 'विक्रम' में प्रकाशित हुई हैं। उनके लिखे असंख्य पत्र मेरे पास सुरक्षित हैं। उनमें से चार-पांच पत्र महादेवी जी के अंतरंग जीवन के बारे में कुछ अनछुए संकेत करते हैं।'
महादेवी वर्मा ने पंचतंत्र और संस्कृत का अध्ययन किया। उनको काव्य प्रतियोगिता में 'चांदी का कटोरा' मिला था, जिसे उन्होंने गाँधीजी को दे दिया था। महादेवी वर्मा कवि सम्मेलन में भी जाने लगी थी, वो सत्याग्रह आंदोलन के दौरान कवि सम्मेलन में अपनी कवितायें सुनाती और उनको हमेशा प्रथम पुरस्कार मिला करता था।
प्रतिष्ठित कवयित्री महादेवी वर्मा के शांत से दिखते जीवन में आंतरिक उथल-पुथल के बवंडर से चला करते थे। एक तो वह अपने परिवार में कई पीढ़ियों के बाद उत्पन हुईं। उनके परिवार में दो सौ सालों से कोई लड़की पैदा नहीं हुई थी, यदि होती तो उसे मार दिया जाता था। दुर्गा पूजा के कारण आपका जन्म हुआ। उनके दादा फ़ारसी और उर्दू तथा पिता अंग्रेज़ी जानते थे। मां जबलपुर से हिन्दी सीख कर आई थीं, महादेवी वर्मा ने पंचतंत्र और संस्कृत का अध्ययन किया। उनको काव्य प्रतियोगिता में 'चांदी का कटोरा' मिला था, जिसे उन्होंने गाँधीजी को दे दिया था। महादेवी वर्मा कवि सम्मेलन में भी जाने लगी थी, वो सत्याग्रह आंदोलन के दौरान कवि सम्मेलन में अपनी कवितायें सुनाती और उनको हमेशा प्रथम पुरस्कार मिला करता था।
राजशेखर व्यास लिखते हैं - जब वह यशस्वी हुईं, जब जग ने उन्हें जाना, पहचाना, वह 'हिन्दी की मीरा' के सम्बोधन मानी-जाने लगीं। उनके जीवन और साहित्य पर बहुत कुछ लिखा गया है। उनके संस्मरण और रेखाचित्र साहित्य पर भी बहुत कार्य हुआ है, होना भी चाहिए। उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ से ज्ञानपीठ पुरस्कार भी मिला, हालांकि बहुत विलंब से। जब मिला था, तब भी एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था- 'अब इस उम्र में इस पुरस्कार को लेकर मैं क्या करूँ? पहले मिलता तो इस रकम से सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' का इलाज ही करवा देती। अब इस उम्र में गहने, श्रृंगार-पटार, कपड़े-लत्ते खरीदने से तो रही।'
पुरस्कार भी उनकी बहुत युवावस्था में लिखी कृति 'यामा' के लिए मिला था। उस पर भी मज़ाक यह कि उनकी रचना से तो दूर का वास्ता, हिन्दी भी न जानने वाली ब्रिटेन की तत्कालीन प्रधानमंत्री मार्गरेट थ्रेचर के हाथों दिलवाया गया। इस देश में जो भी हो जाये, कम ही है! महादेवी वर्मा मेरे पिता द्वारा संपादित पत्र ’विक्रम’ (संपादक- पं. सूर्यनारायण व्यास) की नियमित लेखिका थीं। उनकी आरंभिक अनेक रचनाएँ ’विक्रम’ में प्रकाशित हुई हैं। उनके लिखे असंख्य पत्र मेरे पास सुरक्षित हैं। यहाँ मैं उसमें से सिर्फ चार पत्र दे रहा हूँ। प्रसंग क्योंकि बेहद महत्त्वपूर्ण है।
प्रायः हम हिन्दी वाले हिन्दी के साहित्यकारों का देहावसान हो जाने पर, दिवंगत हो जाने पर गाल पीट-पीट कर, रो-गा कर फिर शांत हो जाते हैं। पर कोई साहित्यकार अगर अर्थाभाव में चला जाए, तो उसके परिवारजनों की सुध भी नहीं लेते। जबकि इसके ठीक विपरीत खेल-जगत में भी किसी खिलाड़ी के रिटायर्ड होने पर प्रायः उसके लिए अनेक किस्म के, अनेक तरह के 'चैरिटी मैच' और धन इकठ्ठा करने के तरीके खोज लिए जाते हैं। राजनेताओं के परिवार की मदद के लिए भी असंख्य लोग खड़े हो जाते हैं।
संगीतकार भी प्रायः अपने गुरूजन या निर्माताजन के लिए किसी-न-किसी प्रकार का धन इकठ्ठा करने का प्रयोजन खोज ही निकालते हैं। पर हिन्दी साहित्य के साहित्यकार अपने किसी 'कॉमरेड' के जाने पर ज्यादा से ज्यादा शासन की ओर मुँह ताकने लगते हैं। मानो, सिर्फ शासन का ही ठेका हो कि उस दिवंगत साहित्यकार के परिवार की देख-रेख करने का। क्या ये दायित्व साहित्यबंधुजनों का नहीं है? और खासतौर पर संपन्न साहित्यकारों का?
राजशेखर व्यास बताते हैं कि वर्षों पूर्व यह विचार पं. सूर्यनारायण व्यास ने स्व-संपादित ’विक्रम’ (मासिक) में रखा था। प्रसंग दुःखद था। हिन्दी के एक महान कवि, आत्मप्रचार-प्रसार से सर्वथा दूर, प्रो. रमाशंकर शुक्ल (जो कवि नरेश मेहता, मुक्तिबोध के भी गुरु थे) का असमय देहावसान हो गया था। उनकी दो छोटी-छोटी बेटियाँ, एक बेटा और एक मुसीबत की मारी पत्नी को अपने पीछे छोड़ गये थे। व्यास जी ने एक विचार हिन्दी के अनेकशः साहित्यकारों को उस समय लिख भेजा था, जिनमें निराला, उग्र, महादेवी, पंत, प्रो. रामकुमार वर्मा, प्रभाकर माचवे आदि प्रमुख थे।
विचार यह था कि ये सब रचनाकार अपनी एक-एक कृति प्रकाशनार्थ बगैर रॉयल्टी लिए, निःशुल्क प्रदान करें। उसके प्रकाशन, कागज, स्याही और वितरण का सारा खर्च ’विक्रम’ प्रेस और स्वयं व्यास जी वहन करेंगे और उससे होने वाली आय ’हृदय जी’ के परिवार को भेंट कर दी जायेगी। इसमें किसी के मुँह ताकने की जरूरत भी नहीं थी, न ही शासन के आगे हाथ पसारना था। व्यास जी इससे पूर्व अनेक साहित्यकारों की आर्थिक मदद कर चुके थे और करते रहते थे, जिनमें- ’उग्र जी महाराज’, बनारसी दास चतुर्वेदी, महेश शरण जौहरी ’ललित’, प्रो. भगवत शरण उपाध्याय, रतनलाल जोशी जैसे रचनाधर्मी थे। उनकी इस योजना का हिन्दी जगत ने सम्यक् स्वागत किया। इसमें पहली रचना की ’समिधा’ महादेवी को ही देनी थी और वे चूक गईं।
वह बताते हैं कि पहले दोनों पत्र उसी संदर्भ में हैं। हालांकि वे चूक गईं, उस पर ’उग्र’ की दिलचस्प टिप्पणी भी दृष्टव्य है- ( आवरण'' नाटक से।) - 'एक सुन्दर और स्वर्गीय सहकर्मी या हमपेशा के स्वजनों के सहायतार्थ अपने इस नाटक 'आवारा' का सर्वाधिकार 'सत्याहित्यिक-सेवक समाज' को सौंप देने में मुझे हर्ष-विमर्ष या आत्मोत्कर्ष का अनुभव हो, इतना भावुक मस्त मैं नहीं। हिन्दी में क्या, सारे भारतीय-साहित्य में अपने ’कामरेडों’ की गौरव रक्षा के लिये (स्वयं साहित्यिकी द्वारा) यह अभिनव आयोजन है। और इस स्निग्ध मौलिकता की माला में पहला मनका मेरे ही मन के रूखे-सुखे फूल का है, मेरे हृदय के ठहरने की भूमिका यही है मात्र....... और भपकी।
मैं कहता हूँ कि चूक गयीं सुश्री महादेवी वर्मा। इस मौलिकता की माला में पहला मणि उनका होना चाहिये था, साथ ही अच्छे चूके श्री ’निरालाजी’ श्री रामकुमार वर्मा, श्री हरिभाऊ उपाध्याय मेरे मित्र और परिचित। उक्त सभी सहृदयों ने ’हृदय’ श्रद्धांजली में अपने-अपने रचना कुसुम सजाने का वादा किया था। वे शौक से पंडित सूर्यनारायण व्यास के पास प्रयास-प्रसून प्रथम पूजार्थ प्रेषित कर सकते थे, मगर कहा जाता है- कोई अस्वस्थ रहा, कोई बहुव्यस्त तथा दीगर महामस्त। सो मैं अपने सारे मित्रों की असुविधाओं से प्रतिष्ठित और मौलिक हूँ। इस पुस्तक के प्रकाशन में जो भी व्यय लगा है उसे पंडित सूर्यनारायण व्यास ने ’पर्सनल पर्स’ से प्रस्तुत किया है और ऊपरी टीमटाम रखते हुए भी मैं जानता हूँ, स्वाभिमानी व्यास जी पैसे से गरीब हैं सो केवल गरीबी की कठोर कमाई और लौह लिखाई से - प्रभु के प्रसाद से यह स्वस्थ - सुरभित - सुमन - माला सजायी जायेगी।
पंडित हरिभाऊ उपाध्याय से अनायास ही प्राप्त सुन्दर सहयोग द्वारा ’हृदय श्रद्धांजली’ की तथा ’सत्साहित्यिक सेवक समाज’ की अन्य सभी पुस्तकें ’सस्ता साहित्य मंडल’ अपनी देखरेख में छपाकर निजी निरीक्षण में उनकी बिक्री या विस्तार की व्यवस्था भी करेगा। पुस्तकों की बिक्री से जो आमदनी होगी, उसमें से अगली पुस्तक के प्रकाशन का खर्चा निकाल, बेचकों को जो कमीशनादि मुनासिब दे देने के बाद जो धन शेष रहेगा, हर संस्मरण का, हाँ - वह लेखक विशेष के स्वजनों को, विनय से समर्पित कर दिया जायेगा। इसी तरह ’आवारा’ की सारी बचत दिव्यात्मा ’हृदयजी’ के स्वजनों को सदैव सौंप दी जाया करेगी, ’हृदय-श्रद्धांजली’ में 12 पुस्तकें उनके परिवारियों को भेंट की जायेगी।' ( 'उग्र' लिखित आवारा नाटक 'भूमिका और भपकी' से)
राजशेखर व्यास महादेवी जी के इसी विषय पर लिखे वे तीनों पत्र क्रमशः इस प्रकार दे रहे हैं-
(पहला पत्र)
तारीख : 5/12/41
मान्य भाई,
कृपापत्र के लिए धन्यवाद, इससे पहले तो मुझे आपका कोई पत्र नहीं मिला, केवल भाषण की प्रति प्राप्त हुई थी।
मई में मैंने आपको संग्रह के संबंध में लिखा था, पर उत्तर की प्रतीक्षा न कर सकी। फिर ग्रीष्मावकाश पर पहाड़ी गाँवों में घूमती रही, जहाँ पर पहुँचने की सुविधा ही नहीं थी। जुलाई में जबसे लौटी हूँ तब से अब तक मलेरिया से पीड़ित हूँ। इसीसे आपको न लिख सकी, कुछ स्वस्थ होते ही मैं संग्रह ठीक करके भेज दूंगी, परन्तु उसकी प्रतीक्षा करने पर सम्भवतः आप ’ह्दय जी’ के श्राद्ध दिवस तक कुछ न छपा सकें, क्या यह उचित न होगा कि आप किसी और पुस्तक में कार्य प्रारम्भ कर दें?
मेरे लिए तो यह गौरव की बात होती कि मेरी ही भेंट पहली हो, पर यदि यह न हो सके तो किसी की भेंट तो रहे।
यदि जनवरी तक भेज सकी तो यही संग्रह छप जायगा। आशा है आप प्रसन्न होंगे।
'यामा' कुछ दिन बाद भेज सकूंगी। पिछली प्रतियाँ समाप्त हो चुकने के कारण नई जिल्द बंध रही है।
शुभेच्छुका
महादेवी
(दूसरा पत्र)
मान्य भाई,
पत्र मिला, उत्तर में विलंब होने में मेरी अस्वस्थता थी। आशा है आप क्षमा करेंगे। आपकी योजना मुझे पसंद आई, क्योंकि निरे विचारों में मेरी भी आपकी तरह अरूचि है, हमारे विचार जब तक क्रिया की कसौटी पर नहीं कसे जाते तब तक उनके खरेपन की स्थापना उचित नहीं।
संग्रह मैं शीघ्र भेजने का प्रयत्न करूँगी, कुछ कविताएं पहले ही मैं दे चुकी हूँ अन्यथा उन्हीं में से देने का प्रयास करती। उत्कृष्ट में से चुनाव करना ही होगा। इस सम्बन्ध में भी आप मत देंगे।
आशा है आप प्रसन्न होंगे।
शुभेच्छुका
महादेवी
1, एल्गिन रोड, प्रयाग
(तीसरा पत्र)
तारीख : 9/3/42
मान्य भाई,
स्थानीय हिन्दी मंदिर में एक सज्जन आपका संदेश लाये थे। उनके द्वारा उत्तर भिजवा चुकी हूँ। पिछले सप्ताह पत्र भी लिख चुकी हूँ, परन्तु अब तक आपका निश्चय न जान सकी।
कोई ग्रन्थ रचना मिल गई हो तो अच्छा ही है, क्योंकि उस दशा में मैं यहां के कार्य से अवकाश पाकर अपको संग्रह भेज सकूंगी।
आशा है आप प्रसन्न होंगे।
शुभेच्छुका
महादेवी
चौथा पत्र उनकी अन्य रचनाओं के संदर्भ में है जो उन्होंने ’विक्रम’ में प्रकाशनार्थ भेजी थी। उसमें तात्कालीन राजनैतिक परिस्थिति पर (वर्ष 43) उनकी टिप्पणी और ’बापू’ के प्रति उनकी श्रद्धा-भावना देखते ही बनती है।
इन्दौर,
26/03/43
मान्य भाई,
आपके पत्रों का उत्तर न देने के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ। किसी अवज्ञा के कारण नहीं, किन्तु मेरे पत्र कहीं पहुँच ही नहीं पाते। आज के राजनीतिक वातावरण में मेरे जैसे व्यक्ति का, संदेह की परिधि से बाहर रहना सम्भव नहीं। उस पर देहात में मेरा रिलीफ काम चल रहा है। इन्हीं सब कारणों से मुझे बहुत सी असुविधायें सहनी पड़ती हैं। पत्र न लिखने पर दूसरे इन असुविधाओं से बच जाते हैं। आशा है आप मेरी स्थिति को समझ कर क्षमा करेंगे।
;वर्ष 1942 में अगस्त क्रांति के बाद मैने प्रयाग से आपके पास कविता भेज दी थी परन्तु मुझे सन्देह है कि वह आप तक पहुँचने में बहुत समय लेगी। यहां मैं विशेष कार्यवश केवल एक दिन के लिए आई हूँ। सम्भ्व है यहां से भेजने पर शीघ्र मिल जाये, यही सोच कर उसकी एक प्रतिलिपि और भेज रही हूँ।
बापू के व्रत के दिनों में मैं इक्कीस कवितायें लिखी थीं क्योंकि मेरी प्रार्थना का रूप कुछ और हो ही नहीं सकता था - यह उनमें एक है।
आपको अच्छी लगे तो ’विक्रम’ के लिए छापियेगा अन्यथा सूचना-पत्र मिलने पर मैं और कुछ भेज दूंगी।
आशा है आप प्रसन्न होंगे।
मैं कल ही प्रयाग लौट जाऊँगी। अतः उत्तर वहीं दीजिएगा।
शुभेच्छुका
महादेवी
राजशेखर व्यास बताते हैं कि यूं तो महादेवी जी अनेक बार हमारे घर भारती.भवन भी पधारी हैं। मुझे तो मेरे बचपन की एक छोटी सी स्मृति है, जो आज तक मुझे मन मस्तिष्क में ताजा है । जब वे वर्ष 1968 में उज्जैन ’विक्रम विश्वविद्यालय’ (इसके संस्थापक भी व्यास जी ही थे) के ’दीक्षांत समारोह’ में आई थीं और घर भोजन के लिए पधारी थीं। शुभ्र-वसना महादेवी की वह सरस्वती-सी छवि, मेरे बाल मन पर बरसों अंकित रही लेकिन महादेवी जी के इन चार पत्रों के साथ पिता के पत्र-संग्रह में एक पत्र और इन्हीं पत्रों के साथ ’नत्थी’ मिला है। इस पत्र को यहाँ देना समीचीन तो नहीं होता, लेकिन इस पत्र का रहस्य चूँकि मैं स्वयं भी नहीं खोज पा रहा हूँ, सोचता हूँ, शायद कोई पाठक, पुराना विद्वान खोज सके या प्रकाश डाले, इसलिए दे रहा हूँ। विवाद खड़ा करना मेरा लक्ष्य नहीं है। हाँ सत्य का शोधक हूँ और सत्य खोजना मेरा लक्ष्य अवश्य है। इस पत्र का रहस्य अबुझ न रह जाये, एतदर्थ दिया जा रहा है-
दिल्ली
8:30 बजे प्रातः
10/01/51
परम प्रिय मित्र,
जय भारत! जय राम राज्य!
1- आपकी भेजी पुस्तक मिली - धन्यवाद। उसके बारे में नोट लिखा जायगा और आपकी मार्मिक भूमिका भी आपके नाम से उर्दू तर्जुमा (तरजमा) छपेगी। हम लोग ज्योतिष विद्या की उन्नति चाहते हैं और ज्योति के उपासक है।
2- दिसम्बर शाम (शनिवार) को श्री महानदेवी वर्मा एम. ए. प्रयाग से यहां के लिए चलने के को तैयार हुई थीं। सारा सामान ले लिया। आठ बक्से दो पुलंदे। घरवालों ने समझा कि वह तो सर्वथा कहीं जा रही है। रोक दी गईं। क्या वे कभी और कब तक यहां आ सकेंगी? इसका उत्तर विचारपूर्वक दीजियेगा। उनके बिना भविष्य का काम हो ही नहीं सकता। वे विधवा हैं। मेरे साथ गंधर्व विवाह करने का पत्र भेज चुकी हैं। यह भेद अभी प्रकट न होने पावे। उत्तर की प्रतीक्षा है।
स्वामी पारसनाथ
'रियासत' प्रेस
दिल्ली
भवदीय
पुनश्च- नये विधान में एक यह कानून बन गया है कि गैर शादीशुदा आदमी - नायब सदर, सदर और वाइसराय नहीं बन सकता। इसलिये शादी करनी ही होगी। फिर वे तो मेरी ’’अर्धक अरधांग’’ हैं। स्पमि दवूपमि हैं।
-पारसनाथ
यह पत्र भी महादेवीजी के पत्रों के साथ संलग्न था। यह स्वामी पारसनाथ कौन हैं? और यह पत्र स्व. पं. व्यास जी ने महादेवी वर्मा के पत्रों के साथ ही क्यों संलग्न रखा? क्या महादेवी जी ने कभी अपने वैधव्य के बाद पुनर्विवाह का सोचा था? या यह पत्र इस अजाने आदमी का अनर्गल प्रलाप है, अपने मन से गढ़ी ’राजकमल चौधरी सी कहानी’ है, पर ये रियासत प्रेस (जिसे उसने ’रियास्त प्रेस’ लिखा है) कहाँ था? पता तो दिल्ली का दिया है। और ये सज्जन कौन थे? क्या हिन्दी-उर्दू के कोई बड़े लेखक थे, जो नाम बदल-बदल कर पत्र लिख रहे हैं? ये सब बाते सोचने को विवश करती है। वाचस्पति पाठक, गंगा भाई, राम जी भाई, रतनलाल जी जोशी होते तो पूछता भी। क्या है ’हिन्दी की मीरा’ का यह अबूझ रहस्य? और कौन थे ये पारसनाथ?
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