लौह-कथाकार यशपाल की कहानी 'फूलों का कुर्ता'
देव पुरस्कार, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, मंगला प्रसाद पारितोषिक, पद्म भूषण, साहित्य अकादमी पुरस्कार आदि से समादृत सुप्रसिद्ध प्रगतिशील कथाकार यशपाल का आज (3 दिसम्बर) जन्मदिन है। आइए, इस यशस्वी लेखक के जिंदगीनामा से परिचित होने के साथ ही उनकी एक छोटी सी लोकप्रिय कहानी 'फूलों का कुर्ता' पढ़ते हैं।
उनके बाल-मानस पटल पर इस तरह के चित्र अंकित होते जा रहे थे कि 'अंग्रेज़ से वह भय ऐसा ही था, जैसे बकरियों के झुंड को बाघ देख लेने से भय लगता होगा अर्थात् अंग्रेज़ कुछ भी कर सकता था।
घरेलू निर्धनता के बीच उनकी आरंभिक पढ़ाई-लिखाई गुरुकुल कांगड़ी में हुई। मन गरीबी, अपमान और अंग्रेजों के अत्याचार की पीड़ा से हर वक्त भरा रहता था। जब वह समझदार हुए तो गोरे शासन से लड़ने के लिए एक क्रांतिकारी संगठन से जुड़ गए।
उस समय हिंदुस्तान अंग्रेजों का गुलाम था। उस वक्त कथाकार यशपाल का बचपन ऐसे दौर से गुजरा, जब बरसात या धूप से बचने के लिए उनके शहर फ़ीरोज़पुर छावनी (पंजाब) में कोई हिन्दुस्तानी अंग्रेज़ों के सामने छाता लगाकर नहीं गुज़र सकता था। बड़े शहरों और पहाड़ों पर मुख्य सड़कें उन्हीं अंग्रेजों के लिए थीं, हिन्दुस्तानी उन सड़कों के नीचे बनी कच्ची सड़क पर चलते थे। वह लिखते हैं, 'मैंने अंग्रेज़ों को सड़क पर सर्व साधारण जनता से सलामी लेते देखा है। हिन्दुस्तानियों को उनके सामने गिड़गिड़ाते देखा है, इससे अपना अपमान अनुमान किया है और उसके प्रति विरोध अनुभव किया।'
इस सबसे अंग्रेजों के प्रति नफरत की चिंगारी उनके दिलोदिमाग पर बचपन से ही कौंधने लगी थी। जब वह चार-पाँच साल के थे, उनके एक संबंधी युक्तप्रांत के किसी क़स्बे में कपास ओटने के कारख़ाने में मैनेजर थे। कारख़ाना स्टेशन के पास ही काम करने वाले अंग्रेज़ों के दो-चार बँगले थे। आस-पास ही इन लोगों का खूब आतंक था। इनमें से एक बँगले में मुर्ग़ियाँ पली थीं, जो आस-पास की सड़क पर घूमती-फिरती थीं। एक शाम यशपाल उन मुर्ग़ियों से छेड़खानी करने लगे। बँगले में रहनेवाली मेम ने इस हरक़त पर बच्चों के फटकारा, गालियां दीं। यशपाल ने भी गाली का जवाब गाली से दिया। मेम ने मारने की धमकी दी, तो वह भी धमकाने के बाद निकट के एक कारख़ाने में छिप गए। इसकी शिकायत उनकी मां तक पहुंची।
जब यशपाल घर लौटे तो उनकी छड़ी से खूब पिटाई की। यशपाल की माँ नैनीताल ज़िले में तराई के क़स्बे काशीपुर में आर्य कन्या पाठशाला में प्रधानाध्यापिका थीं। उनके आवास के पास ही द्रोण सागर नाम का तालाब था। आसपास की औरतें प्रायः वहाँ दोपहर में घूमने जाती थीं। एक दिन जब औरतें वहाँ नहा रही थीं, दो अंग्रेज़ फ़ौजी वहां पहुंच गए। औरतें चीख़ती हुईं अपने कपड़े उठाकर भागने लगीं। अंग्रेजों के कोप से बचने के लिए डरकर वहां से गुजरते यशपाल भी औरतों के साथ भाग खड़े हुए थे। उनके बाल-मानस पटल पर इस तरह के चित्र अंकित होते जा रहे थे कि 'अंग्रेज़ से वह भय ऐसा ही था, जैसे बकरियों के झुंड को बाघ देख लेने से भय लगता होगा अर्थात् अंग्रेज़ कुछ भी कर सकता था। उससे डरकर रोने और चीख़ने के सिवाय दूसरा कोई उपाय नहीं था।'
घरेलू निर्धनता के बीच उनकी आरंभिक पढ़ाई-लिखाई गुरुकुल कांगड़ी में हुई। मन गरीबी, अपमान और अंग्रेजों के अत्याचार की पीड़ा से हर वक्त भरा रहता था। जब वह समझदार हुए तो गोरे शासन से लड़ने के लिए एक क्रांतिकारी संगठन से जुड़ गए। जब 1921 में देश में असहयोग आंदोलन चल रहा था, यशपाल युवा हो चुके थे। देशभक्ति के लिए त्याग की भावना उनमें भी ठाट मारने लगी थी। वह कांग्रेस के प्रचार-अभियान में शामिल हो गए। लुग्गड़ से बने खद्दर के कुर्ता-पायजामा, कोट, गांधी टोपी पहनने लगे। वह बार-बार मैला हो जाता था तो उसे लाल रंग में रँगवा लिया। उसी दौरान तबीयत से क्रांतिकारी होने के कारण चौरा-चौरी काण्ड के बाद उनका महात्मा गाँधी से मोहभंग हो गया।
मैट्रिक के बाद वह लाहौर में भगतसिंह, सुखदेव और भगवतीचरण बोहरा के संपर्क में पहुंच गए। नौजवान भारत सभा की गतिविधियों में सक्रिय हो गए। लाला लाजपतराय पर अंग्रेजों के लाठी चार्ज से उनका मन और अधिक सुलग उठा। बाद में भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु की फाँसी के विरोध में वह हिंदुस्तान में बुनियादी बदलाव और खुद के भी बलिदान का सपना देखने लगे। गिरफ्तार हो गए। 02 मार्च 1938 को जेल से छूटने के बाद उन्होंने विप्लव का प्रकाशन-संपादन शुरू कर दिया। अब उनका मन लेखन में रमने लगा। शब्दों की ज्वाला फूट-फूटकर बाहर आने लगी।
अपने पहले उपन्यास 'दादा कॉमरेड' की भूमिका में उन्होंने लिखा, 'कला के प्रेमियों को एक शिकायत मेरे प्रति है कि मैं कला को गौण और प्रचार को प्रमुख स्थान देता हूँ। मेरे प्रति दिए गए इस फ़ैसले के विरुद्ध मुझे अपील नहीं करनी। संतोष है अपना अभिप्राय स्पष्ट कर पाता हूं। मनुष्य के पूर्ण विकास और मुक्ति के लिए संघर्ष करना ही लेखक की सार्थकता है। जब लेखक अपनी कला के माध्यम से मनुष्य की मुक्ति के लिए पुरानी व्यवस्था और विचारों में अंतर्विरोध दिखाता है और नए आदर्श सामने रखता है तो उस पर आदर्शहीन और भौतिकवादी होने का लांछन लगाया जाता है। आज के लेखक की जड़ें वास्तविकता में हैं, इसलिए वह भौतिकवादी तो है ही परंतु वह आदर्शहीन भी नहीं है। उसके आदर्श अधिक यथार्थ हैं। आज का लेखक जब अपनी कला द्वारा नए आदर्शों का समर्थन करता है तो उस पर प्रचारक होने का लांछन लगाया जाता है। लेखक सदा ही अपनी कला से किसी विचार या आदर्श के प्रति सहानुभूति या विरोध पैदा करता है।'
यशपाल मूलतः उपन्यासकार, कथाकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। उनके कहानी-संग्रहों में पिंजरे की उड़ान, फूलो का कुर्ता, धर्मयुद्ध, सच बोलने की भूल, ज्ञानदान, भस्मावृत्त चिनगारी, तुमने क्यों कहा था मैं सुंदर हूँ, उत्तमी की माँ प्रमुख हैं। की कहानियों में भरपूर कथा रस मिलता है। वर्ग-संघर्ष, मनोविश्लेषण और तीखा व्यंग्य इनकी कहानियों की विशेषताएँ हैं। उन्होंने दिव्या, देशद्रोही, झूठा सच, दादा कामरेड, अमिता, मनुष्य के रूप, मेरी तेरी उसकी बात, क्यों फँसें आदि उपन्यास लिखने के साथ ही एक व्यंग्य संग्रह चक्कर क्लब, संस्मरण सिंहावलोकन और आलोचना-समालोचना की किताब गांधीवाद की शवपरीक्षा भी लिखी। यशपाल की एक छोटी से लोकप्रिय कहानी है 'फूलों का कुर्ता', जो इस प्रकार है-
'हमारे यहां गांव बहुत छोटे-छोटे हैं। कहीं-कहीं तो बहुत ही छोटे, दस-बीस घर से लेकर पांच-छह घर तक और बहुत पास-पास। एक गांव पहाड़ की तलछटी में है तो दूसरा उसकी ढलान पर।
बंकू साह की छप्पर से छायी दुकान गांव की सभी आवश्कताएं पूरी कर देती है। उनकी दुकान का बरामदा ही गांव की चौपाल या क्लब है। बरामदे के सामने दालान में पीपल के नीचे बच्चे खेलते हैं और ढोर बैठकर जुगाली भी करते रहते हैं।
'सुबह से जारी बारिश थमकर कुछ धूप निकल आई थी। घर में दवाई के लिए कुछ अजवायन की जरूरत थी। घर से निकल पड़ा कि बंकू साह के यहां से ले आऊं।
'बंकू साह की दुकान के बरामदे में पांच-सात भले आदमी बैठे थे। हुक्का चल रहा था। सामने गांव के बच्चे कीड़ा-कीड़ी का खेल खेल रहे थे। साह की पांच बरस की लड़की फूलो भी उन्हीं में थी।
'पांच बरस की लड़की का पहनना और ओढ़ना क्या। एक कुर्ता कंधे से लटका था। फूलो की सगाई गांव से फर्लांग भर दूर चूला गांव में संतू से हो गई थी। संतू की उम्र रही होगी, यही सात बरस। सात बरस का लड़का क्या करेगा। घर में दो भैंसें, एक गाय और दो बैल थे। ढोर चरने जाते तो संतू छड़ी लेकर उन्हें देखता और खेलता भी रहता, ढोर काहे को किसी के खेत में जाएं। सांझ को उन्हें घर हांक लाता।
'बारिश थमने पर संतू अपने ढोरों को ढलवान की हरियाली में हांक कर ले जा रहा था। बंकू साह की दुकान के सामने पीपल के नीचे बच्चों को खेलते देखा, तो उधर ही आ गया।
संतू को खेल में आया देखकर सुनार का छह बरस का लड़का हरिया चिल्ला उठा। आहा! फूलो का दूल्हा आया है। दूसरे बच्चे भी उसी तरह चिल्लाने लगे। बच्चे बड़े-बूढ़ों को देखकर बिना बताए-समझाए भी सब कुछ सीख और जान जाते हैं। फूलो पांच बरस की बच्ची थी तो क्या, वह जानती थी, दूल्हे से लज्जा करनी चाहिए। उसने अपनी मां को, गांव की सभी भली स्त्रियों को लज्जा से घूंघट और पर्दा करते देखा था। उसके संस्कारों ने उसे समझा दिया, लज्जा से मुंह ढक लेना उचित है। बच्चों के चिल्लाने से फूलो लजा गई थी, परंतु वह करती तो क्या। एक कुरता ही तो उसके कंधों से लटक रहा था। उसने दोनों हाथों से कुरते का आंचल उठाकर अपना मुख छिपा लिया।'
'छप्पर के सामने हुक्के को घेरकर बैठे प्रौढ़ आदमी फूलो की इस लज्जा को देखकर कहकहा लगाकर हंस पड़े। काका रामसिंह ने फूलो को प्यार से धमकाकर कुरता नीचे करने के लिए समझाया। शरारती लड़के मजाक समझकर हो-हो करने लगे।'
'बंकू साह के यहां दवाई के लिए थोड़ी अजवायन लेने आया था, परंतु फूलो की सरलता से मन चुटिया गया। यों ही लौट चला। बदली परिस्थिति में भी परंपरागत संस्कार से ही नैतिकता और लज्जा की रक्षा करने के प्रयत्न में क्या से क्या हो जाता है।'
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