रिक्शा चलाने वाला मजदूर पिग फार्मिंग से बन गया करोड़पति
12 साल की उम्र से ही मजदूरी करने वाले झारखंड के मोहर साहू आज 51 साल की उम्र में करोड़पति हो गए हैं। सुअरपालन का बिजनेस करने वाले मोहर का सालाना टर्नओवर 1 करोड़ से ज्यादा है। अब उनके पास रांची में एक बड़ा सा दोमंजिला मकान है।
पहली बार जब उन्होंने सुअर बेचे तो उन्हें 10,000 रुपये मिले। मोहर को यकीन नहीं हो रहा था कि उन्हें सुअर के बिजनेस से इतने पैसे मिलेंगे। एक अनपढ़ आदमी के लिए उस वक्त इतनी आमदनी होना बड़ी बात हुआ करती थी। उन्हें लगा कि वह सही रास्ते पर हैं और फिर उन्होंने इस बिजनेस में और पैसे इन्वेस्ट करने शुरू कर दिए।
जिस उम्र में बच्चे कॉपी-किताब से रूबरू होते हैं उस उम्र में साहू को जूट के भारी बोरे उठाने पड़ रहे थे। वह अपने कंधों पर गेहूं और चावल के बोरे ढोते थे। मोहर साहू उन दिनों को याद करते हुए बताते हैं कि दिन भर काम करने के बाद उन्हें रात को असहनीय दर्द होता था। लेकिन उनके पास इसके सिवा कोई और विकल्प भी नहीं था।
1966 में काफी गरीब परिवार में पैदा हुए मोहर साहू की जिंदगी काफी कठिन परिस्थितियों में बीती। उनके पिता रिक्शा चलाकर किसी तरह अपने परिवार का पेट भरते थे। मोहर चार भाई-बहन थे और उनके पिता दिन भर में मुश्किल से 10 रुपये कमा पाते थे। इस हालत में उनके परिवार की स्थिति क्या रही होगी इसका सिर्फ अंदाजा लगाया जा सकता है। उनकी मां भी घर में भुने हुए चावल बेचा करती थीं जिससे वे 2 से 3 रुपये तक कमा लेती थीं, लेकिन 12 साल की उम्र से ही मजदूरी करने वाले झारखंड के मोहर आज 51 साल की उम्र में करोड़पति हो गए हैं। सुअरपालन का बिजनेस करने वाले मोहर का सालाना टर्नओवर 1 करोड़ से ज्यादा है। अब उनके पास रांची में एक बड़ा सा दोमंजिला मकान है।
बचपन के दिनों में मोहर ने इतनी तकलीफों में अपना जीवन जीया है कि पढ़ाई-लिखाई उनके लिए दूर की कौड़ी थी। जब वे पांच साल के थे तभी उनके पिता ने उन्हें एक सरकारी स्कूल में पढ़ने के लिए भेज दिया। यहां मुफ्त में पढ़ाई होती थी। मोहर ने किसी तरह कक्षा 7 तक पढ़ाई की, लेकिन इसके बाद हालात और मुश्किल होते गए क्योंकि उनके पिता उनकी कॉपी-किताब और ड्रेस का खर्चा उठाने में अक्षम हो रहे थे। 12 साल की उम्र में मोहर ने स्कूल छोड़ दिया और सोच लिया कि वह किसी भी तरह पैसे कमाकर अपने पिता का सहयोग देंगे। उस वक्त उनके बड़े भाई सहरिया पहले ही रांची में मजदूरी कर रहे थे।
मोहर ने भी मजदूरी करनी शुरू कर दी। वह अपने इलाके में ही सामान की ढुलाई करते थे। वह दिन भर में 2 से 3 रुपये कमा लेते थे। आज के दौर में 2-3 रुपये की कोई औकात नहीं है, लेकिन ये वह दौर था जब इन रुपयों का कुछ महत्व हुआ करता था। जिस उम्र में बच्चे कॉपी-किताब से रूबरू होते हैं उस उम्र में साहू को जूट के भारी बोरे उठाने पड़ रहे थे। वह अपने कंधों पर गेहूं और चावल के बोरे ढोते थे। मोहर साहू उन दिनों को याद करते हुए बताते हैं कि दिन भर काम करने के बाद उन्हें रात को असहनीय दर्द होता था। लेकिन उनके पास इसके सिवा कोई और विकल्प भी नहीं था।
छह महीने तक मजदूर का काम करने के बाद उन्हें रिक्शा सुपरवाइजर की एक नौकरी मिल गई। ये थोड़ी अच्छी नौकरी थी और इससे उन्हें हर महीने लगभग 75 रुपये मिलने लगे थे। इतना ही नहीं हर साल उनकी तनख्वाह में 30 रुपये की बढ़ोत्तरी होती थी। 1984 में मोहर की शादी हो गई। अपनी पत्नी और भविष्य को देखते हुए उन्होंने यह नौकरी छोड़ दी और एक बर्तन की दुकान में सेल्समैन की नौकरी करने लगे। इससे उन्हें हर महीने 400 रुपये मिलते थे। दुकान में काम करने के दौरान ही उन्हें बिजनेस का आइडिया सूझने लगा।
1987 में उन्होंने सेल्समैन की नौकरी छोड़ दी और अपना कुछ शुरू करने के बारे में सोचने लगे। इस दौरान खाली वक्त में वह रिक्शा चलाने का काम करते थे ताकि घर का खर्च किसी तरह चलता रहे। मोहर के ससुराल वाले सुअर पालन का काम करते थे। उन्होंने अपने ससुराल वालों से सुअरपालन की सलाह ली। इस दौरान वे बिरसा एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी के वेटिनरी डिपार्टमेंट के डीन डॉ. संत कुमार से मिले। हालांकि वे इनसे पहले भी मिल चुके थे, लेकिन इस बार वे सुअरपालन से जुड़ी सलाह लेने के लिए मिले।
मोहर ने सुअर पालन व्यवसाय से जुड़ी ट्रेनिंग ली और अपनी बचत से इकट्ठा किए गए पैसों से 10 छोटे-छोटे सुअर खरीदे। उन्होंने अपने घर के पीछे 700 स्क्वॉयर फीट एरिया में सुअरपालन का व्यवसाय शुरू कर दिया। वे सुअर के भोजन के लिए शहर के सभी होटलों और कई घरों से जूठन इकट्ठा करते थे इसके लिए उन्हें कोई पैसे नहीं देने पड़ते थे। यानी सुअरों के लिए फ्री में चारे की व्यवस्था हो जाती थी। हालांकि उन्हें अपने पड़ोसियों की बात भी सुननी पड़ती थी क्योंकि सुअर की वजह से उनके पड़ोसी भी परेशान हो जाया करते थे। पहली बार जब उन्होंने सुअर बेचे तो उन्हें 10,000 रुपये मिले। मोहर को यकीन नहीं हो रहा था कि उन्हें सुअर के बिजनेस से इतने पैसे मिलेंगे। एक अनपढ़ आदमी के लिए उस वक्त इतनी आमदनी होना बड़ी बात हुआ करती थी। उन्हें लगा कि वह सही रास्ते पर हैं और फिर उन्होंने इस बिजनेस में और पैसे इन्वेस्ट करने शुरू कर दिए।
सिर्फ दो सालों में उनके पास 45 सुअर हो गए और 1990 में उनका टर्नओवर एक लाख पहुंचा। वे बताते हैं कि भारी और वजनी सुअरों की असम और बिहार में काफी डिमांड होती है। 1999 में उन्होंने 10 कट्ठे जमीन खरीदे और वहां पर एक साथ कई सुअर पाल लिए। 2000 में उनका टर्नओवर दस लाख जा पहुंचा था। उन्होंने अच्छी गुणवत्ता के सुअरों की लंबी लाइन लगा दी थी।
मोहर को झारखंड के दो मुख्यमंत्री मधु कोड़ा और अर्जुन मुंडे द्वारा सम्मान मिल चुका है। इस साल सुअर पालन से उनका कुल टर्नओवर 1 करोड़ था। करोड़पति बनने के बाद भी उनका धंधा सुअरपालन ही है। अब वह दूसरे लोगों को सुअरपालन की ट्रेनिंग और प्रेरणा देते हैं। हालांकि वह नहीं चाहते हैं कि उनके बच्चे भी इस धंधे में उतरें। उनका मानना है कि इस बिजनेस में पैसा जरूर है, लेकिन सम्मान नहीं है।