जिनके गीतों ने हिंदी साहित्य में मचा दिया तहलका
हिंदी के अत्यंत महत्वपूर्ण गीतकवि के रूप में मुकुट बिहारी सरोज के उदय को समकालीन साहित्य जगत एक घटना के रूप में लेता है। एक गंभीर गीतकार के रूप में वह अपने आविर्भावकाल से ही असाधारण रूप से चर्चित रहे। आज (26 जुलाई) उनका जन्मदिन है।
नई कविता लिखना या जनगीत लिखना सरोज जी के लिए मुश्किल नहीं था, लेकिन शलभ जी के तरह वे इन कारगुजारियों में हाथ आजमाने से बचते रहे वर्ना हालात कुछ और ही होते।
मुकुट बिहारी सरोज ख्यात कवि के रूप में बलवीर सिंह रंग और गोपाल सिंह नैपाली की परम्परा को आगे जाने वाले पहले ऐसे कवि थे, जो अपनी जनोन्मुखता, सहजता, भाषा और शैलीगत विलक्षणता, अधुनातन भावबोध और नवीनता के संदर्भ में अपने इन प्रतिभावान और लोकप्रिय अग्रजों से भी बहुत आगे निकल गए। उनका कथ्य, भाषा, शिल्प और संवेदना अपने दौर के सारे गीत कवियों से अलग रही है। वे मुख्य रूप से अपने स्वर, सहजता और कहन के निराले अंदाज के लिए पहचाने जाते हैं। अपनी प्रतिबद्धताओं, प्रथामकिताओं, जनधर्मी सरोकारों और काव्यिक ईमानदारी के दम पर उनने हिंदी की लयात्मक कविता में जो धज बनायी और विकसित की है, वह सबसे अलग और अनूठी है।
1953 में जब उनका गीत संकलन 'किनारे के पेड़' आया था तो हिंदी के साहित्य समाज में एक तहलका-सा मच गया था। वैसे गीत फिर लिखे ही नहीं गए। आज उनके गीत हिंदी कविता के मानक हैं। ऐसे कवि अपने निजी जीवपन में भी नितांत सहज, सरल, निराहम और मानवीय ही होते हैं। व्यक्तिरूप में उनका अपना खुला, उदात्त और जीवंत जीवन व्यवहार अपने कवि के साथ पूरी तरह से एकात्म होता है। सरोज जी के साथ तो यह बाद अक्षरशः लागू होती है।
कवि सरोज के साथ बीते दिनों को याद करते हुए कटवी (म.प्र.) के प्रतिष्ठित कवि राम सेंगर बताते हैं- 'दुनिया समझती है, शलभ श्रीराम सिंह बहुत बड़े कवि थे, लेकिन सरोज जी के सामने वे पसंगा नहीं थे। वे बेहद मुखर और बड़बोले जरूर थे, लेकिन कवि उतने बेहतरीन और ईमानदार नहीं थे, जितने सरोज जी रहे हालांकि दोने ही ये कवि जनमानस की सर्वसाधारण मनःस्थितियों से जुड़े हुए महत्वपूर्ण कवि थे लेकिन मुकुट बिहारी सरोज जैसी रचनात्मक ईमानदारी और बात कहने का शऊर शलभ श्रीराम सिंह में नहीं था। वे अपने अतिविरल होने के नाटकीय औघड़पन का ढिंढोरा ज्यादा पीटते रहे, कविता कम लिखी। नई कविता लिखना या जनगीत लिखना सरोज जी के लिए मुश्किल नहीं था, लेकिन शलभ जी के तरह वे इन कारगुजारियों में हाथ आजमाने से बचते रहे वर्ना हालात कुछ और ही होते। ग्वालियर छोड़ने के बाद भी सरोज जी से मेरा संपर्क बना रहा। वे उम्र में मेरे पिता तुल्य थे लेकिन जीवन व्यवहार में उन्होंने मुझे छोटे भाई की तरह से ट्रीट किया। जब भी मैं ग्वालियर जाता था, सरोज जी के खासगी जरूर जाता था उनके दर्शन के लिए।'
राम सेंगर आगे कहते हैं, 'उनके घर 1986 में छपी अपनी पहली किताब उन्हें भेंट करने के लिए जब मैं गया तो बड़े प्रसन्न हुए। अम्मा जी को आवाज देकर बुलाया और कहा, आज तो जश्न होकर रहेगा गायत्री। यादगार पल थे वे। अम्मा जी खाना खिलाते इतनी आनंद विभोर थीं कि फिर जश्न के बीच से उठकर वे गयी ही नहीं। कहने लगीं, जब भी कोई कवि-साहित्यकार मिलने के घर आता है तो निरे बालक बन जाते हैं। कोई भी ठिकाना नहीं रहता इनकी खुशी का। फिर कुछ रुकर कहा कि देश-भर के जितने बड़े हिंदी-उर्दू के कवि-शायर हैं, वे सब खासगी के हमारे इस छोटे से घर में आ चुके हैँ। सभी इनको इतना मान देते हैं कि हम तो फूले नहीं समाते। परसाई जी तो कितनी ही बार आए हैं। हमारा यह बैठकखाना धन्य है। बोलती सिर्फ अम्मा जी रहीं। हम दोनों खाते-पीते रहे और मुस्कुराते रहे। कटनी के तीन या चार कार्यक्रमों में सरोज जी को मैंने बुलवाया। मंच के वे पहुंत ही सफल कवि थे। उनके जैसी काव्यपाठ की शैली, उन्हीं के साथ समाप्त हो गई। फिर कोई कवि उस शैली को उभार नहीं पाया। श्रोता उन्हें परम आनंद के साथ सुनते थे। और यदि कहीं मंच संचालन भी उनको करना हुआ तो पूरे कार्यक्रम को वे अविस्मरणीय बना देते थे। बात 74-75 की है। ऐसे ही एक कवि-सम्मेलन में भाग लेने के लिए हमने उन्हें कटनी बुलवाया था। इस कवि सम्मेलन की गरिमा यह थी कि हरिशंकर परसाई जी इसकी अध्यक्षता कर रहे थे और संचालन की जिम्मेदारी सौंपी गयी थी सरोज जी को। रमानाथ अवस्थी, वीरेंद्र मिश्र, भारतभूषण, स्नेहलता स्नेह, देवराज दिनेश, चंद्रसेन विराट, सुरेश उपाध्या, ओमप्रकाश आदित्य और काका हाथरसी के साथ हम तीन-चार स्थानीय कवि भी मंच पर थे। इस कार्यक्रम का अद्भुत संचालन किया था सरोज जी ने। उनके गीतों का आनंद तो देशभर के श्रोताओं ने खूब लिया लेकिन उनकी काव्यमंचों के संचालन की जो सहज गंभीर विनोदी शैली थी, उसकी ओर आयोजकों और विद्वज्जनों का ध्यान गया ही नहीं।'
मुकुट बिहारी सरोज अपने रंग के अलग और अनूठे गीतकार हैं। उनके सारे गीत आम बोल चाल की भाषा में लिखे गये हैं। सामान्यजन के दैनिक जीवन में प्रयुक्त होने वाले मुहावरों की भाषा के शब्दों से वे ऐसा चित्र खींचते हैं, जिसे संस्कृति के शिखर पर सजाया जा सकता है, जीवन के संघर्ष को गरिमा दी जा सकती है। जिस तरह विष्णु चिंचालकर कचरे से कालाकृतियां तैयार कर हमारी संस्कृति के शिखर पर पहुँचते हैं, उसी तरह सरोजजी भी सामान्यजन के शब्दों को ऐसे गूंथते हैं कि कला जगत के शीर्ष पुरुषों को उसके आगे माथा झुकाना ही पड़ता है। उनका वाक्य विन्यास उनका बिल्कुल अपना है। न भूतो न भविष्यति वाला मामला। प्रेम गीतों में शामिल किये जाने वाले उनके इस गीत की बानगी देखिए-
तुमको क्या मालूम, कि कितना समझाया है मन
फिर भी बार बार करता है भूल, क्या करूं
कितनी बार कहा खुलकर मत बोल बावरे
कानों के कच्चे हैं लोग ज़माने भर के
और कहीं भूले भटके सच बोल दिया तो
गली गली मारेंगे लोग निशाने कर के
लेकिन, ज़िद्दी मन को कोई क्या समझाये
खुद मुझ से ही रहता है प्रतिकूल क्या करूं
वैज्ञानिक चेतना के पक्षधर, अंधविश्वासों और रूढ़ियों के विरोधी सरोजजी की रचनाएं, आशा, उत्कर्ष आस्था, और भविष्य की ओर संकेत करती हैं। यही कारण है कि कैंसर जैसा भयानक रोग भी इस जीवट के आगे हार मान गया, जिसकी पंक्तियाँ हैं-
जिसने चाहा पी डाले सागर के सागर
जिसने चाहा घर बुलवाये चाँद सितारे
कहने वाले तो कहते हैं, बात यहाँ तक
मौत मर गयी थी जीवन के डर के मारे
कोई गम्भीर स्वर में कहता कि आपको कैंसर हो गया है तो वे उसे लगभग डाँटते हुये से कहते कि यह कहो कि कैंसर को सरोज हो गया है। वे कैंसर से नहीं मरे अपितु ‘उसने कहा था’ के सरदार लहना सिंह की तरह मैदान के घावों से मरे। कवि सम्मेलनों के पतनशील दौर में जब सारे मंच चुटकुलेबाज़ों ने हथिया लिए हों, समस्त गम्भीर कवि मानो मंच त्याग गए हों, तब अपने कथ्य तेवर और विचारों से बिना कोई समझौता किये लोकप्रिय जनकवि मुकुट बिहारी सरोज मंचों के माध्यम से जनता के साथ सीधा सम्पर्क बनाने की हमे प्रेरणा देते हैं।
ख्यात कवि नरेश सक्सेना कहते हैं - 'जिसमें काव्य कौशल है, वही कवि है लेकिन मुकुट बिहारी सरोज की कविता में कथ्य भी था। उन्होंने संघर्ष से जीवन को चुनौती दी। ठीक उसी तरह कविता से समय को चुनौती दी। जब पिता जी का ट्रांसफर ग्वालियर हुआ, वहां से नीरज, वीरेंद्र मिश्र, मुकुट बिहारी सरोज, कैलाश वाजपेयी आदि को कवि सम्मेलन में सुनने का अवसर मिला। उन दिनो ये कवि अखिल भारतीय मंचों पर गूंज रहे थे। ग्वालियर में खूब कवि सम्मेलन सुनता था। उसमें ये सब गीतकार होते थे। कैलाश वाजपेयी सुंदर गाते थे। उस समय तो नीरज भी उनके सामने फीके पड़ जाते थे। उसी समय मंच से सुना गया मुकुट बीहारी सरोज का एक गीत याद आ रहा है- मरहम से क्या होगा, ये फोड़ा नासूरी है, अब तो इसकी चीर-फाड़ करना मजबूरी है, तुम कहते हो हिंसा, होगी, लेकिन बहुत जरूरी है।' एक वक्त में मुकुट बिहारी सरोज की ये पंक्तियां जन-जन का कंठहार बनकर गूंजने लगीं थी, आज तक अनुगूंज में- 'इन्हें प्रणाम करो, ये बड़े महान हैं!' -
प्रभुता के घर जन्मे समारोह ने पाले हैं
इनके ग्रह मुँह में चाँदी के चम्मच वाले हैं
उद्घाटन में दिन काटे, रातें अख़बारों में,
ये शुमार होकर ही मानेंगे अवतारों में
ये तो बड़ी कृपा है जो ये दिखते भर इन्सान हैं।
इन्हें प्रणाम करो ये बड़े महान हैं।
दंतकथाओं के उद्गम का पानी रखते हैं
यों पूँजीवादी तन में मन भूदानी रखते हैं
होगा एक तुम्हारा, इनके लाख-लाख चेहरे
इनको क्या नामुमकिन है ये जादूगर ठहरे
इनके जितने भी मकान थे वे सब आज दुकान हैं।
इन्हें प्रणाम करो ये बड़े महान हैं।
ये जो कहें प्रमाण करें जो कुछ प्रतिमान बने
इनने जब-जब चाहा तब-तब नए विधान बने
कोई क्या सीमा नापे इनके अधिकारों की
ये खुद जन्मपत्रियाँ लिखते हैं सरकारों की
तुम होगे सामान्य यहाँ तो पैदाइशी प्रधान हैं।
इन्हें प्रणाम करो, ये बड़े महान हैं।
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