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आज मैं अकेला हूँ, अकेले रहा नहीं जाता: त्रिलोचन

आज मैं अकेला हूँ, अकेले रहा नहीं जाता: त्रिलोचन

Sunday August 20, 2017 , 6 min Read

त्रिलोचन को हिंदी सॉनेट का शिखर पुरुष भी कहा जाता है। उनके जीवन के आखिरी दिन गुमनाम व्यक्ति की तरह ज्वालापुर (हरिद्वार), लोहामंडी की तंग गलियों में बड़े कष्ट के साथ बीते। उस शख्सियत यानी त्रिलोचन का आज जन्मदिन है। 

त्रिलोचन (फाइल फोटो)

त्रिलोचन (फाइल फोटो)


त्रिलोचन हिंदी कविता के शीर्ष कवियों में थे। उन्होंने लगभग 550 सॉनेट के साथ ही कहानी, गीत, ग़ज़ल और आलोचना से भी हिंदी साहित्य को समृद्ध किया।

उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय से एमए अंग्रेजी की एवं लाहौर से संस्कृत में शास्त्री की डिग्री प्राप्त की थी। उत्तर प्रदेश के छोटे से गांव से बनारस विश्वविद्यालय तक अपने सफर में उन्होंने दर्जनों पुस्तकें लिखीं और हिंदी साहित्य को समृद्ध किया।

स्मृति-शेष, आधुनिक हिंदी कविता की प्रगतिशील त्रयी के तीन स्तंभों में एक त्रिलोचन का आज जन्मदिन है। उन्हें हिंदी सॉनेट का शिखर पुरुष भी कहा जाता है। उनके जीवन के आखिरी दिन गुमनाम व्यक्ति की तरह ज्वालापुर (हरिद्वार), लोहामंडी की तंग गलियों में बड़े कष्ट के साथ बीते। मधुमेह, ब्लड प्रेशर, ट्यूमर से जूझते हुए जिन दिनो वह बिस्तर पर अपने कठिन दिन काट रहे थे, परिजनों के अलावा उन्हें कोई पूछने वाला नहीं था। सूचनाएं मिलने के बावजूद खुदगर्ज प्रशासन ने भी उस दरवाजे झांकने की जहमत मोल नहीं ली। उल्लेखनीय है कि वह हिंदी कविता के शीर्ष कवियों में थे। उन्होंने लगभग 550 सॉनेट के साथ ही कहानी, गीत, ग़ज़ल और आलोचना से भी हिंदी साहित्य को समृद्ध किया।

सुल्तानपुर (उत्तर प्रदेश) की चिरानी पट्टी में 20 अगस्त 1917 को जन्मे त्रिलोचन का मूल नाम वासुदेव सिंह था। उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय से एमए अंग्रेजी की एवं लाहौर से संस्कृत में शास्त्री की डिग्री प्राप्त की थी। उत्तर प्रदेश के छोटे से गांव से बनारस विश्वविद्यालय तक अपने सफर में उन्होंने दर्जनों पुस्तकें लिखीं और हिंदी साहित्य को समृद्ध किया। वह बाजारवाद के धुर विरोधी थे। हालांकि उन्होंने हिंदी में प्रयोगधर्मिता का समर्थन किया। उनका कहना था, भाषा में जितने प्रयोग होंगे, वह उतनी ही समृद्ध होगी। उन्होंने हमेशा नवसृजन को बढ़ावा दिया। वह नए लेखकों के लिए उत्प्रेरक थे। 09 दिसंबर 2007 को ग़ाजियाबाद में उनका निधन हो गया। जीवन के आखिरी दिनो में उनके अकेलेपन के शब्दों से गुजरते हुए आंखें अनायास नम हो उठती हैं-

आज मैं अकेला हूँ, अकेले रहा नहीं जाता।

जीवन मिला है यह/रतन मिला है यह,

धूल में/कि/फूल में/मिला है/तो/मिला है यह,

मोल-तोल इसका/अकेले कहा नहीं जाता।

सुख आये दुख आये/दिन आये रात आये/फूल में/कि/धूल में

आये/जैसे/जब आये/सुख दुख एक भी/अकेले सहा नहीं जाता।

त्रिलोचन जी अरबी, फारसी में भी निष्णात थे। पत्रकारिता में भी सक्रिय रहे। हंस, आज जैसी पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया। उनका पहला कविता संग्रह धरती 1945 में प्रकाशित हुआ था। 'जीने की कला', 'मेरा घर', 'ताप के ताए हुए दिन', 'चैती', 'देशकाल', 'अनकहनी भी कुछ कहनी है', 'धरती', 'दिगंत, 'गुलाब और बुलबुल', 'अरधान', 'उस जनपद का कवि हूँ', 'फूल नाम है एक' आदि उनकी लोकप्रिय पुस्तकें हैं। वह वर्ष 1995 से 2001 तक जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे। इसके अलावा वाराणसी के ज्ञानमंडल प्रकाशन में भी काम किया। हिंदी और उर्दू के कई शब्दकोषों की रचना में योगदान दिया। हिंदी साहित्य को उन्होंने ऐसी-ऐसी अनमोल रचनाएं दीं, जो सहजतः जुबान पर एक बार चढ़ जाएं तो फिर जीवन में कभी भूलें नहीं-

तुलसी बाबा, भाषा मैंने तुमसे सीखी

मेरी सजग चेतना में तुम रमे हुए हो।

कह सकते थे तुम सब कड़वी, मीठी, तीखी।

प्रखर काल की धारा पर तुम जमे हुए हो।

और वृक्ष गिर गए, मगर तुम थमे हुए हो।

त्रिलोचन को 1989-90 में हिंदी अकादमी ने शलाका पुरस्कार से सम्मानित किया। हिंदी साहित्य में उत्कृष्ट योगदान के लिए उन्हे 'शास्त्री' और 'साहित्य रत्न' जैसी उपाधियों से समादृत किया जा गया। वर्ष 1982 में 'ताप के ताए हुए दिन' के लिए वह साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित हुए। इसके अलावा उन्हें उत्तर प्रदेश हिंदी समिति पुरस्कार, हिंदी संस्थान सम्मान, मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, शलाका सम्मान, भवानी प्रसाद मिश्र राष्ट्रीय पुरस्कार, सुलभ साहित्य अकादमी सम्मान, भारतीय भाषा परिषद सम्मान इत्यादि से भी सम्मानित किया गया था। हिन्दी कविता के इतिहास में शमशेर, नागार्जुन, केदार और त्रिलोचन का अलग महत्व रहा है। उन्होंने सॉनेट छंद को भारतीय शब्द-स्वभाव में समरंजित किया। देखिए, उनकी सॉनेट के ये सहज-सहज शब्द -

इधर त्रिलोचन सॉनेट के ही पथ पर दौड़ा;

सॉनेट, सॉनेट, सॉनेट, सॉनेट; क्या कर डाला

यह उस ने भी अजब तमाशा। मन की माला

गले डाल ली। इस सॉनेट का रस्ता चौड़ा

अधिक नहीं है, कसे कसाए भाव अनूठे

ऐसे आएँ जैसे क़िला आगरा में जो

नग है, दिखलाता है पूरे ताजमहल को;

गेय रहे, एकान्विति हो। उस ने तो झूठे

ठाटबाट बाँधे हैं। चीज़ किराए की है।

स्पेंसर, सिडनी, शेक्सपियर, मिल्टन की वाणी

वर्ड्सवर्थ, कीट्स की अनवरत प्रिय कल्याणी

स्वर-धारा है, उस ने नई चीज़ क्या दी है।

सॉनेट से मजाक़ भी उसने खूब किया है,

जहाँ तहाँ कुछ रंग व्यंग्य का छिड़क दिया है।

उनका कहना था - 'जनता की भाषा यदि कवि नहीं लिख रहा है तो वह किसका कवि होगा। कवि को जनता से जुड़ना चाहिए। तुलसीदास हैं, मीरा हैं, रैदास हैं, कबीर हैं, दादू साहब हैं। ये सब भाषा के द्वारा ही जनता के जीवन से जुड़े। ...सारनाथ, जब जी करता है हो आता हूँ। वहाँ अकेलापन और अकेलेपन की चुहल भी है। प्रायः छुट्टियाँ वहीं कहीं निर्जन में पढ़ते-लिखते या सोचते गुज़ार देता हूँ। मेरे मन में भी अथाह दुःख है। उसे सूम के धन की तरह छिपाए रहता हूँ। लगता है शायद यह मेरी भूल हो।' हमारे देश में आज भी बड़ी आबादी साक्षरता के हाशिये पर है। एक कवि उसे किस तरह, मार्मिकता से रेखांकित करता है, एक ग्रामीण अनपढ़ युवती पर लिखीं त्रिलोचन की ये जीवंत पंक्तियां बताती हैं, वह लोकजीवन में भी गहरे रचे-बसे हुए थे-

चम्पा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती

मैं जब पढ़ने लगता हूँ वह आ जाती है

खड़ी खड़ी चुपचाप सुना करती है

उसे बड़ा अचरज होता है:

इन काले चिन्हों से कैसे ये सब स्वर

निकला करते हैं।

चम्पा सुन्दर की लड़की है

सुन्दर ग्वाला है : गाय भैसें रखता है

चम्पा चौपायों को लेकर

चरवाही करने जाती है

चम्पा अच्छी है

चंचल है

न ट ख ट भी है

कभी कभी ऊधम करती है

कभी कभी वह कलम चुरा देती है

जैसे तैसे उसे ढूंढ कर जब लाता हूँ

पाता हूँ - अब कागज गायब

परेशान फिर हो जाता हूँ

चम्पा कहती है:

तुम कागद ही गोदा करते हो दिन भर

क्या यह काम बहुत अच्छा है

यह सुनकर मैं हँस देता हूँ

फिर चम्पा चुप हो जाती है

उस दिन चम्पा आई, मैने कहा कि

चम्पा, तुम भी पढ़ लो

हारे गाढ़े काम सरेगा

गांधी बाबा की इच्छा है -

सब जन पढ़ना लिखना सीखें

चम्पा ने यह कहा कि

मैं तो नहीं पढ़ूंगी

तुम तो कहते थे गांधी बाबा अच्छे हैं

वे पढ़ने लिखने की कैसे बात कहेंगे

मैं तो नहीं पढ़ूंगी

मैने कहा चम्पा, पढ़ लेना अच्छा है

ब्याह तुम्हारा होगा, तुम गौने जाओगी,

कुछ दिन बालम संग साथ रह चला जायेगा जब कलकत्ता

बड़ी दूर है वह कलकत्ता

कैसे उसे संदेसा दोगी

कैसे उसके पत्र पढ़ोगी

चम्पा पढ़ लेना अच्छा है!

चम्पा बोली : तुम कितने झूठे हो, देखा,

हाय राम, तुम पढ़-लिख कर इतने झूठे हो

मैं तो ब्याह कभी न करूंगी

और कहीं जो ब्याह हो गया

तो मैं अपने बालम को संग साथ रखूंगी

कलकत्ता में कभी न जाने दूंगी

कलकत्ता पर बजर गिरे।

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