Brands
Discover
Events
Newsletter
More

Follow Us

twitterfacebookinstagramyoutube
Yourstory

Brands

Resources

Stories

General

In-Depth

Announcement

Reports

News

Funding

Startup Sectors

Women in tech

Sportstech

Agritech

E-Commerce

Education

Lifestyle

Entertainment

Art & Culture

Travel & Leisure

Curtain Raiser

Wine and Food

YSTV

ADVERTISEMENT
Advertise with us

लाल लहू का काला कारोबार

खून के करोबार की कालिमा पर रोशनी डालती एक रिपोर्ट...

खून जो जीवन का आधार है जिसका दान करके व्यक्ति मानवता को भी ऋणी कर देता है, ऐसी अपरिहार्य और पवित्र चीज के संग्रह स्थलों द्वारा की जा रही कारगुजारियों ने तो होश उड़ा दिये हैं। हाल ही में लखनऊ के प्राइवेट ब्लड बैंकों के काले कारनामे का खुलासा हुआ तो रोंगटे खड़े हो गये। पता चला कि यहां वर्षों से खून का काला धंधा चल रहा था।

image


देश के कई हिस्सों में खून बेचने के मामले सामने आते रहे हैं। किसी भी अस्पताल में मरीजों की परेशानियों के दरम्यान अक्सर कुछ ऐसे चेहरे घूमते मिल जाते हैं, जो ऐसे तीमारदारों को खोजते रहते हैं जिनके मरीज को खून की जरूरत होती है। यह लोग कोई समाजसेवी नहीं बल्कि खून बेचने वाले ब्लड बैंकों के दलाल होते हैं

अक्सर सड़क दुर्घटना या किसी ऑपरेशन के समय मरीज को खून की जरूरत पड़ जाती है और देने वाला उपलब्ध नहीं होता है तो आवश्यकता की इस स्थिति से लाल खून का काला धंधा शुरू हो जाता है और संगठित होने पर यह कारोबार की शक्ल अख्तियार कर लेता है। खून के गोरखधंधे में इतना मुनाफा है कि सप्लाई कम होने के बावजूद भी निजी अस्पतालों में लाइसेंस लेने के लिए होड़ मची रहती है। अस्पताल न होने के बावजूद भी लोग खून के कारोबार में उतरना चाहते हैं।

उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश में कुल 216 ब्लड बैंक हैं, जिनमें से 67 सरकारी और बाकी प्राइवेट हैं। सिर्फ लखनऊ में 27 ब्लड बैंक हैं जिनमें से पांच सरकारी हैं, जबकि 21 प्राइवेट और एक सेना का है। यूपी में ब्लड बैंक के जरिये कुल नौ लाख यूनिट ब्लड एकत्रित होता है जो जरूरत का सिर्फ 70 फीसदी है। बाकी 30 फीसदी खून की सप्लाई ऐसे ही गोरखधंधे से होती है। दरअसल, लखनऊ ही नहीं देश के कई हिस्सों में इससे पहले भी खून बेचने के मामले सामने आते रहे हैं। किसी भी अस्पताल में मरीजों की परेशानियों के दरम्यान अक्सर कुछ ऐसे चेहरे घूमते मिल जाते हैं जो ऐसे तीमारदारों को खोजते रहते हैं, जिनके मरीज को खून की जरूरत होती है। यह लोग कोई समाजसेवी नहीं बल्कि खून बेचने वाले ब्लड बैंकों के दलाल होते हैं। अक्सर सड़क दुर्घटना या किसी ऑपरेशन के समय मरीज को खून की जरूरत पड़ जाती है और देने वाला उपलब्ध नहीं होता है तो आवश्यकता की इस स्थिति से लाल खून का काला धंधा शुरू हो जाता है और संगठित होने पर यह कारोबार की शक्ल अख्तियार कर लेता है। खून के गोरखधंधे में इतना मुनाफा है कि सप्लाई कम होने के बावजूद भी निजी अस्पतालों में लाइसेंस लेने के लिए होड़ मची रहती है। अस्पताल न होने के बावजूद भी लोग खून के कारोबार में उतरना चाहते हैं। खून जो जीवन का आधार है, जिसका दान करके व्यक्ति मानवता को भी ऋणी कर देता है, ऐसी अपरिहार्य और पवित्र चीज के संग्रह स्थलों द्वारा की जा रही कारगुजारियों ने तो होश उड़ा दिये हैं। हाल ही में लखनऊ के प्राइवेट ब्लड बैंकों के काले कारनामे का खुलासा हुआ तो रोंगटे खड़े हो गये। पता चला कि यहां वर्षों से खून का काला धंधा चल रहा था।

7 जुलाई 2015 को लखनऊ चौक के कंचन मार्केट स्थित कोहली ब्लड बैंक एंड कंपोनेट्स प्राइवेट लिमिटेड में नाबालिगों को डरा-धमका कर उनके शरीर से खून निकाल कर ऊंचे दामों में बेचने वाले पैथलॉजी के गिरोह को गिरफ्तार किया गया। 200-300 रुपये की कीमत में यह गिरोह गरीब परिवार के नाबालिक बच्चों का खून निकाल कर उन्हें पंगु बनाने का काम वर्षों से अंजाम दे रहे थे। हालांकि उसके बाद तो कई ब्लड बैंको के खिलाफ कार्रवाई भी हुई लेकिन हैरानी तब और बढ़ गई जब पता चला कि एक तरफ तो प्राइवेट ब्लड बैंक वाले खून की कमी का फायदा उठाकर करोड़ों रूपये की कमाई कर रहे हैं, वहीं सरकारी अस्पतालों में खून जरूरतमंद मरीजों के मिलने की बजाये बर्बाद करके फेंका जा रहा है।

ये भी पढ़ें,

चिकनकारी के उजाले में बदरंग चिकन कसीदाकारों की दुनिया

एक आरटीआई से मिली जानकारी से यह खुलासा हुआ कि लखनऊ के डॉ. राम मनोहर लोहिया अस्पताल में अगस्त 2014 से जनवरी 2015 तक 802 यूनिट खून एक्सपायर होने के कारण फेंक दिया गया, यह स्थिति तब है जब कि राजधानी के अन्य अस्पतालों की तुलना में लोहिया अस्पताल के ब्लड बैंक में खून की सबसे ज्यादा कमी बनी रहती है। अक्सर मरीज वहां से खून की कमी के कारण लौटाए जाते हैं। जरूरतमंदों को खून नहीं मिलता और ब्लड बैंक के अधिकारी कर्मचारी खून खराब होने की बात कहते हैं। यह बात कुछ हजम नहीं होती। खून फेंकने के पीछे की थ्योरी समझ से परे है।

यहां यह बताना भी जरूरी है कि कुछ समय पूर्व युवा मरीज शिवम की मौत के आरोपी लोहिया अस्पताल के सर्जन डॉ. ए.के. श्रीवास्तव भी लोहिया अस्पताल के ब्लड बैंक से ही खून मंगा कर निजी क्लीनिक में आपरेशन को अंजाम देते थे। सीएमओ की जांच में यह खुलासा हुआ था, कि शिवम के आपरेशन के समय अस्पताल के ब्लड बैंक से ही खून मंगाया गया था, जिसकी मोटी कीमत खून का धंधा करने वाले को चुकाई गई थी। बात यहीं नहीं खत्म होती है। एक तरफ तो अगस्त 2014 से जनवरी 2015 के बीच 802 यूनिट खून एक्सपायरी होने के कारण फेंक दिया जाता है, वहीं दूसरी ओर इसी दौरान वाहवाही लूटने के लिये 37 कैम्प लगाकर 1559 यूनिट रक्त एकत्रित भी किया जाता है। अगर यह खून किसी भी ट्रामा सेंटर को उपलब्ध करा दिया जाता तो कई मरीजों को इससे न केवल फायदा होता,बल्कि उनकी जान भी बच सकती थी,लेकिन जब खून का खेल चल रहा हो तो ऐसा होना असंभव था।

लाल खून से काला धंधा करने वाले सिंडीकेट बनाकर अपना काम करते हैं, जिसके कारण इनके गिरेबान में हाथ डालना आसान नहीं होता है। लखनऊ ही नहीं पूरे प्रदेश में बिना जांच परख के 300 से 500 रूपये देकर नशेडिय़ों, बच्चों, बूढ़ों, भिखारियों आदि का खून एक ही दिन में कई बार निकालकर मोटे दामों पर जरूरत मंदों को बेच दिया जाता है।

लखनऊ में ब्लड सप्लाई के धंधे में लगे एक दलाल की मानें, तो लगभग दर्जन भर प्राइवेट ब्लड बैंक इस धंधे में शामिल हैं। जहां बिना डोनर के ब्लड आसानी से मिलता है। अगर निगेटिव ब्लड की शॉर्टेज है, तो एक यूनिट निगेटिव ग्रुप के ब्लड का 05-25 हजार रुपए तक आसानी से वसूले जाते हैं। सूत्रों के मुताबिक प्राइवेट ब्लड बैंक मरीजों के घरवालों की मजबूरी का अधिक से अधिक फायदा उठाने की कोशिश करते हैं। किसी की जान जाए या बचे इससे उन्हें फर्क नहीं पड़ता। मरीजों के दर्द और तीमारदारों के आंसुओं के साथ खून के काले कारोबारियों का मुनाफा बढ़ता जाता है। यही नहीं अस्पताल से ये भी बता दिया जाता है, कि ब्लड कौन सी ब्लड बैंक से लाना है। क्योंकि इसमें अस्पतालों का भी कमीशन छिपा होता है। मरीज के सामने इलाज कराने की मजबूरी होती है, जिसके कारण वह मना नहीं कर पाता और उसी पर्टिकुलर ब्लड बैंक से ही ब्लड लाता है।

अस्पतालों के पास लगने वाली चाय, पान, बीड़ी और पूरी-सब्जी की दुकानों से लेकर,अस्पताल का वार्ड ब्याय,सुरक्षा गार्ड आदि सबको पता है कि मरीज के लिये कैसे खून की व्यवस्था करनी है। मरीज के लिये खून की व्यवस्था करने से नेकी तो मिलती ही है इसके एवज में मोटी कमाई भी हो जाती है। ब्लड की कीमत का निर्धारण मांग और आपूर्ति के फार्मूले पर होता है। खून बेचना और ब्लड डोनर को पैसे देना भारत में गैर-कानूनी है लेकिन देश भर में खून का एक बहुत बड़ा बाजार है।

खून का काला कारोबार करने वाले प्रोफेशनल डोनरों का राज आज से नहीं बल्कि बहुत पहले से चला आ रहा है। इनका जाल मेडिकल कॉलेज से लेकर डा.राममनोहर लोहिया अस्पताल, पीजीआई के अलावा कई निजी पैथालॉजी तक फैला हुआ है। खून का गोरखधंधा कराने और करने वाले सौदागरों की जड़े काफी गहरी है। मेडिकल कॉलेज में कुछ डॉक्टरों व कर्मचारियों की मदद से खून का कारोबार करने वाले कई ब्लड डोनर अपनी दुकान खोलकर अब खुद अपना गिरोह चला रहे हैं। उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश में कुल 216 ब्लड बैंक हैं, जिनमें से 67 सरकारी और बाकी प्राइवेट हैं। सिर्फ लखनऊ में 27 ब्लड बैंक हैं जिनमें से पांच सरकारी हैं, जबकि 21 प्राइवेट और एक सेना का है। यूपी में ब्लड बैंक के जरिये कुल नौ लाख यूनिट ब्लड इकट्ठा होता है जो जरूरत का सिर्फ 70 फीसदी है। बाकी 30 फीसदी खून की सप्लाई ऐसे ही गोरखधंधे से होती है। दरअसल सरकार ने बिना अस्पताल के ब्लड बैंक खोलने पर रोक लगा दी थी। लेकिन पहले जो ब्लड बैंक बिना अस्पताल के खोले गए थे अपने कालेधन की इनकम बंद होते देख वह कोर्ट चले गए। जहां से उन्हें राहत मिल गई। अब नए ब्लड सिर्फ हॉस्पिटल में ही खुल सकते हैं, ताकि वह मरीजों के लिए ही काम करें व्यापार के लिए नहीं।

अब आते हैं रक्त से जुड़े नये गोरखधंधे पर। जी हां, पिछले दिनों लखनऊ में रक्त में मिलावट का एक गिरोह पकड़ में आया है। पकड़े गये लोग पेशेवर रक्तदाताओं से एक यूनिट खून निकालकर उसमें सामान्य सलाइन (ग्लूकोज) मिला कर तीन यूनिट रक्त बना देते थे। सलाइन शरीर में पानी की कमी होने पर मरीज को चढ़ाया जाता है, जिसमें डिस्टल वॉटर और सोडियम क्लोराइड मिला होता है। सलाइन मिश्रित इस रक्त को ये मिलावटखोर 500 से लेकर 1500 रूपये प्रति यूनिट के हिसाब से बेचकर अपनी जेबें भर रहे थे।

ये भी पढ़ें,

कभी 1700 पर नौकरी करने वाली लखनऊ की अंजली आज हर महीने कमाती हैं 10 लाख

एक यूनिट खून में 350 एमएल की मात्रा होती है। खून में चार कम्पोनेंट होते हैं- प्लाज्मा, प्लेटलेटस, रेड ब्लड सेल्स एवं व्हाइट ब्लड सेल्स। प्लाज्मा खून में थक्का जमाने का काम करता है, प्लेटलेट्स से रक्तस्राव को नियंत्रित किया जाता है, रेड ब्लड सेल्स हीमोग्लोबिन को नियंत्रित करता है और व्हाइट ब्लड सेल्स शरीर के सुरक्षा तंत्र को नियंत्रित करती हैं। किसी भी रोगी के शरीर में खून चढ़ाने से पहले सात तरह की जांच जरूरी होती है। इसमें ब्लड प्रेशर, हीमोग्लोबिन, हेपेटाइटिस बी एवं सी, मलेरिया, वीडीआरएल, एचआईवी एवं ब्लड ग्रुप की जांच शामिल है।

ज्ञातव्य है, कि किसी भी व्यक्ति के शरीर में जिस ग्रुप का रक्त होता है, उसे उसी ग्रुप या उसके दाता ग्रुप का रक्त चढ़ाया जाता है। यदि गल्ती में किसी व्यक्ति के शरीर में दूसरे ग्रुप का रक्त अथवा जानवर का खून चढ़ा दिया जाए, तो रोगी की तुरन्त मौत हो जाती है। इससे बचने के लिए ही धंधेबाजों ने सलाइन को मिलाने का रास्ता खोजा था। एक यूनिट रक्त में दो यूनिट सलाइन मिलाने के बाद भी यह आसानी से पहचान में नही आता है। केवल विशेषज्ञ डाक्टर ही उसे पहचान सकते हैं। इसी बात का फायदा उठाकर ये धंधेबाज काफी दिनों से यह मिलावट का कारोबार चला रहे थे। शुरूआती जांच में पता चला है कि इस गोरखधंधे में डाक्टर और नर्स भी बड़े पैमाने पर शामिल रहे हैं, क्योंकि बिना उनकी मिलीभगत के न तो खून के सौदागरों को ब्लड बैग मिल सकते थे और न ही वे अपने इस मकडज़ाल को इतने बड़े पैमाने पर फैला सकते थे। फिलहाल शासन ने जांच के आदेश दे दिये हैं, जिसके पूरा होने में समय लगेगा। देखने वाली बात यह होगी कि इन मिलावटखोरों के खिलाफ कहां तक और कितनी कड़ी कार्यवाही होगी।

गौरतलब बात यह है, कि यदि आपके परिवार में कभी भी रक्त की आवश्यकता पड़े, तो अच्छा हो कि आप अपने परीचितों अथवा रिश्तेदारों से रक्तदान का आग्रह करके काम चलाएं। यदि फिर भी काम न चले तो प्राइवेट ब्लड बैंक से रक्त लेने से परहेज करें, क्योंकि ज्यादातर मिलावट के मामले वहीं पर सामने आए हैं। इसलिए यदि अपरिहार्य स्थिति हो तो भी सरकारी ब्लड बैंक का ही रूख करें। नहीं तो आपके हाथ रक्त के नाम पर सिर्फ ग्लूकोज ही लगेगा और नकली रक्त चढ़ाने पर रोगी को और कुछ हो न हो संक्रमण जरूर हो सकता है। ऐसे में रोगी की जान भी जा सकती है।

ये भी पढ़ें,

रक्त से रिश्ता जोड़ बनिये दूसरे की सांसो की डोर