बिहार के गरीब बच्चों की 'साइकिल दीदी' सुधा वर्गीज
मुसहर समुदाय के उद्धार में कुछ इस तरह जुटी हैं पद्मश्री सुधा वर्गीज...
बिहार के बच्चों की 'साइकिल दीदी' यानी 'नारी गुंजन' की अध्यक्ष पद्मश्री सुधा वर्गीज आज किसी परिचय की मोहताज नहीं है। महिलाओं, खासकर गरीब मुसहर-दलित समुदाय के लिए उन्होंने अपने बूते विद्यालयों की चेन खड़ी कर दी है। इन विद्यालयों की छात्राएं यूरोप, जापान तक की खेल स्पर्धाओं में मेडल जीत रही हैं। इस समुदाय के लड़कों की एक दर्जन से क्रिकेट टीमें अलग अपना हुनर दिखा रही हैं। 'साइकिल दीदी' के साथ इस वक्त बिहार में नौ सौ से अधिक स्वयं सहायता समूह काम कर रहे हैं।
सुधा वर्गीज मूलतः केरल की रहने वाली हैं। वह शुरू से ही मुसहर समुदाय के उद्धार में जुटी रही हैं। वह कहती हैं कि जब वह केरल से बिहार आई थीं, उस वक्त उन्हें जातीय भेदभाव के बारे में ज्यादा कुछ पता नहीं था।
पद्मश्री सुधा वर्गीज वैसे तो देश-दुनिया की बड़ी शख्सियतों में शुमार हो चुकी हैं लेकिन पिछले तीस वर्षों से बिहार के गरीब मुसहर समुदाय के लिए एक बड़ा प्रेरणा स्रोत बनी हुई हैं। बच्चे इन्हें प्यार से ‘साइकिल दीदी’ कहते हैं। उनके साथ इस वक्त बिहार में लगभग 900 स्वयं सहायता समूह विभिन्न सामाजिक कार्यों में हाथ बंटा रहे हैं। बिहार के महादलितों में मुसहर समुदाय सबसे ज्यादा उपेक्षित रहा है। बिहार और उत्तर प्रदेश के गांवों में आज भी उनकी बस्तियां आम वर्ग के लोगों की आबादी से अलग बसाई गई होती हैं। उन्हें न सरकारों से कोई मदद मिलती है, न सामाजिक स्तर पर किसी तरह का मान-सम्मान। इनकी घरेली हालत फटेहाल मजदूरों से भी गई-गुजरी रहती है।
सच कहें तो इनकी दीन-हीन दशा ने ही एक वक्त में सुधा वर्गीज के दिल-दिमाग को पहली बार झकझोरा था। मुसहर जाति के लोग खास तौर से बिहार और उत्तर प्रदेश में मिलते हैं। ये लोग अनुसूचित जाति के अन्तर्गत सबसे गरीब तबके होते हैं। इनको 'आर्य', 'बनबासी' भी कहा जाता है। पहाड़ तोड़कर सड़क बनाने वाले बिहार के दशरथ मांझी, तिलका माँझी, जीतन राम मांझी आदि इसी समुदाय के रहे हैं। देश में शिक्षा का स्तर ऊंचा होने के चाहे जितने ढिढोरे पीटे जाएं, मुसहर समुदाय की 98 प्रतिशत महिलाएं और 90 प्रतिशत पुरूष आज भी अशिक्षित पाए जाते हैं। 'नारी गुंजन' एनजीओ की अध्यक्ष सुधा वर्गीज अपनी पूरी टीम के साथ बिहार के इसी मुसहर समुदाय की महिलाओं को पिछले तीन दशक से शिक्षा प्रदान करने में जुटी हुई हैं। उनके सामाजिक और लोकतांत्रिक अधिकारों के बारे में भी उन्हें समझा-सिखा रही हैं।
इस संगठन ने इस समुदाय की बच्चियों के लिए कई विद्यालय भी खोल दिए हैं। सुधा वर्गीज मूलतः केरल की रहने वाली हैं। वह शुरू से ही मुसहर समुदाय के उद्धार में जुटी रही हैं। वह कहती हैं कि जब वह केरल से बिहार आई थीं, उस वक्त उन्हें जातीय भेदभाव के बारे में ज्यादा कुछ पता नहीं था। जब मुसहर समुदाय की हालत को उन्होंने करीब से जाना-समझा तो तय किया कि अब वह आजीवन उनके साथ ही उनके गांवों में उनके मिट्टी के घरों में रहकर उनके अधिकारों के लिए संघर्ष करेंगी। मुसहार समुदाय में लोगों की मृत्यु का मुख्य कारण कुपोषण है। लगभग आठ सौ तो ऐसे परिवार हैं, जिनके पास आय का कोई स्रोत नहीं, किचन गार्डन तो दूर की बात है। हम उन्हें पढ़ा-लिखाकर रोजी-रोजगार के रास्ते पर ले जाना चाहते हैं।
प्रदेश सरकार की ओर से ‘आईकन ऑफ बिहार’ एवं मलयालम मनोरमा ग्रुप की ओर से भी सम्मानित एजुकेशन में स्नातक एवं एलएलबी सुधा वर्गीज ने 1980 के दशक में 'नारी गुंजन' एनजीओ का गठन किया था। बिहार के पांच जिलों में सक्रिय इस एनजीओ ने वर्ष 2005 में दानापुर (पटना) में 'प्रेरणा' नाम से एक विद्यालय की स्थापना की, जिसमें छात्रावास की भी सुविधा है। बाद में इस विद्यालय श्रृंखला में सुधा वर्गीज ने कई और शिक्षण संस्थानों की स्थापना की। इन विद्यालयों में तीन हजार से अधिक छात्राएं पढ़ रही हैं।
'नारी गुंजन' की ओर से उनके लिए कोचिंग की भी व्यवस्थाएं हैं। नारी सशक्तीकरण को ध्यान में रखते हुए इन छात्राओं को नृत्य, कराटे, चित्रकला आदि के शारीरिक अभ्यास भी कराए जाते हैं। इसके लिए अलग से टीचर की व्यवस्था है। ये छात्राएं अब तो ऐसी स्पर्धाओं में भाग ले रही हैं। सुधा वर्गीज मुसहर और दलित समुदायों की सिर्फ लड़कियों ही नहीं, लड़कों को भी समाज की मुख्यधारा से जोड़े में जुटी हुई हैं। बिहार में इस समुदाय के लड़कों की 'नारी गुंजन' एक दर्जन से अधिक क्रिकेट टीम गठित कर चुका है। 'नारी गुंजन सरगम बैंड' देवदासी समुदाय की महिलाओं को बैंड बजाने में प्रशिक्षित कर रहा है। इस बैंड में केवल महिलाएं काम करती हैं।
सुधा वर्गीज कहती हैं कि समाज में यह विचारधारा थी कि बैंड का गठन केवल पुरूष कर सकते हैं, महिलाएं नहीं। हमारी संस्था इस धारणा को तोड़ रही है। इसके साथ ही इस एनजीओ की ओर महिलाओं को अब बहुत सस्ती कीमत पर सेनेटरी नैपकिन की भी आपूर्ति की जा रही है। नारी गुंजन की गतिविधियां वैसे तो कुल पांच जिलों में चल रही हैं लेकिन वह मुख्य रूप से बिहार के पटना एवं सारण जिलों में केंद्रित हैं। यहां की मुसहर बच्चियों को निःशुल्क शिक्षा, छात्रावास की सुविधाओं के साथ ही भोजन, कपड़ा भी फ्री दिया जाता है। अभी गुंजन के स्कूलों में आठवीं तक पढ़ाई हो रही है। पद्मश्री सुधा वर्गीज की कठिन साधना का ही नतीजा है कि उनके स्कूलों की एक दर्जन छात्राएं यूरोपियन देश आर्मेनिया की राजधानी येरेवान की उस अंतर्राष्ट्रीय वुडो काई कराटे चैंपियनशिप में भाग ले चुकी हैं, जिसमें 60 देशों की छात्राओं ने करतब दिखाए थे।
बिहार की इन छात्राओं को 18 मेडल मिले, जिनमें छह गोल्ड, नौ सिल्वर और तीन ब्रॉज रहे हैं। उस टीम में दानापुर सेन्टर की डेढ़ सौ लड़कियों में से दो पूनम कुमारी और निक्की कुमारी, गया सेन्टर की 110 लड़कियों में से नौ काजल कुमारी, गीता कुमारी, बेबी कुमारी, ललिता कुमारी, निक्की कुमारी, गुडि़या कुमारी - प्रथम, गुडि़या कुमारी - द्वितीय, अंजु कुमारी और मधु कुमारी को सेलेक्ट किया गया था। टीम के साथ सुधा वर्गीज और प्रशिक्षक सेन्सई अश्वनी राज भी उस इंटरनेशनल प्रतियोगिता में उत्साह वर्द्धन के लिए येरेवान गए थे। अश्वनी राज बताते हैं कि गुंजन की लड़कियों को कई माह कड़ा प्रशिक्षण दिया गया। सभी लड़कियां व्हाइट बेल्ट हैं। गुंजन की सात लड़कियां अंतर्राष्ट्रीय कराटे चैंपियनशिप में भाग लेने जापान भी गई थीं। वहां भी उन्होंने कई मेडल फतह किए। ये तो वे लड़कियां हैं, जिन्होंने इससे पहले विदेश तो क्या, नजदीक से प्लेन तक नहीं देखी थी। अब उनके सपने परवान चढ़ रहे हैं।
बिहार शिक्षा दिवस के अवसर पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सुधा वर्गीज को शिक्षा के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य करने के लिए मौलाना अबुल कलाम आजाद पुरस्कार से सम्मानित कर चुके हैं। आज पद्मश्री सुधा वर्गीज किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं। उन्होंने अपना पूरा जीवन गरीब मुसहर, दलित समुदाय के नाम समर्पित कर दिया है। सुधा वर्गीज के पिता किसान थे और मां गृहिणी। अपनी तीन बहनों में वह सबसे बड़ी हैं। वह बचपन से ही अति प्रतिभाशाली रही हैं। उनकी स्कूली पढ़ाई केरल में हुई। मैसूर यूनिवर्सिटी से उन्होंने ग्रेजुएशन और बंगलुरु यूनिवर्सिटी से लॉ की पढ़ाई की। इसके बाद 1960 के दशक में वह अपनी कर्मभूमि बिहार पहुंच गईं। कुछ वक्त तक वह बिहार के कॉन्वेंट स्कूलों में शिक्षिका रहीं। उनका कई जिलों में तबादला होता रहा। इससे उनको राज्य लोगों को बारे में करीब से जानने का मौका मिला।
वह जब रोहतास में पढ़ा रही थीं, उन्होंने हर सप्ताह दो दिन गांवों में बिताने शुरू कर दिए। पांच दिन स्कूल में पढ़ाती और दो दिन ग्रामीणों के बीच गुजारतीं। तब उन्हें पता चला कि बिहार के गांवों की अनुसूचित जातियों में सबसे अधिक गरीबी है। उनका जीवन स्तर इतना खराब होना उन्हें इतना नागवार गुजरा कि भविष्य की दिशा ही बदल गई। इसके बाद वह गरीब तबके के जरुरतमंदों की स्वतःस्फूर्त मदद करने लगीं। इसी दौरान उनकी परेशान हाल कुष्ठ रोगियों से मुलाकात हुई। इसी दौरान असमाजिक तत्व उनको परेशान करने लगे। इसके बाद वह अपना कार्यक्षेत्र बदलकर मुंगेर पहुंच गईं और वहां पहली बार मुसहर समुदाय के बीच बड़ी कठिनाई से उनकी बोलचाल की भाषा सीखकर उनके बीच काम करने लगीं। उनको नियम, कानून सिखाने पढ़ाने के साथ ही उनके शोषण के खिलाफ उठ खड़ी हुईं।
इस समुदाय के लोगों की शिकायतों को लेकर थाने का घेराव करती हुई धमकियों और तरह तरह की बाधाओं का सामना करने लगीं। जिस समय उन्होंने गुंजन बैंड का गठन किया था, अधिकतर महिलाओं ने वह काम करने से मना कर दिया था। आज उसकी राज्य के जिलों में गहरी छाप है। उन्होंने चयनित महिलाओं को प्रोफेशनल ट्रेनर से बैंड का प्रशिक्षण दिलवाया। इस बैंड टीम को शुरू में लोगों की तरह-तरह की फिकरेबाजियों का सामना करना पड़ा। जब पहली बार इस महिला बैंड ने बिहारशरीफ में अपने हुनर का प्रदर्शन किया, हर कोई उनका मुरीद हो गया। आज नारी गुंजन बैंड पूरे स्टेट का प्रतिनिधित्व करता है।
यह भी पढ़ें: शानू बेगम ने 40 की उम्र में पास की दसवीं की परीक्षा, बनीं दिल्ली की पहली ऊबर ड्राइवर