सीधे कलेजे में उतर जाते हैं परसाई के व्यंग्य-बाण!
हरिशंकर परसाई की पहली व्यंग्य रचना 'स्वर्ग से नरक जहाँ तक' है, जो मई 1948 में 'प्रहरी' में प्रकाशित हुई थी। उन्होंने अपने व्यंग्यों में उर्दू, अंग्रेज़ी शब्दों का भी खुलकर प्रयोग किया। जैसे कोई लेखक अपनी वसीयत लिख गया हो, वह लिखते हैं - 'मैं मरूं तो मेरी नाक पर सौ का नोट रखकर देखना, शायद उठ जाऊं।'
हरिशंकर परसाई हिंदी के ऐसे पहले रचनाकार माने जाते हैं, जिन्होंने व्यंग्य को विधा का दर्जा दिलाया और उसे हल्के-फुल्के मनोरंजन की परंपरागत परिधि से उबारकर समाज के व्यापक प्रश्नों से जोड़ा।
10 अगस्त, आज ही के दिन के ख्यात व्यंग्यकार, कहानीकार, निबंधकार हरिशंकर परसाई की लेखनी हिंदी साहित्य जगत को शब्दों की अनमोल थाती सौंपकर हमेशा के लिए थम गई थी। हिंदी का शायद ही कोई ऐसा सुधी पाठक हो, जो परसाई जी के नाम से अपरिचित हो। परसाई जी आज भी हिंदी के सबसे ज़्यादा पढ़े जाने वाले लेखकों में हैं। उनके व्यंग्य बाण ऐसे गंभीर घाव करते हैं कि पढ़ने वाला हक्का-बक्का रह जाए। मसलन, कुछ बानगी देखिए - 'बेइज्जती में अगर दूसरे को भी शामिल कर लो तो आधी इज्जत बच जाती है।... अच्छी आत्मा फोल्डिंग कुर्सी की तरह होनी चाहिए। ...जरूरत पड़ी तब फैलाकर बैठ गए, नहीं तो मोड़कर कोने से टिका दिया।... अर्थशास्त्र जब धर्मशास्त्र के ऊपर चढ़ बैठता है, तब गोरक्षा आंदोलन के नेता जूतों की दुकान खोल लेते हैं। ...जो पानी छानकर पीते हैं, वो आदमी का खून बिना छना पी जाते हैं।... अद्भुत सहनशीलता और भयावह तटस्थता है इस देश के आदमी में। कोई उसे पीटकर पैसे छीन ले तो वह दान का मंत्र पढ़ने लगता है।.... अमरीकी शासक हमले को सभ्यता का प्रसार कहते हैं। बम बरसते हैं तो मरने वाले सोचते है, सभ्यता बरस रही है।... चीनी नेता लड़कों के हुल्लड़ को सांस्कृतिक क्रान्ति कहते हैं, तो पिटने वाला नागरिक सोचता है, मैं सुसंस्कृत हो रहा हूं।... इस कौम की आधी ताकत लड़कियों की शादी करने में जा रही है।... नशे के मामले में हम बहुत ऊंचे हैं। दो नशे खास हैं: हीनता का नशा और उच्चता का नशा, जो बारी-बारी से चढ़ते रहते हैं।... जो कौम भूखी मारे जाने पर सिनेमा में जाकर बैठ जाए, वह अपने दिन कैसे बदलेगी।... इस देश के बुद्धिजीवी शेर हैं पर वे सियारों की बारात में बैंड बजाते हैं।'
हरिशंकर परसाई हिंदी के ऐसे पहले रचनाकार माने जाते हैं, जिन्होंने व्यंग्य को विधा का दर्जा दिलाया और उसे हल्के-फुल्के मनोरंजन की परंपरागत परिधि से उबारकर समाज के व्यापक प्रश्नों से जोड़ा। उनकी व्यंग्य रचनाएँ हमारे मन में गुदगुदी ही पैदा नहीं करतीं, बल्कि हमें उन सामाजिक वास्तविकताओं के आमने-सामने खड़ा करती हैं, जिनसे किसी भी व्यक्ति का अलग रह पाना लगभग असंभव है। लगातार खोखली होती जा रही हमारी सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में पिसते मध्यमवर्गीय मन की सच्चाइयों को हरिशंकर परसाई ने बहुत ही निकटता से पकड़ा है। सामाजिक पाखंड और रूढ़िवादी जीवन मूल्यों की खिल्ली उड़ाते हुए उन्होंने सदैव विवेक और विज्ञान सम्मत दृष्टि को सकारात्मक रूप में प्रस्तुत किया। उनकी भाषा-शैली में एक ख़ास प्रकार का अपनापन नज़र आता है।
हरिशंकर परसाई का जन्म 22 अगस्त, 1922 को मध्य प्रदेश के होशंगाबाद ज़िले में 'जमानी' नामक गाँव में हुआ था। गाँव से प्राम्भिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे नागपुर चले गए थे। उन्होंने जबलपुर से साहित्यिक पत्रिका 'वसुधा' का प्रकाशन किया, परन्तु घाटा होने के कारण उसे बंद करना पड़ा। उनकी पहली व्यंग्य रचना 'स्वर्ग से नरक जहाँ तक' है, जो मई 1948 में 'प्रहरी' में प्रकाशित हुई थी। परसाई जी ने अपनी व्यंग्य रचनाओं में लोकप्रचलित हिंदी के साथ-साथ उर्दू, अंग्रेज़ी शब्दों का भी खुलकर प्रयोग किया। जैसे कोई लेखक अपनी वसीयत लिख गया हो, वह लिखते हैं - 'मैं मरूं तो मेरी नाक पर सौ का नोट रखकर देखना, शायद उठ जाऊं।'
आजकल के ज्यादातर लेखक कोर्स में आते ही लुढ़क जाते हैं। परसाई जी जब कोर्स की किताबों में आए, और अधिक तीखा लिखने लगे। उनके बारे में कहा जाता है कि उनकी तारीफ करने वाले भी तड़प उठते हैं। उनके जमाने में हर राजनेता, और कवि-साहित्यकारों को भी आशंका रहती थी कि कहीं वह उनके ऊपर ही न कलम चला दें। धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक माने जहां-जहां करप्शन के पिस्सू मिले, वह अपनी लेखनी से चुन-चुनकर मारते रहे।
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