कवियों में खेमेबाजी से साहित्य का नुकसान: अश्वघोष
अश्वघोष का मानना है कि आज का साहित्य प्रहारशील न होकर, प्रहारहीन हो गया है। साहित्य के प्रति लोगों की रुचि कम हो रही है। इसके कई कारण हैं, जैसे - प्रथम तो भौतिकवाद के प्रति लोगों का अपार लगाव।
आज का युग पूर्णतः वैज्ञानिक युग है। व्यक्ति ने अपने मनोरंजन के लिए इतने संसाधन निर्मित कर लिए हैं कि वह थोड़ा-बहुत समय मिलने पर उन्हीं की शरण, प्रश्रय में चला जाता है।
एकजुटता के साथ ऐसे साहित्य की रचना होनी चाहिए, जो व्यक्ति और समाज दोनो को प्रभावित करे। यानी मिशनरी रुझान के साथ सुबोध और उपयोगी हो। सर्वजन हिताय-सुखाय की भावना से स्तरीय साहित्यिक उत्सवों एवं मेलों के आयोजन हों।
अश्वघोष हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि हैं। उनका कहना है कि इस वक्त देश के साहित्यकारों में खेमेबाजी, गुटबाजी असहनीय स्तर तक है। कथाकार, कवियों को कुछ नहीं समझते। कवियों में गजलकारों, गीतकारों आदि के अलग-अलग गुट हैं। सब एक-दूसरे का विरोध, तीखी आलोचनाएं करते रहते हैं। अपने को श्रेष्ठ, अन्य को नगण्य बताने में ही उनकी सारी ऊर्जा चली जाती है। ये स्थितियां मुझे ही नहीं, किसी भी समर्पित रचनाकार को असहज करती हैं। जब ऐसे गुटबाज, गोलबाज खुद असाहित्यिक गतिविधियों में संलिप्त होंगे तो उनसे समाज भला क्या उम्मीद कर सकता है।
साहित्य में खेमेबाजी खत्म होनी चाहिए। साहित्यकारों को संगठित तरीके से साहित्य के प्रचार-प्रसार का बीड़ा उठाना होगा। एकजुटता और मिशनरी रुझान के साथ सुबोध, समाज के लिए उपयोगी साहित्य रचना होगा। साहित्यिक पत्रिकाएं, किताबें सस्ती कीमतों पर उपलब्ध कराई जाएं। स्तरीय साहित्यिक उत्सवों एवं मेलों में और इजाफा, निरंतरता जरूरी है। और इन सबसे भी जरूरी है, पूरी गंभीरता से विविध स्तरों पर बच्चों में साहित्यिक अभिरुचि जगाना।
अश्वघोष की प्रकाशित कृतियाँ हैं- तूफ़ान में जलपान, आस्था और उपस्थिति, अम्मा का ख़त, हवाः एक आवारा लड़की, माँ, दहशत और घोड़े, जेवों में डर, सपाट धरती की फसलें, गई सदी के स्पर्श (कविता संग्रह)। डुमक-डुमक-डुम, तीन तिलंगे, राजा हाथी, बाइस्कोप निराला (बाल काव्य-संकलन)। ज्योतिचक्र, पहला कौंतेय (खंड काव्य) धन्य-धन्य तुम नारी, अच्छा है एक दीप जलाएँ, स्वास्थ्य-रक्षा की कथा, धरती माँ की दुःख, किस्सा भोला का, हमारा पर्यावरण (उत्तर-साक्षरता साहित्य)। हिंदी कहानीः सामाजिक आधारभूमि (शोध) आदि। अश्वघोष उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के अलावा, संभावना संस्थान मथुरा, 'समन्वय' सहारनपुर तथा भारतीय बाल-कल्याण संस्थान कानपुर से सम्मानित हो चुके हैं।
अश्वघोष का मानना है कि आज का साहित्य प्रहारशील न होकर, प्रहारहीन हो गया है। साहित्य के प्रति लोगों की रुचि कम हो रही है। इसके कई कारण हैं, जैसे - प्रथम तो भौतिकवाद के प्रति लोगों का अपार लगाव। हर आदमी पैसे की दौड़ में भाग रहा है। वह सीमित जीवन के लिए जैसे भी उपलब्ध हो, असीमित संसाधन इकट्ठा कर लेना चाहता है। हमारे प्रिय मित्र विज्ञान व्रत ने इस संबंध में एक शेर कहा है - छोटी-सी है दुनिया घर की, लेकिन चीजें दुनियाभर की। जाहिर है कि उसके पास इतना समय नहीं है कि वह आराम से घड़ी-दो-घड़ी वक्त निकालकर साहित्य का रसास्वादन करे और उसमें निहित भावों और विचारों से कुछ लाभ उठाए, ज्ञानार्जन करे।
आज का युग पूर्णतः वैज्ञानिक युग है। व्यक्ति ने अपने मनोरंजन के लिए इतने संसाधन निर्मित कर लिए हैं कि वह थोड़ा-बहुत समय मिलने पर उन्हीं की शरण, प्रश्रय में चला जाता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण टीवी, स्मार्ट फोन, कम्प्यूटर आदि उपकरण हैं। चूंकि आदमी के समय नहीं है, वह थोड़ा-बहुत समय निकालता भी है तो उसे सिनेमा, मॉल और पर्यटन स्थलों पर गुजारने में अपनी बेहतरी समझता है।
अश्वघोष कहते हैं, अब प्रश्न उठता है कि साहित्य के प्रहार की दिशा क्या हो। इसके प्रति अभिरुचि कैसे बढ़े, इस दिशा में साहित्यकारों को ही प्रयास करने होंगे। उनको संगठित तरीके से साहित्य के प्रचार-प्रसार का बीड़ा उठाना होगा। साहित्यिक पत्रिकाओं, पुस्तकों की कीमतें आसमान छू रही हैं। वे आम आदमी की पहुंच से दूर होती जा रही हैं। ऐसे प्रयास होने चाहिए कि ऐसी पत्रिकाएं, किताबें सस्ती कीमतों पर उपलब्ध होने लगें। इसके साथ ही साहित्य में खेमेबाजी खत्म होनी चाहिए।
एकजुटता के साथ ऐसे साहित्य की रचना होनी चाहिए, जो व्यक्ति और समाज दोनो को प्रभावित करे। यानी मिशनरी रुझान के साथ सुबोध और उपयोगी हो। सर्वजन हिताय-सुखाय की भावना से स्तरीय साहित्यिक उत्सवों एवं मेलों के आयोजन हों। एक बात मैं और, अधिक जोर देकर कहना चाहता हूं कि बच्चों में साहित्यिक रुचि उत्पन्न की जाए। बस्ते का बोझ कमकर उन्हें तकनीकी शिक्षा के साथ साहित्यिक विरासत से भी सुपरिचित कराया जाए। उनकी साहित्यिक लेखन-पठन की प्रवृत्ति को विकसित किया जाए ताकि भविष्य में भी हमे अच्छे और सुलझे कवि-लेखक अनुपलब्ध न रहें। साहित्यिक लेखन को लोकप्रिय बनाने के लिए हमे विद्यालयों, संस्थानों में रचनात्मक कार्यशालाओं के आयोजन करने चाहिए। इससे तकनीकी दुनिया में साहित्यिक सरोकारों की स्थितियों से परिचित हुआ और कराया जा सके।
वह कहते हैं कि आजकल के साहित्यिक मंच, खासकर कविसम्मेलनों के मंच भटक गए हैं। मुझे पता है कि पहले बहुत स्तरीय कवि-सम्मेलन होते थे। उस वक्त मंचों पर फूहड़पन नहीं होता था। मैंने ऐसे भी कवि-सम्मेलन देखे-सुने हैं, जिनमें महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, रामधारी सिंह दिनकर, हिरवंश राय बच्चन, श्याम नारायण पांडेय, सोहनलाल द्विवेदी जैसे कवियों को सुनने के लिए कड़ाके की ठंड में भी रात-रातभर सुधी श्रोताओं के ठाट लहराते रहते थे। आज के कवि-सम्मेलनों का क्या कहें। स्थितियां जितनी दयनीय, उससे अधिक चिंताजनक हैं। फूहड़ हास्य का मंचों पर बोलबाला है। शिष्ट, धारदार व्यंग्य लापता है। शेष आठ रस नेपथ्य में लहूलुहान, बेहोश पड़े हैं।
अब प्रश्न है कि रास्ता क्या है, तो इसके लिए भी संगठित होकर मिशनरी स्तर पर प्रयत्न करने होंगे। हमे मंच को पूर्व की भांति सबलता प्रदान करनी होगी। पहले एक कवि-सम्मेलन में एक वीर रस, एक हास्य रस, ज्यादा-से-ज्यादा तीन-चार श्रृंगार रस के कवि पाठ करते थे। कुल दस-बारह कवि पूरी-पूरी रात कवि-सम्मेलन चलाते थे। उनकी रचनाओं से श्रोताओं की सोच-समझ परिष्कृत होती थी। महीनो तक उनकी रचनाएं चर्चाओं में होती थीं। प्रेरक कविताओं की घर-घर चर्चा होती थी। मेरी समझ से अब आज के प्रदूषित मंचों के वर्तमान स्वरूप का सशक्त विरोध करते हुए उच्च स्तरीय आयोजन करने होंगे।
वह कहते हैं कि मैं आज से पचास साल पहले के साहित्यिक परिवेश पर ध्यान आकर्षित करना चाहूंगा। उस समय के साहित्यकारों में सघन एकजुटता थी। वे एक-दूसरे को प्रोत्साहन और प्रेरणा देते थे। कविगण कमोबेश सभी साहित्यिक विधाओं में रचनारत होते थे। इससे विविधतापूर्ण साहित्य लोगों तक पहुंचता था। पंत-प्रसाद थे तो शमशेर, नागार्जुन और मुक्तिबोध भी। महादेवी थीं तो सुभद्रा कुमारी चौहान भी। उन्होंने हर तरह के साहित्य की रचना की। इसके साथ ही धर्मवीर भारती, नरेश मेहता जैसे बाद के कवियों, लेखकों ने पद्य-गद्य दोनो विधाओं को संपन्न किया।
आज स्थिति उसके विपरीत है। साहित्यकारों में खेमेबाजी, गुटबाजी असहनीय स्तर तक है। कथाकार, कवियों को कुछ नहीं समझते हैं। कवियों में भी गजलकारों, गीतकारों आदि के अलग-अलग गुट हैं। जब ऐसे गुटबाज, गोलबाज खुद साहित्य से सबक-शिक्षा नहीं लेते हैं तो उनसे समाज भला क्या उम्मीद करे। सब एक-दूसरे का विरोध, तीखी आलोचनाएं करते रहते हैं। अपने को श्रेष्ठ, अन्यो को नगण्य बताने में ही उनकी सारी ऊर्जा तमाम होती रहती है। ये स्थितियां मुझे ही नहीं, किसी भी समर्पित रचनाकार को भावुकता की हद तक असहज करती हैं। लेकिन, किया क्या जाए। अकेला चना हूं, कैसे भाड़ फोड़ूं! फिर भी, जहां तक हो सकता है, अपनी विनम्रता, सहृदयता, स्नेह से एक-दूसरे को करीब लाने की कोशिश करता रहता हूं।
आपकी वह कौन-सी कविता है, जिसे बार-बार पढ़ने का मन करता है? इस सवाल पर अश्वघोष कहते हैं- इस प्रश्न से अजीब-सी अनुभूति हो रही है। आप ही सोचिए कि एक दंपति के अगर तीन बच्चे हैं तो वह उनमें कैसे भेद कर सकता है। उसके लिए तीनो समान हैं। तीनो ही पिता से बराबर का स्नेह पाने के अधिकारी हैं। इसी प्रकार मेरे लिए मेरी प्रत्येक रचना पठनीय है। मैं उनमें चाहकर भी विवेद नहीं कर पाता हूं। हर रचना को तल्लीनता से लिखता हूं। समय मिलने पर सबको उसी तल्लीनता से पढ़ता भी हूं। वह गीत-गजल हों या बाल कविताएं, सभी एक जैसी सहज, सुंदर, प्राणवान लगती हैं। फिर भी, वर्षों से शहर में रहते हुए जब कभी अपने ग्रामीण परिवेश का स्मरण होता है या कभी गांव का दौर-दौरा होता है, एकाध रचना अवश्य लिखता हूं। ऐसी ही मेरी एक रचना स्वयं को ही नहीं, पाठकों को भी बहुत प्रिय है-
दे गई धोखा शहर में, साथ चलती छांव ।
याद आए तब अचानक, खेत-घर और गांव ।
एक बूढ़ी-सी रसोई, खांसता आंगन,
भर गया अपनत्व में रीता हुआ यह मन,
बहने लगी स्नेह की, भागीरथी अविराम ।
खेत पर अपवाद सा बैठा हुआ इक स्वाद,
पढ़ रहा है आदमी की दृष्टि का अनुवाद,
भूख में उगने लगीं कुछ रोटियां हर ठांव।
याद आया ताल के तट पर खड़ा बरगद,
हो गया बौने हुए कद का बड़ा-सा कद,
रास्ता पाने लगे, हारे-थके ये पांव ।
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