बेंगलुरु के इस दंपती ने अपने स्टार्टअप के माध्यम से उठाया पर्यावरण को सुधारने का जिम्मा
इस स्टार्टअप के माध्यम से जानें कचरे को सही तरह से फेंकना, ताकि आप भी बन सकें पर्यावरण के रक्षक...
हम सब जानते हैं कि प्लास्टिक का हमारे पर्यावरण पर कितना बुरा असर पड़ता है। फिर भी किसी न किसी कारण से हम हर रोज़ प्लास्टिक का इस्तेमाल कर ही लेते हैं – ख़ासकर कचरा फेंकने के लिए। अंदर ही अंदर हमें बुरा तो लगता है, पर हमारे पास और क्या विकल्प है?
2017 वित्तीय वर्ष में ग्रीनबग का टर्नओवर 1.3 लाख रुपए तक पहुंचा और कंपनी को उम्मीद है कि 2018 यह दोगुना हो जाएगा। कंपनी का लक्ष्य है कि 2019 तक टर्नओवर को 5 लाख रुपयों के आंकड़े तक पहुंचाया जाए।
स्टार्ट अप: ग्रीनबग
फ़ाउंडर्सः ज्योति पहाड़सिंह, अरुण बालचंद्रन
शुरूआत: 2015
आधारित: बेंगलुरु
सेक्टर: रीटेल
फ़ंडिंग: बूटस्ट्रैप्ड
हम सब जानते हैं कि प्लास्टिक का हमारे पर्यावरण पर कितना बुरा असर पड़ता है। फिर भी किसी न किसी कारण से हम हर रोज़ प्लास्टिक का इस्तेमाल कर ही लेते हैं – ख़ासकर कचरा फेंकने के लिए। अंदर ही अंदर हमें बुरा तो लगता है, पर हमारे पास और क्या विकल्प है? बेंगलुरु की रहने वाली ज्योति पहाड़सिंह के पास इस सवाल का जबाव है। इकॉनमिक्स ऑनर्स और एमबीए ग्रैजुएट ज्योति पिछले 20 सालों से स्टार्टअप्स और मल्टी नैशनल कंपनियों के लिए ऑडियो-विज़ुअल सलाहकार के रूप में काम कर रही हैं। ओडिशा से आई दिल्ली की यह लड़की पिछले 13 सालों से अपने पति अरुण बालाचंद्रन के साथ बेंगलुरु में रह रही है। अरुण एक इंजिनियर हैं और उन्होंने आईआईएम-बी से एमबीएम की डिग्री ली है।
कैसे हुई ग्रीनबग की शुरूआत?
प्लास्टिक बैन होने की वजह से घर का गीला कचरा फेंकना एक बड़ी समस्या बन गया है। जिसे हल करने के लिए, अरुण ने अख़बारों से डस्टबिन लाइनर बनाने शुरू कर दिए। कई छोटी-छोटी ग़लतिया करने और उन्हें लगातार सुधारते रहने के बाद, उन्होंने एक ऐसा मॉडल तैयार किया जिसने मज़बूत, लचीला और एक डस्टबिन का आकार ले लिया। उन्होंने फ़ेविकोल और जूट के धागों की जगह मैदे के गोंद का इस्तेमाल किया, ताकि ये बैग्स आसानी से डीकम्पोज़ हो जाएं, प्लास्टिक के बैग की तरह सदियों तक बचे ना रहें।
डस्टबिन लाइनर एक प्रयोग की तरह शुरू हुए थे। जल्दी ही, उनके परिवारवालों और दोस्तों ने इनका इस्तेमाल करना शुरू कर दिया, और इसे लेकर उन लोगों की प्रतिक्रिया हमेशा सकारात्मक रही। जून 2015 की बात है, जब ज्योति और अरुण, दोनों के पास इतना समय नहीं था कि वे घर पर रहकर ये बैग्स बना सकें। उन्होंने इन बैग्स से कभी पैसे कमाने के बारे में भी नहीं सोचा।
इस बीच ही एक दोस्त ने उन्हें सुझाव दिया कि अगर वे गीले कचरे को अख़बारों से बने बैग में हैंडल कर सकते हैं, तो ज़्यादा से ज़्यादा प्रोडक्शन से इसे बड़ा किया जा सकता है। इतना ही नहीं, उनके दोस्त ने ही सलाह दी कि इन बैग्स के उत्पादन के लिए आंध्र प्रदेश में उनके गाँव की महिलाओं को प्रशिक्षण दिया जा सकता है, जिनके पास रोज़ी रोटी कमाने का कोई और ज़रिया नहीं था। ज्योति और अरुण के लिए यह एक नई शुरूआत थी।
ग्रीनबग को एक महिला उद्यमिता कार्यक्रम में 1700 ऐप्लिकैंट्स में से चुना गया, जिसे गोल्डमैन सच्स ने IIM-B के साथ स्पॉन्सर किया था। ज्योति कहती हैं, “एक बार अगर आप IIM से जुड़ गए, तो इसे सिर्फ़ एक हॉबी की तरह नहीं रखा जा सकता। तब तक हम एक फ़ेसबुक पेज पर ही इसका प्रचार कर रहे थे। हमने बहुत कम मौक़ों पर ही इसका प्रचार, अपने सामाजिक दायरे के बाहर किया था। पर अब चीज़ें बदल गई हैं।”
बैग की क़ीमत का 60% उसे बनाने वालों को चला जाता है। लेकिन चूंकि उन्होंने इसकी शुरूआत मुनाफ़े के लिए नहीं की थी, ये उनके रीटेल मार्जिन को खा रहा था, और ऑफ़लाइन दुकानें उनकी पार्टनर नहीं बनना चाहती थीं। एक प्लास्टिक बैग की क़ीमत 50 पैसे होती है, जबकी एक ग्रीनबग बैग 5 से 6 रुपये का मिलता है, इस वजह से एक औसत ग्राहक ग्रीनबग बैग नहीं खरीदना चाहता। “होलसेल में हम 15% से ज़्यादा डिस्काउंट नहीं दे सकते। हम ऐसी हालत में पहुँच गए थे, जहाँ से आगे नहीं बढ़ा जा सकता था” ज्योति ने बताया।
इस दौरान ही ज्योति और अरुण के मेंटर और टाउन अशेंसिअल्स के सीईओ अमर कृष्णन कहानी में आए। उन्होंने ग्राहकों को सैंपल देकर बेंगलुरु में उनकी पहुँच को बड़ा किया। ज्योति ने योर स्टोरी से अपनी कहानी साझा करते हुए बताया, “जल्दी ही, हमारी पहुँच बढ़ गई। तब तक आईआईएम-बी इन्क्यूबेशन शुरू हो चुका था और हमें आगे बढ़ने का एक बेहतर आयडिया मिल गया। हम आम एफ़एमसीजी दुकानों की बजाय जैविक (ऑर्गेनिक) दुकानों पर गए। दो सालों के बाद, हमने ऐमज़ॉन पर 95 रुपये में 15 बैग बेचने शुरू कर दिए।”
महिलाओं को रोज़गार देना और सशक्त बनाना
चूँकि डस्टबिन लाइनर का डिज़ाइन बिल्कुल नया था, कोई भी लेबर फ़ोर्स जो इसे बनाना जानती हो, पहले से तैयार नहीं थी। डस्टबिन लाइनर के प्रोडक्शन के लिए, ज्योति और अरुण ने ग़रीब महिलाओं को नौकरियाँ देने का फ़ैसला किया, जिससे वेंचर को बिल्कुल अलग पहचान मिली, लेकिन दोनों को अहसास था कि कारीगरों को बेहतर प्रशिक्षण की ज़रूरत पड़ने वाली थी।
ज्योति कहती हैं, 'इन महिलाओं को यह तय करने की आज़ादी दी गई कि वे अपना कितना समय इस काम को देना चाहती है; वे कितने लाइनर्स बना सकती हैं; वे कहाँ काम कर सकती हैं; और वे इस काम को अकेले करना चाहती हैं या कुछ महिलाओं के साथ टीम बनाकर।'
अपनी बचत में से 4 लाख रुपये लगाकर, अरुण और ज्योति ने डस्टबिन लाइनरर्स के प्रोडक्शन को बढ़ाने का फ़ैसला किया। 2016 में, ग्रीनबग यानी ‘बेंगलुरु अरबन गार्बेज’ के नाम से कमर्शियलाइज़ होने के बाद, ज्योति और अरुण ने आन्ध्र प्रदेश के गाँवों में रहने वाली महिलाओं के साथ काम करना शुरू किया। हालाँकि, पतियों का समर्थन न मिलने के कारण, ये महिलाएँ जल्दी नौकरी छोड़ देती थीं। दोनों ने बेंगलुरु के सेमी अरबन क्षेत्र में खोज शुरू की और उन्हें सरजापुर, कनकपुरा, कोरामंगला और जया नगर से महिलाओं की मज़बूत वर्कफ़ोर्स मिली। इन महिलाओं को प्रशिक्षित करने में 3 से 5 हफ़्ते लगते हैं, और एक वक़्त में कम से कम 30 महिलाएँ ग्रीनबग बैग बनाने का काम कर रही होती हैं।
व्यवसाय नहीं मुहिम बना ग्रीनबग
अरुण और ज्योति के दोस्तों ने उन्हें चेतावनी दी थी कि अपने करियर को किसी ऐसी चीज़ के लिए ख़राब मत करो, जिससे पैसा न बनता हो। अरुण और ज्योति ने ग्रीनबग के साथ आगे जाने का फ़ैसला किया क्योंकि यह सिर्फ़ इको फ़्रेंडली बैग बनाने से ज़्यादा था- इससे ग़रीब महिलाओं को अच्छी ज़िंदगी मिल रही थी। अरुण और ज्योति के बीच फ़ैसला हुआ कि दोनों मे से कोई एक वेंचर के लिए फ़ुल टाइम काम करेगा, और ज्योति ने इसपर सहमति दी।
ज्योति ने अपनी रिश्तेदार, श्रीलता मेनन की मदद से महिला कर्मचारियों के लिए एक ट्रेंनिंग प्रॉसेस डिज़ाइन किया। अरुण केरल के रहने वाले हैं, उन्होंने कन्नड़ बोलनी सीखी और इस तरह से उन्होंने महिलाओं का भरोसा हासिल किया। इसके पीछे एक उद्देश्य यह भी था कि महिलाओं को बेहतर प्रशिक्षण देने के लिए उनकी भाषा समझना और बोलना ज़रूरी है। महिलाएं खोजने और उन्हें प्रशिक्षण देने में कई गैर-सरकारी संगठनों ने भी उनकी मदद की।
ग्राहकों को आकर्षित करना
बेंगलुरु के कुछ ऑर्गैनिक स्टोर्स में ग्रीनबग के प्रॉडक्ट मिलते हैं। अधिक से अधिक ग्राहकों तक पहुंचने के लिए ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म पर आने का फ़ैसला लिया। दिसंबर 2017 में ऐमज़ॉन सहेली स्टोर के ज़रिए ग्रीनबग, ऐमज़ॉन इंडिया के ऑनलाइन सेलिंग प्लेटफ़ॉर्म से जुड़ी। जिसमें महिला उद्यमियों द्वारा स्थानीय रूप से बनाई गई यूनीक चीज़ों को बेचा जाता है। ज्योति ने बताया कि बेंगलुरु के अलावा उन्हें 25 अलग-अलग जगहों से ऑर्डर मिल रहे हैं और इनमें मेट्रो शहर भी शामिल हैं। उन्होंने जानकारी दी कि फ़िलहाल करीब 7 कंपनियां अपने ऑफ़िसों में उनके बैग्स का इस्तेमाल कर रही हैं। कंपनी हर महीने लगभग 15-20 हज़ार बैग्स की सेल करती है और इसमें से आधी सेल ऐमज़ॉन के ज़रिए होती है।
2017 वित्तीय वर्ष में ग्रीनबग का टर्नओवर 1.3 लाख रुपए तक पहुंचा और कंपनी को उम्मीद है कि 2018 यह दोगुना हो जाएगा। कंपनी का लक्ष्य है कि 2019 तक टर्नओवर को 5 लाख रुपयों के आंकड़े तक पहुंचाया जाए। ज्योति बताती हैं कि प्रॉफ़िट का 60% हिस्सा इसे बनाने वाली महिलाओं को चला जाता है, और उन्हें ज़ीरो एरर के लिए इंसेंटिव भी मिलता है। “हमें डोनेशन नहीं चाहिए, लेकिन टूल प्रोडक्शन के लिए स्पॉन्सर्स का स्वागत है” ज्योति ने बताया।
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