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पहले "स्वीकार" फिर “आश्रय” बाद में "सुरक्षा" से मिला विकलांगों को नए जीवन का "उपकार"

38 सालों से विकलांगों को नया जीवन देने में जुटे डॉ पी हनुमंत राव58 लाख विकलांगों को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से नया जीवन देने में जुटेविकलांगों के चार गैर सरकारी संस्थाएं चलाते हैं स्वीकार, आश्रय, सुरक्षा और उपकार हैं संस्थाओं के नाम


दुनियाभर की कुल आबादी में तक़रीबन 15 फीसदी लोग विकलांग हैं, ऐसा मानना है विश्व स्वास्थ्य संगठन का। इनमें से लगभग 80 फीसदी लोग विकासशील देशों में रह रहे हैं। जिनमें शारीरिक और मानसिक दोनों तरह की विकलांगता शामिल है। असल में विकलांगता एक स्थिति है जिसमें पीड़ित अपने को, कई मामलों में दूसरे की अपेक्षा कमतर मानते हैं और समाज उनकी इस ग्रंथि पर लगातार कुठाराघात करता है। इसलिए अगर सामाजिक सोच में कमी है तो विकलांगता अभिशाप बन जाती है और समाज बेहतर और प्रगतिशील है तो फिर विकलांगता एक बीमारी है जिसे समय के साथ बेहतर किया जा सकता है।

डॉ हनुमंत राव, संस्थापक

डॉ हनुमंत राव, संस्थापक


ऐसा नहीं कि शारीरिक रूप से अक्षम लोगों में आत्मविश्वास की कमी होती है। बस ज़रूरत है उसे सही रूप में जगाने की, बिना दयाभाव दिखाए उनके जज़्बे को आवाज़ देने की। एक ऐसे ही शख्स हैं जिन्होंने प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से करीब 58 लाख विकलांग लोगों को नई उम्मीद दी है, जीवन जीने का असली मक़सद दिया है। यकीन करना थोड़ा मुश्किल हो सकता है, पर यह सच है। जिस शख्स ने पिछले 38 सालों में ये महान और असाधारण काम किया है उनका नाम है डॉ पी हनुमंत राव।

हैदराबाद में रहने वाले बाल रोग विशेषज्ञ डॉ पी हनुमंत राव ने अपना सारा जीवन विकलांगों की मदद और सेवा में समर्पित कर दिया है। उन्होंने ऐसी व्यवस्था स्थापित की है जिससे हर दिन सैकड़ों विकलांग लाभ उठकर स्वावलम्बी बनने की कोशिश कर रहे हैं। 38 साल पहले हैदराबाद में एक छोटे से गैराज में मानसिक रूप से विकलांगों के इलाज और पुनर्वास के लिए एक केंद्र शुरुआत करने वाले डॉ हनुमंत राव ने आज चार गैर-सरकारी संगठनों के ज़रिये सभी तरह के विकलांग बच्चों और दूसरे लोगों की मदद वाला देश का सबसे बड़ा केंद्र बना लिया है। इतना ही नहीं डॉ हनुमंत राव ने कई शैक्षणिक संस्था और प्रशिक्षण केन्द्र स्थापित किये हैं जहाँ से हर साल समाज को कई ऐसे लोग मिल रहे हैं जो विकलांगों के इलाज और पुनर्वास में महारत रखते हैं। हनुमंत राव ने जो हासिल किया है उसे हासिल करने की कल्पना करना की बेहद मुश्किल है। हनुमंत राव की समाज -सेवा अतुल्य है। उनका प्रयास असामान्य है और प्रयोग अभूतपूर्व। उनकी सफलता एक अद्भुत मिसाल है। दुनिया के सामने एक बहुत बड़ी सीख। विकलांगों के इलाज और पुनर्वास में उनका काम देश ही नहीं बल्कि दुनिया-भर के लिए अनुसरणीय है।

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हनुमंत राव की कहानी लोगों को बहुत कुछ सिखाती हैं। ये एक ऐसी कहानी है जिसमें संघर्ष है, विपरीत परिस्थितियों में पेश आने वाली चुनौतियां और समस्याएँ हैं, समाज के शरारती तत्वों की हरकतें हैं और भी बहुत कुछ है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण है बुलंद हौसलों, मेहनत, लगन और जूनून के बल पर असामान्य जीत हासिल करने का प्रत्यक्ष और जीत जागता उदाहरण।

हनुमंत राव का जन्म 16 सितम्बर 1945 को हैदराबाद के पुराने शहर के इलाके में हुआ। परिवार में पिता और दो चाचा रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिशनर थे। उन दिनों पूरी हैदराबाद रियासत में बहुत ही कम डॉक्टर और मेडिकल प्रैक्टिशनर हुए करते थे। पिता चाहते थे कि हनुमंत राव भी उन्हीं की तरह मेडिकल प्रैक्टिशनर बने और नर्सिंग होम चलाने में उनकी मदद करें। लेकिन हनुमंत ने कुछ बड़ा करने की सोच ली थी। वे मेडिकल प्रैक्टिशनर ही नहीं बल्कि एमबीबीएस की पढ़ाई पूरी कर डॉक्टर बनने का सपना देखने लगे थे। उन दिनों भी परिवार 45 बिस्तरों वाला नर्सिंग होम चलाता था, जो कि बहुत बड़ी बात थी। हनुमंत राव के परिवार का पूरे शहर में बहुत रुतबा था। संयुक्त परिवार था। आमदनी खूब थी। घर में सारी सुख-सुविधाएँ मौजूद थीं। हनुमंत राव स्कूल के दिनों में ही कार चलाया करते थे। उन्होंने मुफीद - उल - अनम हाई स्कूल से पढ़ाई की। उन दिनों की यादें ताज़ा करते हुए हनुमंत राव कहते हैं, "वो सबसे खुशनुमा दिन था। कोई तकलीफ नहीं थी। उन दिनों मैंने सारे सुख का अनुभव किया। वो दिन मैंने दुबारा नहीं देखे" . चूँकि परिवार में तीन मेडिकल प्रैक्टिशनर थे इसलिए हनुमंत ने भी डाक्टर बनने की ठान ली। मेहनत और लगन के बल पर हनुमंत राव ने वारंगल के काकतीय मेडिकल कॉलेज में दाखिला हासिल कर लिया। लेकिन, यहाँ मेडिकल की पढ़ाई शुरू होते ही एक के बाद मुसबीतें भी आनी शुरू हुईं। संयुक्त परिवार टूट गया। सब अलग हो गए। आर्थिक स्थिति पहले जैसी नहीं रही। सुख के साधन भी दूर होते गए। एक तरह से सारे परिवार की ज़िम्मेदारी हनुमंत राव के कन्धों पर आ पड़ी। 4 भाइयों और 4 बहनों की ज़िम्मेदारी भी हनुमंत राव पर ही थी। यही वजह थी कि एमबीबीएस की पढ़ाई होते ही पिता ने हनुमंत राव को तुरंत डॉक्टरी शुरू करने को कहा ताकि घर-परिवार चल सके। लेकिन, हनुमंत राव आगे और पढ़ना चाहते थे। वो बाल रोग विशेषज्ञ बनाना चाहते थे। उनका इरादा एमडी की डिग्री हासिल करने के बाद लोगों का इलाज करने का था। पर परिवार वाले ज़ोर-ज़बरदस्ती पर उतारू थे। ऐसे में हनुमंत राव ने एक बड़ा फैसला लिया। उन्होंने अपने पिता को बता दिया कि वे अपनी पढ़ाई जारी रखेंगे, लेकिन जो पढ़ाई के दौरान 600 रुपये महीना स्टाइपेन्ड मिलेगा, वो सारे वे परिवार के नाम कर देंगे। इस फॉर्मुले पर परिवारवाले राज़ी हो गए। शुरू से ही हनुमंत राव ने अपने करियर में किसी की मदद नहीं ली। उल्टे उन्होंने अपने सारे परिवार - भाइयों-बहनों की हर मुमकिन मदद की और आगे चलकर उनका घर-परिवार बसाया।

एमडी की डिग्री हासिल करने के बाद हनुमंत राव ने दूसरे डॉक्टरों की तरह आम लोगों की आम बीमारियों का इलाज करना शुरू नहीं किया। उन्होंने कुछ अलग और बेहतर करने की सोची और वैसा ही किया। हनुमंत राव बताते है कि उन दिनों हैदराबाद में कई डाक्टर हो गए थे। बच्चों की बीमारियों के स्पेशलिस्ट डॉक्टर आ गए थे। लेकिन , विकलांग बच्चों का इलाज करने वाले डॉक्टर न के बराबर थे। बच्चे चाहे मानसिक रूप से विकलांग हो या शारीरिक रूप से, उनकी ठीक तरह से देखभाल और इलाज करने वाले डाक्टरों की देश-भर में ही कमी थी।

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हनुमंत राव ने देखा कि विकलांग बच्चों के माँ-बाप भी काफी तकलीफें झेलते हैं। अपने बच्चों का सही इलाज करवाने के लिए दर-दर भटकते हैं। गाँव-गाँव, शहर-शहर घूमते हैं। फिर भी सही इलाज नहीं हो पाता।

इसी समय पर हनुमंत राव ने अपनी ज़िंदगी का सबसे बड़ा फैसला लिया। उन्होंने ठान ली कि वे अपनी ज़िंदगी विकलांग बच्चों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए समर्पित कर देंगे। अपने फैसले के मुताबिक हनुमंत राव ने विकलांग बच्चों का इलाज करना शुरू किया। अपनी प्रैक्टिस के दौरान हनुमंत राव को इस बात का एहसास हुआ कि विकलांग बच्चों का इलाज और उनकी देखभाल कोई मामूली बात नहीं है। इसके लिए ख़ास ट्रेनिंग की ज़रुरत है।

हनुमंत राव ने पता लगाया कि विकलांग बच्चों के इलाज और उनके पुनर्वास की स्पेशल ट्रेनिंग कहाँ दी जाती है। फिर क्या था - हनुमंत राव ने तुरंत मुंबई के आल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ़ फिजिकल मेडिसिन एंड रिहैबिलिटेशन में दाखिल ले लिया। मुंबई के इस संस्थान में प्रशिक्षण से हनुमंत राव के हौसले और भी बुलंद हो गए। उनका आत्म-विश्वास और भी बढ़ गया। हैदराबाद लौटकर उन्होंने विकलांग बच्चों का इलाज और उनके पुनर्वास का काम ज़ोर-शोर से शुरू कर दिया। इस बीच हनुमंत राव ने उस्मानिया विश्वविद्यालय से साइकोलॉजी में डॉक्टरेट की उपाधि भी हासिल की।

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1977 में पहली बार हनुमंत राव ने हैदराबाद में मानसिक रूप से विकलांग बच्चों के लिए एक सेंटर की स्थापना की। खास बात ये है कि उस समय देश में ऐसे बहुत ही कम संस्थान थे। कोलसावाड़ी इलाके के एक मामूली से गैराज में इस सेंटर को खोला गया था। शुरुआत में सिर्फ 5 बच्चे थे और इनकी देखभाल और इलाज के लिए हनुमंत राव के साथ दो स्टाफ मेंबर थे। एक मायने में गैराज में शुरू किया गया ये सेंटर एक बहुत बड़े और बेहद प्रभावी संस्थान की नींव थी। एक गैराज में मानसिक रूप से विकलांग पांच बच्चों के साथ शुरू हुआ एक सेंटर आगे चलकर विकलांगों के लिए देश के सबसे बड़े और कारगर चिकित्सा, पुनर्वास, शिक्षण और प्रशिक्षण केन्द्रों में एक बना।

हनुमंत राव ने योर स्टोरी से बातचीत में बताया कि उन दिनों अगर घर में कोई बच्चा या व्यक्ति विकलांग होता था तो परिवारवाले उसे छिपा कर रखते थे। घर- परिवार में किसी एक के विकलांग होने को अभिशाप माना जाता था। लोग ये समझते थे कि किसी जन्म के पाप की सजा की वजह से उनके घर में विकलांग हुआ है। लोगों के ये मालूम ही नहीं था कि मानसिक रूप से विकलांग बच्चों और बड़े लोगों का इलाज और पुनर्वास किया जा सकता। कई लोग मानसिक रूप से विकलांग बच्चों और बड़े लोगों को अपने घर में ज़ंजीरों के बांध कर रखते थे। लोगों में जागरूकता की बहुत कमी थी।

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हनुमंत राव के मुताबिक, सिर्फ विकलांग बच्चों के माता-पिता ही नहीं बल्कि सामान्य बच्चों के माता-पिता और दूसरे लोगों में भी विकलांगों के पुनर्वास के बारे में जागरूकता नहीं थी। उदाहारण के रूप में वे एक घटना के बारे में बताते हैं। हुआ यूँ था कि जिस गैराज में हनुमंत राव ने मानसिक रूप से विकलांग बच्चों के इलाज और पुनर्वास के लिए एक सेंटर खोला था वो एक रिहायसी इलाके में था। सेंटर के आस-पड़ोस में कई मकान थे। इन मकानों में रहने वालों को वहां मानसिक रूप से विकलांग बच्चों का सेंटर खोला जाना पसंद नहीं था। ये लोग नहीं चाहते थे कि उनके मकानों के पास विकलांग बच्चे रहें। सेंटर को वहां से हटवाने के लिए लोगों ने तरह-तरह के हथकंडे अपनाये। एक बार तो लोगों ने ऊंची बिल्डिंग से सेंटर के बच्चों और स्टाफ पर खूब पानी फेंका। मकसद था कि सेंटर वालों को वहां से डराकर भगा देने का। लेकिन, हनुमंत राव के इरादे बुलंद थे। वे किसी के सामने झुकने वाले नहीं थे। वे टस से मस नहीं हुए। डटे रहे , अपना सेंटर चलाया और उसे आगे बढ़ाया।

हनुमंत राव की माने तो तो 70 और 80 के दशक में डाक्टरों में भी विकलांग बच्चों के इलाज और पुनर्वास के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी। एमडी के कोर्स में मानसिक रूप से विकलांग बच्चों और लोगों के बारे में कुछ जानकारी दी जाती थी , लेकिन वो पर्याप्त नहीं थी। हनुमंत राव बताते हैं कि उस सातवें और आठवें दशक में हैदराबाद में सिर्फ चार डाक्टर ऐसे थे वो बाल-रोग विशेषज्ञ थे। अगर वे चाहते तो सामान्य बच्चों की सामान्य बीमारियों का इलाज करते हुए खूब पैसे कमा सकते थे और आराम वाली या फिर ऐश भरी ज़िंदगी जी सकते थे। लेकिन, उन्होंने ठान लिया कि वे कुछ असाधारण करेंगे। उन लोगों तक पहुंचेंगे, जिन तक कोई नहीं पहुँचता। उन लोगों की मदद करेंगे जो खूब अपनी मदद करने में अक्षम हैं।

1981 में हनुमंत राव के जीवन में एक और बड़ी घटना हुई। भारतीय सेना ने उन्हें मानसिक रूप से विकलांग बच्चों के इलाज और पुनर्वास के लिए बड़ा केंद्र बनाने के मकसद से सिकंदराबाद में ज़मीन आवंटित की। इसी ज़मीन पर आध्यात्मिक गुरु पुट्टपर्ती सत्य साईं बाबा ने नए भवन की नींव रखी। हनुमंत राव ने मानसिक रूप से विकलांग बच्चों की मदद के लिए "स्वीकार" नाम से एक गैर-सरकारी संगठन की स्थापना की। संगठन का नाम "स्वीकार" रखने की वजह बताते हुए हनुमंत राव ने कहा, " उन दिनों समाज मानसिक रूप से विकलांग बच्चों को स्वीकार करने को तैयार नहीं था। लोग ये मानते थे कि घर में एक व्यक्ति के विकलांग होने से सारे परिवार की शांति हमेशा के लिए ख़त्म हो जाएगी। लोग ये मानने तो तैयार ही नहीं थे कि मानसिक बच्चों और मानसिक रोगों से पीड़ित दूसरे लोगों का इलाज मुमकिन है। लोग चिकित्सा विज्ञान में हुई प्रगति से अनजान थे। इसी लिए मैंने सोचा कि हमारा संगठन ऐसे लोगों को स्वीकार करेगा जिसे समाज स्वीकार करने को तैयार नहीं है। "

हनुमंत राव ये कहने से भी नहीं हिचकिचाते कि उस दौर के कई डाक्टर भी उनकी इस समाज सेवा से जलते थे। वे कहते हैं, "कुछ लोग तो ये भी कहते थे कि पागलों का इलाज करते-करते हनुमंत राव खुद पागल हो जाएगा। "

लेकिन, हनुमंत राव ने इन बातों की परवाह नहीं की। विकलांगों की सेवा को बेरोकटोक जारी रखा।

9 साल तक लगातार मानसिक रूप से विकलांग लोगों की सेवा करने के बाद हनुमंत राव के मन में विचार आया कि उन्हें अब शारीरिक रूप से विकलांग बच्चों और दूसरे लोगों की भी मदद करनी चाहिए। अपने इसी विचार को अमलीजामा पहनाते हुए हनुमंत राव ने अलग-अलग तरह की विकलांगता से पीड़ित लोगों के इलाज और पुनर्वास के लिए काम करना शुरू किया।

विकलांगों के अलावा नशे की आदत से परेशान लोगों, पारिवारिक और मानसिक समस्यायों से जूझ रहे लोगों की मदद के लिए भी केंद्र खोले।

हनुमंत राव से आगे बढ़ते हुए स्वीकार की तर्ज़ पर भी तीन अन्य गैर-सरकारी और स्वयंसेवी संगठनों की शुरुआत की। इन संगठनों को हनुमंत राव ने "उपकार" , "आश्रय" और "सुरक्षा" नाम दिया। ये सभी संस्थाएं अपने नाम से अनुरूप की काम करती हैं। "उपकार" के ज़रिये हनुमंत राव विकलांग बच्चों और बड़े लोगों को हर मुमकिन मदद करते हैं। "आश्रय" के ज़रिये इन लोगों को वे रहने की जगह मुहैया करते हैं और "सुरक्षा" के माध्यम से वे आर्थिक, सामाजिक सुरक्षा प्रदान करते हैं ताकि उनका शोषण न हो। "स्वीकार", "उपकार" , "आश्रय" और "सुरक्षा" - ये चारों संगठन स्वतंत्र रूप से काम करते हैं।

विकलांग लोगों की सेवा और मदद करते हुए हनुमंत राव ने ये महसूस किया कि भारत ही नहीं बल्कि दुनिया भर में विकलांग लोगों का इलाज और पुनर्वास करने के लिए पर्याप्त प्रशिक्षित लोग नहीं हैं। स्किल्ड और ट्रेंड मैन पावर की कमी है। देश ही नहीं बल्कि दुनिया-भर में विकलांगों की संख्या लगातार बढ़ रही है लेकिन उसी अनुपात में उनका इलाज करने वाले लोगों की संख्या नहीं बढ़ रही है। देश-भर में विकलांगों की मदद करने में ज्यादा से ज्यादा लोगों को सक्षम बनाने के मकसद से हनुमंत राव ने "भागीरथी प्रयास" शुरू किया। अलग अलग तरह की विकलांगता से पीड़ित लोगों के इलाज और पुनर्वास के लिए लोगों को प्रशिक्षित करने के लिए हनुमंत राव के एक के बाद एक कई स्कूल खोले। हनुमंत राव द्वारा खोले गए इन शैक्षणिक संस्थाओं और प्रशिक्षण केन्द्रों में ३० अलग-अलग कोर्स पढ़ाये जा रहे हैं। इन्हीं शैक्षणिक संस्थाओं और प्रशिक्षण केन्द्रों की वजह से हर साल सैकड़ों लोग विकलांगों की मदद करने में सक्षम बनकर उभर रहे हैं।

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ये हनुमंत राव की मेहनत , लगन और दूरदर्शिता का ही नतीजा है कि आज हैदराबाद के अलावा ताण्डुर, कड्डपा और गुंटूर में भी कैंपस बन चुके हैं। इतना ही नहीं "स्वीकार" वो जगह बन चुकी जहाँ हर किस्म की विकलांगता का इलाज किया जा सकता है और हर किस्म के विकलांग के पुनर्वास के प्रयास शुरू किया जा सकते हैं।

वैसे तो हनुमंत राव को इस सफल "भागीरथी प्रयास" की वजह से कई सम्मान और पुरस्कार भी मिले, लेकिन कुछ लोगों ने उनपर तरह-तरह के आरोप लगाये। उन्हें हतोत्साहित की कोशिश की। हनुमंत राव ने बताया, "कुछ लोगों ने, जिनमें कुछ डॉक्टर भी शामिल हैं, ने ये कहा कि मैंने मोटी रकम कमाने के मकसद से ही विकलांगों के लिए इतने केंद्र और संस्थान खोले। उनकी नज़र में मेरा मकसद सिर्फ और सिर्फ रुपये कमाना है। लेकिन ये लोग नहीं जानते हैं कि मैंने इन शैक्षणिक संस्थाओं और प्रशिक्षण केन्द्रों और खोलने के लिए कितना त्याग किया। मेरे परिवारवालों ने भी बहुत कुछ त्याग किया है। अगर हम अपना समय, रूपया, मेहनत नहीं लगाते तो "स्वीकार", "उपकार" , "आश्रय" और "सुरक्षा" नहीं बन पाते। लोग ये नहीं जानते कि इन सबको खड़ा करने के लिए मैं क्या-क्या किया है। कितनी भाग-दौड़ की है। कितना पसीना बहाया है। कितनी तकफील झेली है। कितने आरोप सुने हैं। लोग ये नहीं जानते कि मैंने इन शैक्षणिक संस्थाओं और प्रशिक्षण केन्द्रों को खड़ा करने और चलाने के लिए 25 बैंकों से क़र्ज़ लिया हैं। कई दोस्तों और शुभचिंतकों से रुपये उधार लिए हैं। मेरा खुद का मकान गिरवी रखा है। "

नए उद्यमियों को अपने अनुभव के आधार पर नसीहत देते हुए हनुमंत राव कहते है कि कोई भी इंसान जब कोई बड़ा और असाधारण काम करता है लोग पहले उसकी निंदा करते हैं। उसके उत्साह को ख़त्म करने की कोशिश करते हैं। उसके कामयाबी की राह से हटाने में भी जुट जाते हैं। लेकिन , समझदार उद्यमी वही जो इन लोगों की बातों पर ध्यान नहीं देते। कामयाब वही होते जो अपने लक्ष्य ने नहीं भटकते। "

हनुमंत राव एक और बड़ी सलाह ये देते हैं कि किसी भी व्यक्ति, ख़ास तौर पर उद्यमी को अपनी क्षमता से ज्यादा बोझ नहीं उठाना चाहिए। जो आदमी अपनी क्षमता से ज्यादा करने की कोशिश करता है वो कहीं न कहीं अटक जाता है। कामयाबी की राह से भटक जाता है।

मार्केटिंग को भी कामयाबी के लिए अहम बताते हुए हनुमंत राव सुझाव देते हैं कि सही मार्केटिंग और इमेज बिल्डिंग नहीं हुई तो मुश्किलें ही मुश्किलें हैं। काम अच्छा और ईमानदारी से होना चाहिए और काम से अनुरूप ही उसकी मार्केटिंग।