बावरियों की जिंदगी रोशन कर रहे ये आईएएस अधिकारी
पूरी बावरिया जनजाति जमाने से घोषित अपराधियों जैसी जिंदगी बसर कर रही है। अंग्रेज उन्हे ‘आपराधिक जनजाति’ घोषित कर गए थे। वर्ष 2008 में केंद्र सरकार ने बालकृष्ण रेनके आयोग बनाया। आयोग की सिफारिशें आज भी ठंडे बस्ते में पड़ी हैं लेकिन यूपी के दो आईएएस अधिकारियों ने बावरियों की जिंदगी में बदलाव लाने के गंभीर प्रयास किए। उनके बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के बंदोबस्त किए।
शामली के गांवों में आज भी बावरिया समुदाय के कुछ लोग चोरी-छिपे शराब बनाते हैं। इन दर्जनभर गांवों में लगभग 14 हजार बावारिये रहते हैं। वे हमेशा पुलिस के निशाने पर रहते हैं।
हमारे समाज में बावरिया जनजाति पर अंग्रेजों के जमाने से अपराधी होने का दाग लगा हुआ है। ब्रिटिश हुकूमत ने 1871 में इस जनजाति को ‘आपराधिक जनजाति’ घोषित कर दिया था। इस अधिनियम में समय-समय पर संशोधन हुए और लगभग 190 जनजातियों को इसके तहत ‘आपराधिक जनजाति’ घोषित कर दिया गया। उके बाद पुलिस को इन जनजातियों को गिरफ्तार करने, इनका शोषण करने और इनकी हत्या तक करने की असीमित शक्तियां दे दी गई थीं। उत्तर प्रदेश के दो आईएएस अधिकारियों, 1970 के दशक में योगेंद्र नारायण माथुर और कुछ साल पहले आईएएस नागेंद्र प्रताप सिंह ने इस समुदाय के लोगों की जिंदगी में तब्दीली लाने का गंभीर हस्तक्षेप किया।
'विमुक्त' जनजातियों में शामिल बावरिया ऐसी अकेली उत्पीड़ित जनजाति नहीं, इनमें नट, कंजर, भांतु, सांसी, मदारी जैसी तमाम जनजातियां हैं। इनकी कुल आबादी करीब 14 करोड़ है। अपने मौलिक अधिकारों से वंचित बाकी जनजातियां भी बावरियों की ही तरह समाज और पुलिस के उत्पीड़न से त्रस्त हैं। इन दोनों आइएएस अधिकारियों ने बावरियों के हालात को निकट से देखने के बाद उनके लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, खेल, रोजगार आदि मुहैया कराने की गंभीरता से पहल की।
उन्नी सौ सत्तर के दशक में आईएएस अधिकारी योगेंद्र नारायण माथुर मुजफ्फरनगर के जिलाधिकारी थे। उस समय शामली अलग जिला नहीं था। माथुर को बावरिया समुदाय का हर व्यक्ति भगवान की तरह पूजता है। वे जब तक मुजफ्फरनगर में रहे, उन्होंने बावरिया समुदाय के सामाजिक हित बचाने के लिए काम किया। वह आज भी वहां जाते-आते रहते हैं। योगेंद्र माथुर बताते हैं कि जब वह मुजफ्फर नगर के जिलाधिकारी थे, उनको, उनके एक मित्र नेबावरिया समुदाय की समस्याओं के बारे में बताया था। उसके बाद उन्होंने बावरियों के बीच जाकर काम करना शुरू किया। वहां स्कूल खुलवाया, ग्राम पंचायत से बात कर उनके लिए खेती की जमीनें आवंटित करवाईं, कुछ लोगों को पुलिस में और कुछ को बतौर लेखपाल नौकरी दिलवाई और एक साबुन बनाने की फैक्ट्री भी लगवाई। उनका मानना है कि इस जनजाति के लोगों के लिए सिर्फ अच्छी शिक्षा और रोजगार की व्यवस्था हो जाए तो उनमें व्यापक बदलाव आना तय है। इस समूदाय का इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है कि उनको आज भी अपनी पहचान छिपाकर जीना पड़ता है।
बावरियों के लिए लंबे समय तक सक्रिय रहे राजस्थान उच्च न्यायालय के एडवोकेट रतन कात्यायनी का मानना है कि 1857 का विद्रोह आज़ादी के लिए नहीं, पहचान के लिए हुआ था। उसमें बावरिया आदि घुमंतू जनजातियों ने भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। उसके बाद ही अंग्रेजों ने आपराधिक जनजाति अधिनियम बना दिया। उसके बाद 1950 के दशक में हैबिचुअल ऑफेंडर्स एक्ट बना और ऐसी ‘विमुक्त जनजातियों’ को ‘हैबिचुअल ऑफेंडर्स’ यानी आदतन अपराध करने वालों की तरह से देखा जाने लगा। संयुक्त राष्ट्र और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग इस कानून को रद्द करने के लिए भारत सरकार को कह चुके हैं लेकिन इस दिशा में अभी तक कुछ किया नहीं जा सका है।
वर्ष 2005 में केंद्र सरकार ने बालकृष्ण रेनके की अध्यक्षता में ‘विमुक्त, घुमंतू और अर्ध-घुमंतू जनजातियों’ के लिए एक राष्ट्रीय आयोग का गठन किया। वर्ष 2008 में रेनके आयोग ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी, जिसमें इन जनजातियों के इतिहास से लेकर वर्तमान समय में इनकी चुनौतियों और उनसे निपटने के तरीकों पर विस्तार से चर्चा की गई थी। लगभग डेढ़ सौ पन्नों की इस रिपोर्ट में बताया गया कि बावरिया पीढ़ियों से जंगली जानवरों का शिकार करते थे लेकिन ‘फारेस्ट एक्ट’ और ‘वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट’ के कारण उनका जंगल से भी रिश्ता टूट गया। कानून बनाते समय ध्यान रखा जाना चाहिए था कि जो लोग जंगल पर निर्भर हैं, उनका पुनर्वास किया जाए। आपराधिक जनजाति अधिनियम समाप्त होने के बाद भी उसके दुष्परिणाम इन जनजातियों को भुगतने पड़ रहे हैं। इनके मामलों में न्याय के मूलभूत नियमों तक का उल्लंघन किया जाता है। उस समय आयोग ने बावरिया समुदाय के लिए 76 सिफारिशें की थीं। दुर्भाग्य से आज तक आयोग की उस सिफारिश पर सरकारों का ध्यान नहीं गया है लेकिन उत्तर प्रदेश के ही दूसरे आईएएस अधिकारी नागेंद्र प्रताप सिंह भी बावरियों का जीवन स्तर सुधारने, उनके हालात में बेहतरी लाने का गंभीर हस्तक्षेप किया है।
अब तो शामली (उ.प्र.) जिला बन चुका है। दंगे के दौरान वर्ष 2014 में नागेंद्र प्रताप सिंह को वहां का जिलाधिकारी बनाकर भेजा गया था। उस समय दंगा पीड़ितों के शिविर से कुछ दूर बावरिया समुदाय के लगभग एक दर्जन गांवों रामपुरा, खोकसा, नयाबास, अहमदगढ़, खेडी जुन्नारदार, खानपुर कलां, बिरालियान, जटान खानपुरा, मस्तगढ़, डेरा भगीरथ, दूधली आदि पर जिलाधिकारी की निगाह गई। वह एक दिन बावरियों के एक गांव में गए तो वहां सन्नाटा था। घरों के दरवाजे बंद थे।
दूसरे दिन दूसरे गांव में जाकर ग्राम प्रधान से बावरियों के बारे विस्तार से जानकारी प्राप्त की। उसके बाद वह बावरियों के उन गांवों में खेल-कूद के कार्यक्रम कराने लगे। तभी धीरे-धीरे बावरिया युवक उनके संपर्क में आने लगे। बावरिया जनजाति के कई लड़कों और लड़कियों ने अपने पढ़ने-लिखने की जरूरत महसूस कराई। उसके बाद नागेंद्र प्रताप सिंह ने उन गांवों में बंद हो चुके स्कूलों में अध्यापकों की तैनाती कर पढ़ाई शुरू करवाई। चूंकि बावरिया समुदाय की महिलाएं कच्ची शराब के धंधे में लिप्त थीं, उन्होंने जनवरी 2015 में एक सभा बुलाई, जिसमें 12 गांवों की महिलाओं ने शराब न बनाने का संकल्प लिया। उनकी आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए डीएम ने बावरिया महिला समूह गठित कराए। इसके माध्यम से बावरिया परिवारों को पशुपालन, सिलाई-कढ़ाई आदि का प्रशिक्षण दिया जाने लगा। हाईस्कूल में अस्सी प्रतिशत से ज्यादा नंबर लाने के बावजूद एक बावरिया छात्रा अपने पिता की मौत के बाद आगे पढ़ाई नहीं कर पा रही थी। नागेंद्र प्रताप सिंह ने उसका दिल्ली के एक कॉलेज में दाखिला कराया। इंटर में वह नब्बे प्रतिशत अंकों से पास हुई। वह अब आईपीएस बनने के सपने देखती है। ऐसी तमाम बावरिया लड़कियां स्कूल-कॉलेज जा रही हैं।
शामली के गांवों में आज भी बावरिया समुदाय के कुछ लोग चोरी-छिपे शराब बनाते हैं। इन दर्जनभर गांवों में लगभग 14 हजार बावारिये रहते हैं। वे हमेशा पुलिस के निशाने पर रहते हैं। पुलिस कभी उनको उठा ले जाती है और फर्जी मामलों में सिर्फ इसलिए फंसा दिया जाता है कि वे बावरिया हैं। ऐसा सिर्फ उत्तर प्रदेश में ही नहीं हो रहा है बल्कि हरियाणा, राजस्थान में भी ऐसे तमाम मामले सामने आ चुके हैं। गुडगांव जिले के नरहेडा गांव में भी बावरिया समुदाय के करीब दो सौ परिवार रहते हैं. यहां के लोग भी बताते हैं कि कैसे उनकी बावरिया होने की पहचान उन्हें हर बार शक के दायरे में ला खड़ा करती है।
इस समुदाय के जो लोग नौकरियां करते हैं, काम-धंधा करते हैं, उन्हें भी पुलिस उत्पीड़ित करती है। वे अपने बच्चों की पढ़ाई के लिए जब बैंकों से लोन मांगते हैं तो नहीं दिया जाता है। यहां की वृद्धा कलावती ने मजबूरी में लगभग तीन दशक तक पुलिस की मुखबरी की, अपने ही समुदाय के कई आरिपोयों को गिरफ्तार करवाया, आज उसके भी बच्चों को पुलिस सताती है। राजस्थान में तो बावरियों को और ज्यादा सताया जा रहा है। गांव के लोग उनकी झोपड़ियों में आग लगा देते हैं ताकि वे स्थायी रूप से कहीं बस नहीं सकें। इस समुदाय के ज्यादातर लोगों की जनगणना नहीं होने दी गई, बांग्लादेश के शरणार्थियों तक को भारत में राशन कार्ड मिल जाता है।
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