विश्व एड्स दिवस विशेष: खून में दौड़ता मौत का वायरस
देश एड्स माफिया के चंगुल में है। एड्स के नाम पर पैसे की बरसात हो रही है। विभिन्न इंटरनेशनल एजेंसियां एड्स के नाम पर अपनी सोच भी हम पर थोप रही हैं। इन्हीं सब पर पढ़ें, योरस्टोरी की ये ताज़ा रिपोर्ट...
आंकड़ों की शहादत मानें तो स्थिति नियंत्रण में है किंतु सवाल यह है कि प्रसार कैसे रुके ? एड्स से जुड़े संगठनों की माने तो पिछले दशक में हर साल 22 लाख लोग एड्स की चपेट में आकर दम तोड़ रहे थे, किंतु अब यह संख्या घटकर 18 लाख रह गई है।
भारत में विभिन्न रोगों से होने वाली मृत्य के दस सबसे प्रमुख कारणों में एचआईवी/एड्स नहीं है। लेकिन, केंद्र सरकार के स्वास्थ्य बजट का सबसे बड़ा हिस्सा एचआईवी/एड्स में चला जाता है।
आवश्यकता है कि सेमिनारों के बोझिल तकरीरों के शोर से बाहर निकल संक्रमितजनों की आहों को सुनने की जो घृणा और विषाद के कोलाहल में गुम हो जाती है, जरुरत है तो उन सम्बल कन्धों की जो मानवता और प्रेम का बल लेकर प्यार की तलाश में भटक रहे इन वंचित हाथों को थाम सकें। ताकि वह भी हमारे साथ कंधा से कंधा मिला कर जिन्दगी के साथ कदमताल कर सकें। तभी अस्पताल के बेड पर टूटती हुई सांसों में जीवन का सरगम सुनाई देगा। लांछन और आरोपों के तीखे दंश की जगह अपनेपन और ममता के स्वर गूंजेंगे। संक्रमण की वेदना के हलाहल को प्यार का अमृत गले से लगाएगा। जिन्दगी तब हत्या और आत्महत्या के बीच की चीख की जगह सार्थक और सामथ्र्य जीवन के रूप में सामने आएगी, मुझे विश्वास है कि वह सुबह कभी तो आएगी।
1981 में चला प्रथम वायरस आज भारत में अल्पसंख्यक नहीं रहा। दिन दूनी रात चौगुनी इसने अपनी संख्या को विस्तार दिया। अब यह सर्वविदित है कि एचआईवी/एड्स महामारी को सिर्फ चिकित्सा विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में नहीं देखा जा सकता। बल्कि इसके लिए ऐसी सोच की आवश्यकता है जो सम्पूर्ण हो। जिसमें सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और मानवाधिकारों के परिप्रेक्ष्य में विचार किया गया हो। एचआईवी से संक्रमित होने के कारण बच्चों को स्कूल से निकाल दिया जाता है, यौन कर्मियों और समलैंगिक पुरुषों के बीच हस्तक्षेप करने वाले गैर सरकारी संगठनों को बन्द कर दिया जाता है। जीवन की संवैधानिक गारन्टी स्वास्थ्य समानता और मानवता का समर्थन करने वाली सरकारी नीतियों के बावजूद एचआईवी/एड्स एक स्वास्थ्य सम्बन्धी खतरा है जो लोगों के स्वास्थ्य को ही प्रभावित नहीं करता बल्कि इसका प्रभाव आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और कानूनी भी है। जब किसी व्यक्ति को यह कहकर नौकरी से निकाल दिया जाता है कि वह संक्रमित है तो इसके प्रतिकार के लिये भारतीय संविधान में कोई कानून नहीं है। भारत सरकार ने एड्स नियंत्रण नीति तो बना दी किन्तु कानून का अभाव इस संक्रमण के विरुद्ध संघर्ष में स्पीड ब्रेकर की भांति है।
दरअसल जो सम्प्रदाय या वर्ग इस संक्रमण के प्रमुख संवाहक है (यौन कर्मी, सुई से ड्रग्स लेने वाले) वे विभिन्न कानूनों के अन्तर्गत आपराधिक मामलों में फंस जाते हैं। उनका आपराधिक होना कई प्रकार स्वास्थ्य सुरक्षा सेवाओं और जानकारी तक पहुंचने में बाधा बनता है। जिससे वे एचआईवी की चपेट में आसानी से आ जाते हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि उन्हें जानकारी देना अपराध है, बल्कि एचआईवी से सम्बन्धित व्यापक उपचार के साथ रोग निदान, पौष्टिक आहार को संक्रमित व्यक्ति तक पहुंचाना उस अन्र्तराष्ट्रीय स्वास्थ्य कानूनों/नियमों का पालन है जिनमें भारत भी एक हस्ताक्षरी देश है। पर इस भयावह संक्रमण को अन्य आवृत्तियों से भी देखने की आवश्यकता है।
आंकड़ों की शहादत मानें तो स्थिति नियंत्रण में है किंतु सवाल यह है कि प्रसार कैसे रुके ? एड्स से जुड़े संगठनों की माने तो पिछले दशक में हर साल 22 लाख लोग एड्स की चपेट में आकर दम तोड़ रहे थे, किंतु अब यह संख्या घटकर 18 लाख रह गई है। मसलन 1997 की तुलना में एड्स के नये मरीजों की संख्या में 21 फीसदी की कमी आई है। भारत में इस समय लगभग 9,26,197 महिलाएं और 1,469,245 पुरुष एचआइवी पॉजिटिव से संक्रमित हैं। कहा जा रहा है कि यदि इस गति से एड्स नियंत्रण पर काम चलता रहा तो दुनिया जल्दी ही एड्स मुक्त हो जाएगी। यह एक अच्छी बात है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ऐसे आंकड़े देने लगा है जो एड्स के रोगियों की तादाद कम दर्शाते हैं। दुनिया में आर्थिक मंदी के हालात दो-चार साल ऐसे ही बने रहे तो तय है एड्स लगभग खत्म ही हो जाएगा। क्या वाकई में ऐसा ही है ? दरअसल हम जिस पूंजीवादी युग में श्वास ले रहे हैं वहां मौत को भी उत्सव की भांति मनाया जाता है। प्रत्येक वस्तु का मूल्यांकन बाजार निर्धारित करता है। वैसे ही कहीं एड्स की भयावहता को भी बाजार तो निर्धारित नहीं कर रहा है।
दरअसल दुनिया में आई आर्थिक मंदी ने भी एड्स की भयावहता को कम करने का सकारात्मक काम किया है। अब तक एड्स पर प्रतिवर्ष 22 सौ करोड़ डॉलर खर्च किए जा रहे थे, लेकिन अब बमुश्किल 16०० करोड़ डॉलर ही मिल पा रहे हैं। इस कारण स्वयंसेवी संगठनों को जागरूकता के लिए धन राशि मिलना कम हुई तो एड्स रोगियों की भी संख्या घटना शुरू हो गई। यदि इन संगठनों को धन देना बंद कर दिया जाए तो क्या एड्स पूरी तरह नियंत्रित हो जाएगा ? पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूएनएड्स की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक हमारे देश में पिछले एक दशक में एचआईवी संक्रमण के नए मामलों में 56 प्रतिशत की कमी आई है।
जिस तरह से एड्स के आंकड़ों के मामले में पिछले कुछ वर्षों में कुछ गैरसरकारी संगठनों ने विदेशी फंडिंग हासिल करने के लिए एड्स संक्रमित लोगों के आंकड़े बढ़ा-चढ़ाकर पेश किए, उसे देखते हुए किसी भी आंकड़े पर सहज विश्वास करना मुश्किल लगता है। लेकिन चूंकि यह आंकड़ा संयुक्त राष्ट्र की संस्था द्बारा जारी किया गया है, इसलिए इस पर विश्वास किया जा सकता है। ज्यादातर लोग एड्स के नाम पर अपनी जेबे भर रहे हैं। नेता और अधिकारियों को एड्स के नाम पर विदेशो में धूमने से फुर्सत नहीं है। वहीं अधिकांशत: गैर सरकारी संगठन चांदी काट रहे हैं। सरकार को तो यह तक पता नहीं कि एड्स नियंत्रण के काम पर कौन सा संगठन कितना पैसा कहा खर्च कर रहा है। कुछ वर्ष पूर्व भाजपा नेता मुरली मनोहर जोशी ने संसद में बयान दिया था, उन्होने कहा 'इन अवर कंट्री पीपल आर नांट लिविंग विद एड्स, दे आर लिविंग आन एड्स’ अर्थात हमारे देश में लोग एड्स के साथ नहीं जी रहे हैं, बल्कि एड्स से अपनी रोजी-रोटी कमा रहें हैं।
वाकई, आज देश एड्स माफिया के चंगुल में है। एड्स के नाम पर पैसे की बरसात हो रही है। विभिन्न इंटरनेशनल एजेंसियां एड्स के नाम पर अपनी सोच भी हम पर थोप रही हैं।
गौरतलब है कि एचआईवी/एड्स के क्षेत्र में मिल रही विदेशी सहायता ने तमाम गैर सरकारी संगठनों को इस ओर आकर्षित किया है। नतीजन जो एनजीओ पहले से समाज सेवा के लिए काम करते थे, वे अब खुद अपनी सेवा के लिए एनजीओ खोल रहे हैं। एड्स प्रोजेक्ट्स की बदंरबाट ने एचआईवी/एड्स का जमकर दुष्प्रचार किया है। एड्स के उपचार के लिए दवाओं और कंडोम के इत्तेमाल पर भी वैज्ञानिक एकमत नहीं हैं। सारे प्रयोग यहां होने से भारत दुनिया की प्रयोगशाला बन रहा है।
देश में एड्स विशेषज्ञों का अभाव है साथ ही डाक्टर और पैरा मेडिकल स्टाफ भी इसको लेकर कई भ्रांतियां पाले हुए है। आज पूरी दुनिया में एचआईवी और एड्स को लेकर जिस तरह का भयव्या’ है और इसकी रोकथाम व उन्मूलन के लिए जिस तरह के जोरदार अभियान चलाये जा रहे हैं। उससे कैंसर, हार्टडिजीज, टीबी और डायबिटीज जैसी खतरनाक बीमारियां लगातार उपेक्षित हो रही हैं और बेलगाम होकर लोगों पर अपना जानलेवा कहर बरपा रहीं हैं। पूरी दुनिया के ऑकड़ों की माने तो हर साल एड्स से मरने वालों की संख्या जहां हजारों में होती है, वहीं दूसरी घातक बीमारियों की चपेट में आकर लाखों लोग अकाल ही मौत के मुंह में समा जाते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार अगर हृदय रोग, कैंसर, मधुमेह और क्षय रोग से बचने के लिए लोगों को जागरूक या इनके उन्मूलन के लिए कारगर उपाय नहीं किये गये तो अगले दस वर्षों में इन बीमारियों से लगभग पौने चार करोड़ लोगों की मौत हो सकती है। इन बीमारियों की तुलना में एड्स से मरने वालों की संख्या काफी कम है।
हमारे देश में 1987 से लेकर अब तक एड्स से मरने वालों की संख्या जहॉ सिर्फ 12 हजार थी वहीं पिछले ही पिछले ही वर्ष में केवल टीबी व कैंसर से 6 लाख से अधिक लोगों की मृत्यु हो गयी। भारत में विभिन्न रोगों से होने वाली मृत्य के दस सबसे प्रमुख कारणों में एचआईवी/एड्स नहीं है। लेकिन, केंद्र सरकार के स्वास्थ्य बजट का सबसे बड़ा हिस्सा एचआईवी/एड्स में चला जाता है। एड्स को लेकर विदेशी सहायता एजेंसियों के उत्साह के कई कारण हो सकते हैं, लेकिन भारत जैसे गरीब देश में इस समय डायरिया, टीबी और मलेरिया जैसी बीमारियों पर नियंत्रण पाने की ज्यादा जरूरत है, जिसे हर साल लाखों लोग मरते हैं।
कुछ वैज्ञानिकों का तो यह भी मानना है कि एचआईवी/एड्स के हौवे की आड़ में कंडोम बनाने वाली कम्पनियां भारी मुनाफा कमाने के लिए ही इन अभियानों को हवा दे रही हैं तभी तो एड्स से बचाव के लिए सुरक्षित यौन संबंधों की सलाह तो खूब दी जाती है, पर संयम रखने या व्यभिचार न करने की बात बिल्कुल नहीं की जाती है यानि कि खूब यौनाचार करो पर कंडोम के साथ। खैर यह तो था एड्स/एचआईवी की जंग में पूंजी का खेल। पर एक पहलू यह भी है कि दुनिया के तमाम अमीर देश मंदी से जूझ रहे हैं और एड्स से लड़ने के लिए धन में काफी कटौती होती दिख रही है। संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि एड्स के लिए तकरीबन 2,2०० करोड़ डॉलर की जरूरत है, लेकिन अब तक 1,6०० करोड़ डॉलर का ही इंतजाम हो पाया है। अगर धन की कमी से इस कार्यक्रम में बाधा आई, तो सफलता की यह कहानी संदिग्ध हो जाएगी।
लेकिन नए आंकड़ों से उत्साहित होकर हो सकता है कि दानदाता अपनी थैलियों का मुंह जरा ज्यादा खोल लें। आखिर कौन चाहेगा कि लगभग नियंत्रण में आती दिख रही ऐसी खतरनाक बीमारी फिर से अनियंत्रित हो जाए। भारत में एचआईवी/एड्स के क्षेत्र में काम कर रही बिल गेट्स की संस्था 'दि इण्डिया एड्स इनीशिएटिव आफ बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउण्डेशन’ के अनुसार अभी भी भारत में, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में सेक्स, कण्डोम, एड्स के बारे में बात करने पर आज भी लोग काफी हिचकिचाहट महसूस करते हैं। यहां तक कि इस सम्बन्ध में टेलीविजन पर अगर कोई विज्ञापन भी प्रसारित होता है तो देखने वाले चैनल बदल देते हैं। तो फिर प्रश्न उठता है कि एड्स निवारण के नाम पर जो करोड़ो का फंड आता हे वो जाता कहां है? क्योंकि जो संक्रमित हैं उन्हें सुनिश्चित दवा और सहायता उपलब्ध नहीं हो पा रही है। वित्तीय अनियमितता अपने चरम पर है। अत: व्याप्त अनियमितता से इतर ठोस प्रयासों को करने की आवश्यकता है।
बेहद स्वाभाविक तथ्य है कि सूचना किसी भी रोकथाम कार्यक्रम की सफलता की बुनियाद है। सूचना, शिक्षा और संवाद सभी लोगों को अपनी भाषा क्षेत्र और जरुरतों के अनुरुप मिलनी चाहिए, ताकि संदेेश जन-जन तक पहुंच सके और संक्रमण से बचने में सहायता करे। समाज से दूर जेल में बन्द कैदियों की काउंसलिंग की जाए और एच.आई.वी से खतरों को कम करने वाले उपायों से अवगत कराया जाय। संक्रमित व्यक्तियों को सरकार द्बारा मुहैया करायी गई सुविधाओं में सुधार की आवश्यकता है। जैसे प्रत्येक जिले में ए.आर.टी सेन्टर दवाओं के पर्या’ स्टाक के साथ होने चाहिए। सेन्टर पर कार्यरत स्टाफ कर्मियों और परामर्शदाताओं को अपने विषय की पूरी जानकारी हो, ताकि संक्रमित व्यक्ति बेहतर ढंग से अपना उपचार करा सके।
सेंटर पर ही डाट्स की दवा और सेकेण्ड लाइन ट्रीटमेंट की भी व्यवस्था की जाए, ताकि इस संक्रमण के खिलाफ संघर्ष को आगे बढ़ाया जा सके। जहां तक प्रश्न सामजिक स्वीकारिता का है तो समाज की अपनी गति होती है। पहले टी.बी.,कैंसर और कुष्ठ रोगों के रोगियों को लांछित किया जाता था किन्तु अब सूरत दूसरी है। एच.आई.वी के बारे में भी ऐसा ही होने वाला है। यदि अक्षय ध्येयनिष्ठा के साथ योजनाबद्ध तरीके से प्रचार-प्रसार सूचनाएं दी गयी तो अवश्य ही समाज से एच.आई.वी के प्रति लांछन व उल्लाहना का भाव समाप्त होगा और इसे स्थायी संक्रमण के रुप में स्वीकार किया जायेगा किन्तु आवश्यकता है तो सिर्फ योजनाबद्ध तरीके से काम करने की।
आवश्यकता है कि सेमिनारों के बोझिल तकरीरों के शोर से बाहर निकल संक्रमितजनों की आहों को सुनने की जो घृणा और विषाद के कोलाहल में गुम हो जाती है, जरुरत है तो उन सम्बल कन्धों की जो मानवता और प्रेम का बल लेकर प्यार की तलाश में भटक रहे इन वंचित हाथों को थाम सकें। ताकि वह भी हमारे साथ कंधा से कंधा मिला कर जिन्दगी के साथ कदमताल कर सकें। तभी अस्पताल के बेड पर टूटती हुई सांसों में जीवन का सरगम सुनाई देगा। लांछन और आरोपों के तीखे दंश की जगह अपनेपन और ममता के स्वर गूंजेंगे। संक्रमण की वेदना के हलाहल को प्यार का अमृत गले से लगाएगा। जिन्दगी तब हत्या और आत्महत्या के बीच की चीख की जगह सार्थक और सामथ्र्य जीवन के रूप में सामने आएगी, मुझे विश्वास है कि वह सुबह कभी तो आएगी।
यह भी पढ़ें: अपनी जिद से टॉयलट बनवाने वाली बच्ची श्वेता दे रही सबको सीख