छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले में कुपोषण दूर करने की मुहिम जोरों पर, खाने-पीने की आदतों में आ रहा परिवर्तन
छत्तीसगढ़ का 'सुपोषित बस्तर अभियान' कुपोषित बच्चों और मांओं के लिए है वरदान...
यह लेख छत्तीसगढ़ स्टोरी सीरीज़ का हिस्सा है...
'सुपोषित बस्तर अभियान' की शुरुआत जिले के कलेक्टर की सोच की बदौलत हुई, जिसका मकसद जिले के सभी बच्चों की स्क्रीनिंग करना था ताकि कुपोषित बच्चों की स्थिति का पता लगाया जा सके और साथ ही मांओं को प्रशिक्षण भी देने का प्रावधान किया गया।
स्क्रीनिंग करने के बाद कुछ ऐसे बच्चे भी आते हैं जिनकी हालत काफी गंभीर होती है। ऐसे बच्चों को गोद लिया जाता है और इन गंभीर कुपोषित बच्चों को पोषण पुनर्वास केन्द्र से लाभ दिलाया जाता है।
छत्तीसगढ़ के अति नक्सल प्रभावित बस्तर जिले में ज्यादातर बच्चे कुपोषण की समस्या से ग्रस्त हैं। इस समस्या से निजात पाने के लिए एक साल 2017 में 'सुपोषित बस्तर अभियान' नाम से एक योजना की शुरुआत हुई थी। इस योजना को पूरे जिले में सफलतापूर्वक लागू किया गया, जिसके सकारात्मक परिणाम दिखने शुरू हो गए हैं। इस महात्वाकांक्षी अभियान के तहत जिले के दस हजार बच्चों को कुपोषण मुक्त करने का लक्ष्य रखा गया।
'सुपोषित बस्तर अभियान' की शुरुआत जिले के कलेक्टर की सोच की बदौलत हुई थी। इसका मकसद जिले के सभी बच्चों की स्क्रीनिंग करना था ताकि कुपोषित बच्चों की स्थिति का पता लगाया जा सके। इसके साथ ही मांओं को प्रशिक्षण भी देने का प्रावधान किया गया। इस अभियान से जुड़कर फीडिंग डिमॉन्स्ट्रेटर के पद पर काम कर रहीं सीएचसी दरभा की तराना जैकब बताती हैं, 'बस्तर में गरीबी से ज्यादा लोगों में अज्ञानता है। उन्हें नहीं पता होता कि बच्चों के स्वास्थ्य के लिए क्या फायदेमंद है और क्या नुकसानदेय।' जैकब ने कहा कि यहां गांव-गांव में चिप्स और कुरकुरे की दुकाने मिल जाएंगी। लेकिन यह बच्चों के स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं होता। इसकी जगह पर वे मां को अंडा खरीदकर खिलाने की बात करती हैं।
जिला महिला एवं बाल विकास अधिकारी के मुताबिक बस्तर जिले के पांच वर्ष से कम उम्र के लगभग 80 हजार बच्चों का वजन किया गया है। इनमें से कुपोषित पाए गए 10 हजार बच्चों को इस अभियान के पहले चरण में सुपोषित करने का लक्ष्य रखा गया है। महिला एवं बाल विकास विभाग के प्रयासों से पिछले छह माह में तीन हजार से अधिक कुपोषित बच्चों को सुपोषित किया गया है। जैकब के मुताबिक हर हफ्ते बुधवार को मीटिंग होती है और सभी बच्चों की स्क्रीनिंग की जाती है। उन्होंने कहा, 'यहां की आबादी मुख्य रूप से वन से प्राप्त होने वाली उपज पर निर्भर है। यहां केला और पपीता का उत्पादन अच्छी मात्रा में होता है, लेकिन लोग उसे बेच देते हैं। हम उन्हें इसे बच्चों को खिलाने की भी सलाह देते हैं।'
स्क्रीनिंग करने के बाद कुछ ऐसे बच्चे भी आते हैं जिनकी हालत काफी गंभीर होती है। ऐसे बच्चों को गोद लिया जाता है और इन गंभीर कुपोषित बच्चों को पोषण पुनर्वास केन्द्र से लाभ दिलाया जाता है। सीएचसी दरभा के डॉ. पीएल मंडावी बताते हैं कि जब से ये प्रोग्राम शुरू हुआ है तब से अब तक काफी परिवर्तन आ चुका है। उन्होंने कहा, 'हमारे यहां दस बेड का पोषण पुनर्वास केंद्र है, जहां बच्चों को 15 दिन के लिए रखा जाता है और उनकी पूरी देखभाल की जाती है। उनके साथ जो माताएं आती हैं उन्हें भी खाने और रहने की व्यवस्था की जाती है।' डॉ. मंडावी ने यह भी बताया कि गांव की जो महिलाएं मजदूरी करती हैं उन्हें 150 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से भत्ता भी दिया जाता है ताकि वे अपना काम छोड़कर अपने बच्चे की देखभाल कर सकें।
बड़े कार्य जनसहयोग से ही पूर्ण होते हैं। कुपोषण एक अत्यंत ही गंभीर समस्या है। इस समस्या पर नियंत्रण जनसहभागिता से ही प्राप्त की जा सकती है। सुपोषित बच्चे में रोगों के प्रतिरोधक क्षमता अधिक होती है और उनमें सीखने की क्षमता भी ज्यादा होती है। ऐसे बच्चे सफलता के नए सोपानों को छू पाते हैं।
स्वस्थ और सुपोषित बच्चे बस्तर के विकास की आधारशिला हैं। बच्चों को कुपोषण से मुक्त करने का यह कार्यक्रम सफलता की ओर अग्रसर है। इस तरह के अभियानों की ज़रूरत पूरे देश के गांवों को है और उम्मीद है कि छत्तीसगढ़ से सीखते हुए देश के बाकी गांव भी इसे अपने यहां शुरू करें।
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