खुद के पैसे से की लोगों की मदद, मिलिए महिला अधिकारों और हिन्दी की पैरोकार डॉ. शशि राव से
डॉ. शशि राव के पिता डॉक्टर लक्ष्मी प्रसाद सिन्हा झारखंड के हजारीबाग जिले के मशहूर चिकित्सक और समाजसेवी थे. डॉक्टर पिता ने मानवता की सेवा के लिए पूरी जिंदगी लगा दी. उन्होंने अपने बेटों और बेटियों को भी मानवता और गरीबों की सहायता का पाठ पढ़ाया. पिता के बताए रास्ते पर चलते हुए डॉ. शशि राव ने दिन रात मेहनत की. पिता डॉक्टर लक्ष्मी प्रसाद सिन्हा अपने इलाके के इकलौते डॉक्टर थे जो गरीबों का मुफ्त इलाज करते. इस वजह से उन्हें इलाके में बहुत सम्मान मिलता था. गांधीवादी विचारों का पालन करते हुए डॉ. सिन्हा समाज के कल्याण के लिए ऐसे गांव का चुनाव किया जो अति पिछड़ा था. डॉ. शशि राव भी समाज को कुछ लौटाना चाहती थी. इसलिए उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में अपना भविष्य तलाशना शुरू किया. स्कूली शिक्षा गांव के ही मिडिल और हाई स्कूल में हासिल की. शिक्षा की लगन ऐसी कि आज से 55 साल पहले डॉ. राव प्रतिदिन 52 मील की दूरी तय कर हिन्दी में बी ए ऑनर्स, संत कोलंबस कॉलेज से किया. इसके बाद रांची विश्वविद्यालय से एमए की पढ़ाई पूरी की. उस दौर में तमाम मुश्किलातों को दरकिनार करते हुए अपना पूरा ध्यान शिक्षा हासिल करने में लगा दिया. पढ़ाई का सिलसिला वक्त के साथ और बढ़ता गया. उन्होंने पीएचडी अंतरराष्ट्रीय स्तर सुविख्यात हिन्दी सेवी पद्म भूषण स्व. डॉ. फादर कामिल बुल्के की निर्देशन में रामकाव्य पर किया. इसके बाद एमएड अन्नामलाई यूनिवर्सिटी से किया.
अध्यापन अनुभव ---48 वर्षों से विश्वविद्यालय एवं शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालयों में.
अहिन्दी भाषी क्षेत्र सरायकेला, सिंहभूम, बिहार अब झारखंड में प्रध्यापिका हिन्दी के प्रचार-प्रसार विकास हेतु समर्पित. डॉ. शशि राव 55 वर्षों से हिन्दी की सेवा में लगी हैं.
समाज सेवा
सन 1980 से गरीब झोपड़पट्टी के बच्चों के संपूर्ण विकास के लिए प्रियदर्शिनी चैरिटेबल ट्रस्ट स्थापना की. और अपने ही आंगन में गरीब बच्चों को पढ़ाने और लिखाने का काम शुरू किया. बच्चों को पढ़ाने कॉलेज में पढ़ाने के बाद करती.
अपने वेतन की आधी रकम को ऐसे बच्चों के लिए खर्च करना जो आर्थिक रूप से बहुत कमजोर हैं. डॉ. राव उन्हें उत्प्रेरित करती और सरकारी स्कूलों में जाकर उन्हें प्रवेश दिलाती. उनके द्वारा पढ़ाई कई गरीब छात्र-छात्राएं आज उच्च पदों पर काम कर रहे हैं. डॉ. राव की देखरेख में पढ़ी लड़की प्रियंका आज इंजीनियर के पद पर काम कर रही हैं.
24 साल तक पढ़ाने के बाद उन्होंने समाज के प्रति और योगदान देने के लिए सेंट जेवियर्स कॉलेज ऑफ एजुकेशन से त्याग पत्र देकर स्वतंत्र रूप से समाज सेवा में जुट गईं. उपेक्षित हिन्दी और अधिक विकसित करने के लिए एंव उसको सम्मान उचित दर्जा दिलाने के लिए साल 12 सितंबर 2012 को जन जागृति अभियान के तहत बिहार की राजधानी पटना के गांधी मैदान से एक विशाल रैली का आयोजन किया. इस रैली के जरिए हिन्दी की दयनीय की स्थिति पर चिंता जताई गई और इस विषय पर एक ज्ञापन बिहार के राज्यपाल को भी सौंपा गया. हिन्दी के प्रति लगन ऐसी कि वे ऐसे छात्र-छात्राओं को भी हिन्दी सीखाने का बीड़ा उठाती हैं जो अहिन्दी भाषी हैं. चाहे वो कुर्जी अस्पताल की अहिन्दी भाषी नर्स हों, या कॉन्वेंट की अहिन्दी भाषी शिक्षक-शिक्षिकाएं हों.
"सच कहूं तो प्रियदर्शिनी कोई संस्था, कार्यालय या व्यापार संस्थान नहीं है. यह एक स्वयं अनुभूत एक प्रतिक्रिया के रूप में स्थापित हुई. कम उम्र से ही परिवार में अपने माता-पिता एंव परिवार के सदस्यों को गरीबों के लिए काम करते हुए देखा तो बचपन में ही ऐसी भावना उभरी कि मैं भी अपने पिता की तरह गरीबों की सेवा करूंगी. झारखंड के जंगलों के बीच पली बढ़ी, उच्च शिक्षिता के रूप में उभरने वाली बालिका जो अब एक प्रोफेसर बन चुकी थी. पढ़ना-पढ़ाना और शोषण के खिलाफ आवाज उठाना जिसका धर्म बन चुका था. अचानक एक दिन अपने ही घर के आंगन (पटना का घर) में गरीब बच्चों को जो तीन वर्ष से लेकर 14 वर्ष के थे उन्हें बुलाया. उनको इकट्ठा कर उनके पूर्ण विकास के लिए कार्य करना शुरू किया. और यह दिन था 9 मई 1980"
जीवन का सफर इस तरह से जारी रहा है और उन्हें पटना के शिक्षण प्रशिक्षण महाविद्यालय में काम करने के लिए बुलाया गया. विभिऩ्न महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों में अध्यापन करने के बाद उन्होंने फैसला किया कि वे कहीं भी नौकरी नहीं करेंगी. नारी शक्तिकरण और गरीब बच्चों के विकास के लिए अपना समय दूंगी और इसके बाद उनका यह सफर आज भी जारी है.
डॉ. राव का कहती हैं कि वे पटना के दानापुर खगौल से सटे गांवों में महिला सशक्तिकरण के लिए कई आयोजन किए. न्यूनतम मजदूरी के विरोध में कई बार हताहत भी हुईं. 1997 में भी महिला आरक्षण की रैली के दौरान उन्हें चोटें आईं थी. हिन्दी के विकास, महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई और बच्चों को शिक्षा देने के लिए पूरा जीवन लगाने वाली शशि राव ने एक बार भी राजनीति से जुड़ने के बारे में नहीं सोचा. ना ही उन्होंने कभी किसी सरकारी या गैर सरकारी संगठन से कभी आर्थिक मदद ली. बल्कि अपनी जेब से पैसे लगाकर लोगों की सेवा की.
हिन्दी को लेकर कुछ मुख्य बातों पर डॉ. शशि राव जोर देती हैं.
1) हिन्दी को अपना स्थान मिले
2) सरकारी- गैर सरकारी संस्थानों में हिन्दी कार्याकारी भाषा के रूप में इस्तेमाल हो
3) गाड़ियों के नंबर प्लेट हिन्दी में हो
4) उच्च एंव तकनीकी शिक्षा का माध्यम हिन्दी हो
5) अन्य भारतीय भाषाओं का समुचित विकास हो
6) अंग्रेजी सीखें लेकिन हिन्दी को बलि चढ़ाकर नहीं
7) रूस, जापान, जर्मनी की तरह अपनी राष्ट्रभाषा का उचित स्थान एंव सम्मान हो
8) किसी भाषा का विरोध न कर हिन्दी का विकास किया जाए
9) अनुवाद और शोध कार्य को बढ़ावा दिया जाए
10) नैतिक शिक्षा पर जोर दिया जाए. ताकि भारत की भावी पीढ़ी एक सुयोग्य नागरिक एंव इंसान बने
1970 से ही शशि राव समाज कल्याण, महिला कल्याण, बाल विकास और हिन्दी की उन्नति के लिए अपना जीवन लगा रही हैं. महिला दिवस के अवसर पर हम भी उनके योगदान का आदर करते हुए उन्हें उनके अनेकों बलिदान के लिए सलाम करते हैं. समाज में डॉ. राव जैसी और भी महिलाओं की जरूरत है जो समाज को बेहतर बनाने में योगदान दे सकें. डॉ. राव ने न केवल समाज की बेहतरी के लिए अपना बहुमूल्य समय लगाया बल्कि आर्थिक तौर पर भी योगदान करने से पीछे नहीं हटी. नारी शक्ति के इस रूप को हमारा सलाम.