मीडिया कवरेज में पहले सियासत, साहित्य बाद में!
आज मीडिया में साहित्य का स्थान न के बराबार...
समाज से शब्दों के संवाद का स्वाद बदलता गया, सरोकार सिमटते गए, साहित्य कहीं दूर छूटता चला गया पत्रकारिता के पड़ोस से। आज हालात कितने दुखद हो चले हैं कि एक सतही नेता को तो मीडिया में टॉप कवरेज मिल सकती है लेकिन किसी साहित्य मनीषी के चंद शब्दों के लिए समय और स्पेस, दोनों का अभाव हो जाता है।
आज दिन देखिए कि कहीं कोई स्वस्थ साहित्यिक कार्यक्रम हो रहा हो, जिसमें देश भर के शीर्ष साहित्यकार जुटे हैं, उसकी कवरेज के लिए समय और स्पेस दोनों का अभाव हो जाता है लेकिन किसी टुच्चे नेता की दो कौड़ी की मीटिंग यदा-कदा कवर पेज तक पर आसन जमा लेती है।
आधुनिक मीडिया और साहित्य के बीच अनवरत चौड़ा होता जा रहा फासला अक्सर इस प्रश्न के साथ विचलित करता है कि क्या अब शब्दों के गांव में सामाजिक सरोकार नाम की कोई चीज बाकी नहीं रहना चाहती है? हमारे देश में पत्रकारिता के पुरखे सामाजिक जरूरतों को ध्यान में रखते हुए जो सिद्धांत दे गए, क्या अब वे पूरी तरह अप्रासंगिक हो गए हैं? वास्तविकता तो ये है कि उनका दिखाया हुआ रास्ता आज भी सबसे सही और जरूरी है। समाज और साहित्य के लिए आज भी पत्रकारिता के वही मूल्य-मानक जरूरी हैं, जो वे तय कर गए थे। समय बदला है, सही है, नई तकनीक का गंभीर हस्तक्षेप हुआ है, ये भी सही है लेकिन क्या सामाजिक सरोकारों के मायने भी बदल गए हैं?
यह सही है कि कलम और कागज की जगह की-बोर्ड और कम्प्यूटर स्क्रीन ने ले ली है और इसका असर रिपोर्टिंग पर भी पड़ा है तो ऐसे में क्यों कई एक स्वयंभू सम्पादक सरलीकरण के नाम पर हिन्दी के सौन्दर्य के साथ खुला खिलवाड़ और साहित्य के प्रति अक्षम्य तटस्थता बरत रहे हैं? प्रश्न कितना गंभीर है, कवि उदय प्रकाश के मीडिया-लक्षित शब्दों से पता चलता है - 'अख़बार, पाठ्य-पुस्तकें, सरकार, यहां तक कि इतिहास में, मसखरों का उल्लेख गम्भीरता से होता है, मसखरे जिसका विरोध करते हैं, उसके विरोध को फिर असंभव बना देते हैं, इसीलिए मसखरे हमेशा, अनिवार्य होते हैं......मसखरे, ’अन’ पर समाप्त होने वाली, कई क्रियाओं के कर्ता होते हैं, उदाहरण के लिए शासन, उदघाटन, लेखन, विमोचन, उत्पादन, प्रजनन चिन्तन आदि, मसखरे ही जानते हैं अपनी कला की बारीकियां और कोई नहीं जानता।'
कई एक समाचारपत्रों के भाषायी भदेसपन का आदर्श बन चुकी देवनागरी बनाम रोमन जैसी हमारी गंभीर चिन्ताएं भी हैं। 'हिंग्लिश' पर जितने भी तर्क दिये जाएं, वह हिंदी पट्टी के मन को कदापि स्वीकार्य न थी, न है, न हो सकती है। रोजगार से भाषा का कद नापने की नामुराद कोशिशें भला कैसे परवान चढ़ सकती हैं। उपेक्षा का यही सऊर हिंदी साहित्य के साथ भी संदिग्ध होता जा रहा है।
इसकी वजहों पर प्रतिष्ठित पत्रकार रामशरण जोशी बड़ी बारीकी से प्रकाश डालते हैं। वह बताते हैं कि भारत में एक ऐसा शक्तिशाली वर्ग अस्तित्व में आ चुका है, जिसके पास अपने परिवार के प्रत्येक सदस्य के भविष्य को सुरक्षित रखने की क्षमता है। इस वर्ग की अपनी आकांक्षाएं हैं; अपनी विशिष्ट जीवनशैली है; अपनी आवश्यकताएं हैं; अपनी क्षमताएं हैं; इसका अपना एक बाजार और संसार है; और संचार व सत्ता के माध्यमों के अनुकूलन का अपना एजेंडा है। आज इस वर्ग की उपभोग और क्रय-विक्रय गत्यात्मकता की उपेक्षा करना किसी भी प्रतिष्ठानी मीडिया की शाखा के लिए आसानी से संभव नहीं है।
मिशनवादी पत्रकारिता और मूल्य आधारिता व्यावसायिक पत्रकारिता के मध्य मुख्य अंतर यह होता है कि पहली निःस्वार्थता, त्याग और वैचारिक प्रतिबद्धता पर आधारित होती है, जबकि दूसरी वांछित भौतिक अपेक्षाओं, लाभ-हानि और व्यावसायिक नैतिक मूल्यों तथा उत्तरदायित्वों से नियंत्रित व निर्देशित होती है। उन्नीस सौ साठ-सत्तर के दशक में पत्रकारिता की भाषा छायावादी प्रभावों से लगभग मुक्त हो चुकी थी। साफ-सुथरा गद्य पत्रकारिता में अपना स्थायी स्थान बना चुका था।
हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में अक्षय कुमार जैन, बांके बिहारी भटनागर, राहुल बारपूते जैसे पूर्णकालिक पेशेवर संपादक और अन्य श्रेणी के पत्रकार विधिवत नियुक्तियों पर आने लगे थे लेकिन यह भी सही है कि इस काल में हिंदी पत्रकारिता को ऊर्जा साहित्यकार संपादकों से ही प्राप्त हुई। सत्यकाल विद्यालंकार, हरिभाऊ उपाध्याय, अज्ञेय, धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, मुकुट बिहारी वर्मा, रामानंद दोषी, रतनलाल जोशी, कमलेश्वर, मोहन राकेश, मनोहर श्याम जोशी, शिवसिंह 'सरोज', गोपाल प्रसाद व्यास जैसे साहित्यकर्मियों ने हिंदी पत्रकारिता को साहित्य से विलग नहीं होने दिया।
अज्ञेय और रघुवीर सहाय ने दिनमान के माध्यम से हिंदी पत्रकारिता को नया मुहावरा दिया। इसे चिंतनपरक और विश्लेषणपरक बनाया। इसके साथ ही अंतर अनुशासन दृष्टि के आयाम से पत्रकारिता को समृद्ध किया लेकिन राजेंद्र माथुर, प्रभाष जोशी, गणेश मंत्री जैसे संपादक व्यावसायिक पत्रकारिता की भाषा को उसके पैरों पर खड़ा करते हैं। उसे स्वतंत्र पहचान देते हैं। वे पत्रकारिता के माध्यम से साहित्य तक पहुंचाते हैं। वे पत्रकारिता पर साहित्य की भाषा के आधिपत्य को अस्वीकारते हैं, लेकिन सहचर की भूमिका में उसका प्रयोग करते हैं। सारांश में ये लोग आंचलिकता के पुट के साथ पत्रकारिता को टकसाली हिंदी से लैस करते हैं। हिंदी समाज का पुराना व नया मध्यवर्ग उनकी हिंदी का स्वागत करता है। सातवें दशक की सामाप्ति के साथ हिंदी पत्रकारिता नया मोड़ लेती है।
आज दिन देखिए कि कहीं कोई स्वस्थ साहित्यिक कार्यक्रम हो रहा हो, जिसमें देश भर के शीर्ष साहित्यकार जुटे हैं, उसकी कवरेज के लिए समय और स्पेस दोनो का अभाव हो जाता है लेकिन किसी टुच्चे नेता की दो कौड़ी की मीटिंग यदा-कदा कवर पेज तक पर आसन जमा लेती है। वही कहावत चरितार्थ होने लगती है कि 'नगदी दो, खबर छपवाओ'। मीडिया के इस व्यापारीकृत चरित्र से भारतीय साहित्य खुद को ठगा सा महसूस करने लगा है। वैश्वीकरण की बहुआयामी प्रक्रिया से अनुशासित मीडिया ने हिंदी समेत सभी भाषा समाजों के साहित्य की यही दशा कर रखी है। शब्दों की दुनिया जैसे हाशिये पर धर दी गई है।
वजह है, नव मध्य वर्ग की उपभोक्तावादी प्रवृत्ति को हवा देते हुए साहित्यिक सरोकारों की जगह - शॉपिंग मॉल, आईटी सेक्टर, मैनेजमेंट इंस्टीच्यूट, सौंदर्य प्रतियोगिता, फैशन परैड, पांच सितारा होटल और रैस्तरां, फास्ट फूड स्टॉल, नाइट क्लब, बैनक्विट हॉल, ब्यूटी पॉरलर, मसाज क्लब, मल्टीप्लैक्स, गगनचुम्बी इमारतें, लग्जरी कार, मोटर बाइक, अंग्रेजी माध्यम स्कूल, रैपिड इंग्लिश टीचिंग कोर्स, किटी पार्टीज, दूल्हा-दुलहन श्रृंगारशाला, मौज-मस्ती क्लब, म्यूजिक-डॉस सेंटर, एफएम रेडियो, मनोरंजनी चैनल व उत्तेजक कार्यक्रम, भव्य सेट व बाजारू धारावाहिक, लॉफ्टर आयटम व द्विअर्थी भाषा, रियलिटी शो, इकोनोमी विमान यात्राओं जैसी चीजों ने ले ली है।
इन चीजों के प्रयोग व उपभोग अभिरुचि को नए सिरे से गढ़ने लगे हैं। ऐसी उड़नबाजी में भला शब्द किसे सुहाते हैं। जंगल होते इस दौर में फिर भी इंटरनेट, चैटिंग, सर्फिंग, 'ब्लोगिंग' में यदा-कदा शब्द भी अपनी जैसे-तैसे हैसियत बचाए हुए हैं। तिस पर तुर्रा ये अलापा जाता है कि ग्राहकों को जैसा चाहिए, वैसा ही तो अखबार और चैनल प्रसारित करते हैं। पूछिए तो कि ऐसा चाहने वाले लोग कौन हैं, तो इस पर तिलस्मी जवाब देकर मीडिया चिंतक औने-पौने हो लेते हैं।
मीडिया और साहित्य पर बात करते समय लगता है कि सन 47 के बाद की आजादी भी आज हमारे लिए एक खबर बन कर रह गयी है। उसके साहित्यिक सरोकारों को मीडिया ने ठिकाने-सा लगा दिया है, लगा रहा है, पता नहीं कब तक और कैसे-कैसे, कितनी तरह से रचनाकारों का मन रौंदा जाता रहेगा। आज हम 'इस' आजादी को कैसे परिभाषित करें, जिसके लिए बहुसंख्यक मनुष्यता परायी हो गयी है, फिरंगियों जैसा यथार्थ साहित्य के लिए फिल्मी और सूचना के लिए बाजारू हो गया है। इसकी प्रकृति तात्कालिक और स्पष्ट समझ में आने वाली होती तो जीवन के प्रति सहज बोधपरक और अचेतन दृष्टि रखने वाले लेखकों का आधार मजबूत होता। कहते हैं न कि ‘सर्व भूत हिते रतः’।
साहित्य, सो हितः, सर्वहितकारी, सबके लिए, जिसमें अशेष मनुष्यता के लिए सुख-सदभावना का स्वर हो। समस्त वर्गों, जातियों, धर्मों, समुदायों, समूहों, संप्रदायों, देशों की सीमाओं से परे भी, उनके संग-साथ भी, उन सबकी भावनाओं में, उन समस्त के मन में अंतरनिहित, सर्वे सुखिनः भवंतु, सर्वे संतु निरामया। साहित्यकार त्रिकालदर्शी होता है। उसके पास विश्वदृष्टि होती है। संपूर्ण का कल्याण उसका अभीष्ठ है। वह न राजपाट, न स्वर्ग, न मोक्ष को परिभाषित करने में व्यस्त होता है। वह जो रचता है, प्राणिमात्र के दुःखों-व्याधियों के निदान की वांछा-आकांक्षा से। सभी सुखी हों, सभी निर्भीक। आधुनिक समय में भी वह मीडिया और साहित्य के अंतर्संबद्ध होने के सपने देखता है। वह चाहता है कि मीडिया शब्द और समाज के बीच निर्भीक-निष्पक्ष, विश्वसनीय संवादसेतु बने।
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